1990 के दशक के मध्य में लिखी गयी मेरी इस कहानी को अल्मोड़ा के आर्मी स्कूल में पढ़ रही मेरी 10-12 साल की बेटी गीतिका अपनी ज़ुबान में और अपने शरारत भरे अंदाज़ में सुनाती है.
इस कहानी में बच्चों की मस्तियों और उनकी शरारतों से ज़्यादा उनके आसपास के बड़े-बूढ़ों की विचित्र और लोटपोट करने वाले हरक़तें हैं.
चौधरी हाँकूलाल -
मेरठ शहर सन् 1857 के विद्रोह के लिए प्रसिद्ध है. वहाँ की कैंची, गजक और तिलबुग्गा भी मशहूर हैं पर हमारे अल्मोड़ा में अगर मेरठ की कोई सौगात लोकप्रिय है तो वो है वहाँ से चालीस साल पहले आकर यहीं पर बस गए, हमारे चौधरी चाचा यानी कि चौधरी हाँकूलाल.
चौधरी चाचा का असली नाम अल्मोड़ा में शायद ही कोई जानता हो. बच्चों के लिए वो हाँकू चाचा हैं और बड़ों के लिए चौधरी हाँकूलाल. अल्मोड़ा के रहने वाली पिछली दो पीढि़याँ भी उन्हें इन्हीं नामों से जानती हैं.
हाँकू चाचा करीब पिचहत्तर साल के होंगे पर अभी भी खूब हट्टे-कट्टे हैं. हमारे जैसे तो दो बच्चों को वो अपने कन्धों पर बिठा कर एक-दो किलोमीटर तक दौड़ सकते हैं.
बकौल हांकू चाचा उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक के तमाम शहरों में घूम-घूम कर ऐसे बेशुमार लोगों को मुफ़्त में तालीम दी है जिन्होंने कि आगे चल कर बहुत नाम कमाया है.
हम लोग जिन्हें ट्रेजेडी किंग दिलीपकुमार के नाम से जानते हैं उन्हें हांकू चाचा प्यार से यूसुफ़ भाई जान कहते हैं.
हांकू चाचा बताते हैं कि आज अपनी नफ़ीस उर्दू के लिए मशहूर दिलीपकुमार पहले उर्दू का – ‘अलिफ़, बे, पे, ते’ भी नहीं जानते थे और पंजाबी-पश्तो की खिचड़ी ज़ुबान में बोला करते थे.
हांकू चाचा ने उन्हें ख़ालिस उर्दू की ऐसी तालीम दी कि आज न जाने कितने लोग उनकी ख़ूबसूरत ज़ुबान के दीवाने हैं.
यह बात दूसरी है कि हांकू चाचा ख़ुद हमेशा लट्ठमार मेरठी खड़ी बोली की ज़ुबान का इस्तेमाल करते हैं.
हाँकू चाचा कहते हैं कि अपनी जवानी के दिनों में वो रुस्तमे ज़मां दारासिंह पहलवान के उस्ताद रहे हैं.
पहले दारा सिंह बिल्कुल सींकिया पहलवान थे पर हांकू चाचा ने उन्हें दूध के साथ उबले चने खिलाए और उनके कंधे पर बैठ कर उन से रोज़ाना सौ-सौ दंड-बैठकें लगवाईं.
हाँकू चाचा की मेहनत और उनकी कोचिंग का नतीजा अब दुनिया के सामने है.
हाँकू चाचा का यह भी दावा है कि उन्होंने भारतीय सेना में रह कर बड़े से बड़े जनरल्स को निशानेबाज़ी की तालीम दी है.
1948 में उन्होंने कश्मीर में क़बीलाई हमलावरों से लड़ते हुए उनमें से सैकड़ों को मौत के घाट उतार दिया था.
चाचा की बेमिसाल बहादुरी के लिए भारत सरकार उनको महावीर चक्र देने वाली थी पर उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया.
भला जो सूरमा परमवीर चक्र डिज़र्व करता हो वो उस से छोटे सम्मान को कैसे एक्सैप्ट कर सकता था?
