बहुत से नादान वैज्ञानिक ऐसे-ऐसे घातक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर देते हैं जिनके कि परिणाम हम जैसे निरीह प्राणियों को ताज़िंदगी भुगतने पड़ते हैं.
हमारी ज़िंदगी में आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत सबसे घातक और पीड़ादायक रहा है.
लखनऊ विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ाने के बाद विभागीय षड्यंत्रों की बदौलत हम बेरोज़गार हो कर सड़क पर आ गए थे.
69 दिनों तक बेरोज़गारी की व्यथा सह कर हमने गवर्नमेंट पी० जी० कॉलेज बागेश्वर में प्रवक्ता के रूप में अपनी दाल-रोटी की फिर से व्यवस्था कर ली थी लेकिन हम इस बात पर खुश होने के बजाय निहायत दुखी और निराश थे.
इस घोर निराशा का और इस अथाह दुःख का कारण आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत था.
बागेश्वर प्रवास के आठों महीने हमने रो-रो कर और सिसक-सिसक कर गुज़ारे थे.
कभी हम लखनऊ विश्वविद्यालय के महलनुमा भवनों की तुलना में बागेश्वर के अपने सात कमरों वाले कॉलेज तो देखते थे, कभी हम लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने मेधावी विद्यार्थियों के सापेक्ष बागेश्वर के अक्ल से अक्सर पैदल विद्यार्थियों को देखते थे तो कभी लखनऊ विश्वविद्यालय के स्मार्ट और टिपटॉप गुरुजन के सापेक्ष शेर छाप बीड़ी सुलगाते हुए और आयुर्वेदिक दवाओं के नाम पर देसी ठर्रा (उन दिनों बागेश्वर में मद्य-निषेध लागू था) पीते हुए देखते थे.
हमको निराश और दुखी हो कर अवसादपूर्ण कविताएँ लिखने की प्रेरणा इसी कमबख्त आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत से प्राप्त हुई थी.
अल्मोड़ा के 31 साल के प्रवास में भी आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने परेशान करने में हमारा पीछा नहीं छोड़ा.
बरसों तक हम टेल ऑफ़ दि डिपार्टमेंट कहलाते रहे.
हमसे चार-चार साल छोटे दो सहकर्मी पूरे 31 साल तक हमारे सीनियर रहे.
विभाग से हट कर बाक़ी ज़िंदगी में भी आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने हमारा जीना हराम कर रखा था.
अल्मोड़ा में बरसों तक हम छोटे से घुचकुल्ली मकानों में रहे जहाँ अक्सर जलापूर्ति में बाधा आती रहती थी और हम पति-पत्नी सहित हमारी दोनों बेटियों तक को दूर स्थित नौले (प्राकृतिक जल-स्रोत) से या फिर दूसरे घरों से पानी ढो कर लाना पड़ता था.
हमारे सामने हमारे वो भाग्यशाली साथी अपनी मूंछों पर ताव देते थे जो कि विश्वविद्यालय द्वारा आवंटित मकानों में या फिर अपने ख़ुद के अच्छे-खासे घरों में रहते थे और जिन्हें पानी ढो कर लाना सिर्फ़ मेटों-कुलियों का काम लगता था.
1980 में हम जब अल्मोड़ा आए थे तब हमारे साथियों में इक्का-दुक्का लोगों के पास कारें और दर्जन भर के पास दुपहिया वाहन हुआ करते थे लेकिन धीरे-धीरे उन में से ज़्यादातर के पास कारें होने लगीं.
हम और हमारे परिवार के सदस्य गांधी जी की दांडी-मार्च का ही अनुसरण करते रहे.
हमारे कुछ प्रशंसकों ने तो हमारा नाम ही -‘प्रोफ़ेसर आजीवन पैदल’ रख दिया था.
फिर हम रिटायर हो गए और ग्रेटर नॉएडा में अपने ख़ुद के मकान में शिफ्ट हो गए.
‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया,
अब सुख आयो रे, रंग जीवन में नया लायो रे.’