हाँकू चाचा के पास बहुत सी ऐसी फ़ोटो हैं जिनमें वो अपनी छाती पर तमाम तमगे लगा कर भारतीय सेना के बड़े-बड़े जनरल्स के कन्धे पर हाथ रख कर मुस्कुरा रहे हैं.
कुछ दुष्ट लोग हाँकू चाचा की पीठ पीछे इन फ़ोटोज़ को ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी का कमाल बताते हैं पर उनमें से किसी की भी ये हिम्मत नहीं है कि अपनी दुनाली बन्दूक ताने चाचा के सामने उनकी इस ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी का ज़िक्र भी कर सके.
मशहूर गायिका आशा भोंसले को कौन नहीं जानता?
हाँकू चाचा हमको बताते हैं कि आशाजी अपने बचपन से ही उन्हें अपना राखी भाई मानती हैं.
चाचा को वो दिन अभी तक याद हैं जब लता मंगेशकर ने अपनी मीठी आवाज़ से पूरे हिन्दुस्तान में धूम मचा रखी थी पर उनकी छोटी बहन आशा अपनी मोटी-बेसुरी आवाज़ छिपाने के लिए बाहर वालों के सामने अपना मुँह ही नहीं खोलती थी.
हाँकू चाचा ने रक्षा बंधन के मौके पर अपनी इस बेसुरी बहन आशा को स्वर्गीय कुन्दनलाल सहगल की पालतू कोयल भेंट की थी.
इसी कोयल को उस्ताद मान कर उनकी आशा बहन ने बरसों रियाज़ किया और फिर दुनिया को दिखा दिया कि वो लताजी से किसी बात में कम नहीं है.
हाँकू चाचा ने एक बड़े राज़ की बात हमको बताई है.
असल में आशाजी की ही तरह मैलोडी क्वीन लता मंगेशकर की भी ओरिजिनल आवाज़ ख़ास मीठी नहीं थी. वो तो उन्होंने जर्मनी में सर्जरी करा कर अपने गले के अन्दर एक छोटी सी बाँसुरी फ़िट करवा ली है फिर उनके गले की मिठास के लिए इस बाँसुरी को क्रेडिट दिया जाए या फिर ख़ुद लताजी को?
फ़्लाइंग सिक्ख मिल्खासिंह ने सन् 1960 के रोम ओलम्पिक्स में 400 मीटर की दौड़ में वर्ड रिकॉर्ड तोड़ा था पर इसके बावजूद वो चौथे स्थान पर ही रहे थे.
सैकिण्ड के सौंवे हिस्से से मैडल चूक जाने का मिल्खा सिंह को बड़ा मलाल है पर अगर हाँकू चाचा की सलाह पर उन्होंने अमल किया होता तो आज उनके हाथ में ओलम्पिक्स का गोल्ड मैडल होता.
हाँकू चाचा की एक सीख मान कर मिल्खा सिंह ने नदी किनारे बालू में दौड़-दौड़ कर अपना स्टैमिना तो बढ़ा लिया पर दिल्ली की सिटी बसों को दौड़-दौड़ कर पकड़ने की प्रैक्टिस करने वाली सलाह पर उन्होंने बिल्कुल भी अमल नहीं किया.
फिर होना क्या था? दिल्ली की सिटी बसों के पीछे-पीछे भागने की प्रैक्टिस मिस करने की वजह से वो ओलम्पिक्स में मैडल पाने से चूक गए.
मशहूर क्रिकेटर कपिलदेव हाँकू चाचा की बहुत इज़्ज़त करते हैं.
चाचा बताते हैं कि अपने बचपन में कपिल मुण्डा बड़ा सुस्त था और उसकी बॉलिंग-बैटिंग तो उससे भी ज़्यादा ढीली थी.
कपिलदेव को अपने बैट से सिर्फ़ टुक-टुक करना आता था.
एक दिन हाँकू ने चाचा कपिलदेव से बहुत नाराज़ हो कर पूछा –
‘कपिल पुत्तर ! तू इतना हट्टा-कट्टा है पर बॉलिंग करते वक्त और बैटिंग करते वक़्त तेरी सारी ताकत कहाँ चली जाती है? ’
कपिलदेव ने अपने कमज़ोर कन्धों का और बेजान बाज़ुओं का रोना शुरू कर दिया. पर हाँकू चाचा के पास तो हर मर्ज़ की दवा थी.
कपिलदेव को फ़ास्ट बॉलर बनाने के लिए चाचा ने उसे पत्थर मार-मार कर इमली तोड़ने की प्रैक्टिस करने की सलाह दी और अपने बल्ले से सिक्सर पर सिक्सर लगाने के लिए उन्होंने उसे गिल्ली-डंडा के खेल में गिल्ली को अपने डंडे से सौ-सौ मीटर तक दूर तक उड़ाने की कोचिंग भी दी.
इस दोहरी प्रैक्टिस से कपिलदेव के कमज़ोर कन्धे, बाज़ू मज़बूत हो गए और वह भारत का स्टार फ़ास्ट बॉलर बन गया. ऊपर से ये फ़ायदा अलग कि उसके घर में मुफ़्त इमली भी आने लगी.
हांकू चाचा की गिल्ली-डंडे वाली कोचिंग का कपिलदेव को कितना फ़ायदा हुआ यह हम सबने वर्ड कप में ज़िम्बाब्वे के खिलाफ़ उसके नाबाद 175 रन बनाने में देखा था.
कपिल की टीम ने जब सन् 1983 में ओवल के मैदान में वैस्ट इंडीज़ को हरा कर वन डे टूर्नामेन्ट का वर्ड कप जीता तो उसने हाँकू चाचा को वहां बहुत मिस किया.
हारने वाली टीम के कप्तान क्लाइव लायड चाहते थे कि हाँकू चाचा उसकी टीम के कोच बन जाएं पर चाचा अपने देश के साथ गद्दारी कैसे कर सकते थे?
उन्होंने क्लाइव लायड के ऑफ़र को तुरन्त ठुकरा कर अपनी देशभक्ति का सबूत दे दिया.
उड़न परी पी0 टी0 उषा ने हाँकू चाचा की सलाह मान कर अपने घर में कछुओं के बजाय खरगोश पाल कर अगर उनके साथ रेस की प्रैक्टिस की होती तो आज उसके पदकों की अल्मारी में ओलम्पिक्स का गोल्ड मैडल भी होता.
हाँकू चाचा की अब उम्र काफ़ी हो चुकी है.
हम बच्चों को अब वो मैदान में चल कर किसी भी गेम की कोचिंग नहीं दे सकते.
पर इस कमी को वो अपनी ओरल टिप्स से पूरा कर देते हैं.
हमको हाँकू चाचा की हर बात का विश्वास है.
चाचा की कोचिंग से और उनके दिए गए सुझावों से अल्मोड़ा में चोटी के कलाकारों और खिलाडि़यों की लाइन लग जाएगी.
हमको पूरा यकीन है कि हांकू चाचा को भारत सरकार का गुरु द्रोणाचार्य अवार्ड तो मिल कर ही रहेगा पर हम बच्चे यह बात अपने मम्मी-पापा लोगों को कैसे समझाएं?
उन्होंने तो हमको चाचा से दूर रहने का हुक्म दे दिया है.
मम्मी-पापा को डर है कि हम हाँकू चाचा की गप्पें सुन-सुन कर खुद भी दून की हाँकने लगेंगे.
अब कौन उन्हें समझाए?
कौन उन्हें बताए कि यही वो चाणक्य है जो कि अल्मोड़ा के हम बच्चों में से किसी चन्द्रगुप्त को तराशेगा, संवारेगा और यही वो द्रोणाचार्य अवार्ड विनर है जो कि अल्मोड़ा के ही किसी किशोर को या फिर किसी किशोरी को कोचिंग दे कर, उसे ओलंपिक्स का गोल्ड मैडलिस्ट बनवा कर, अल्मोड़ा का नाम सारी दुनिया में रौशन कराएगा.