अब तो ठाठ थे बाबू जी के.
दो सौ वर्ग मीटर के प्लाट पर बने अपने थ्री बेडरूम हाउस में रहने का हमारा सपना अब जा कर साकार हुआ था.
हमारी दोनों बेटियां भी सेटल हो गईं थीं.
और तो और – ‘प्रोफ़ेसर आजीवन पैदल’कहलाने वाले रिटायर्ड गुरु जी अब शानदार-जानदार आल्टो 800 कार के मालिक भी बन गए थे.
12 दिन के पैकेज टूर पर हम इंग्लैंड, फ्रांस, स्विटज़रलैंड ,ऑस्ट्रिया और इटली की सैर भी कर आए थे.
दुबईवासिनी बेटी गीतिका के सौजन्य से हमने तीन बार यूएई भ्रमण का आनंद भी ले लिया था.
अब तो हमको यह गीत गाना ही था –
‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे ----’
लेकिन फिर इस दुष्ट सापेक्षता के सिद्धांत ने हमारे रंग में भंग कर दिया.
हमारे गृहप्रवेश में एक वीआईपी भी पधारे थे. उन्होंने बड़ी देर तक हमारे घर का मुआयना किया फिर एक हिकारत भरी नज़र हम पर डाल कर उन्होंने एक सवाल दाग दिया –
‘इसमें न तो लॉन है और न ही किचन गार्डन और बेडरूम्स तो सिर्फ़ तीन हैं. इतने छोटे मकान में तुम लोग मैनेज कैसे करते हो?’
हमने कुढ़ कर जवाब दिया –
‘बाक़ी तो मैनेज हो जाता है पर घर में स्विमिंग पूल और गोल्फ़ कोर्स न होने की वजह से बड़ी दिक्क़त होती है.’
हमारी विदेश यात्राओं के विवरण देने के साथ हम यह बताना भूल गए कि हमारे सभी भाई-बहन बरसों तक विदेशों में रहे हैं.
एक हज़ार से ऊपर कार वाले हमारे सेक्टर में हमारी आल्टो 800 जैसी छोटी कारें मुश्किल से पांच-छह होंगी.
अपने साइज़ से ट्रकों को और बसों को टक्कर देने वाली कारों के मालिकान हमको और हमारी कार को न जाने क्यूं मक्खी-मच्छर की केटेगरी में रखते हैं.
जुलाई के महीने में हमको इनकम टैक्स रिटर्न भरना था.
हमारे एक वीआईपी शुभचिंतक ने हमसे पूछा –
‘तुम्हारी एनुअल इनकम क्या है?’
हमने निसंकोच उन्हें अपनी वार्षिक आय बता दी.
हमारे द्वारा प्रदत्त सूचना पर उनकी इस टिप्पणी से हमारे तन-बदन में आग लग गयी –
‘अरे ! इस से ज़्यादा तो हमने इस साल इनकम टैक्स भरा है.’
टीवी पर हम सबने यह विज्ञापन हज़ारों बार देखा होगा –
‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद क्यों?’
छोटी सी पेंशन में, छोटे से मकान में, छोटी सी पुरानी कार, छोटे से फ्रिज, छोटे से टीवी, एकाद पुराने पड़ चुके एसी, साधारण से सोफ़े, सस्ते से कार्पेट के साथ, फाइव स्टार होटल्स-रेस्टोरेंट्स जाए बिना और बिना नौकर-चाकर के हुजूम के, हम आराम से जी तो सकते हैं लेकिन आइन्स्टीन का यह सापेक्षता का सिद्धांत बार-बार हमारे सुख-चैन के आड़े आ कर हमको यह याद दिला देता है कि हमारी कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद कमीज़ें हमारे निकटस्थ-दूरस्थ सम्बन्धियों, पड़ौसियों, दोस्तों और दुश्मनों की हैं.
किराए के टूटे-फूटे मकान में रहते हुए और कभी भी चुकाए न जाने वाले उधार की शराब पीते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब ने हमारे जैसे एहसास-ए-कमतरी (हीनता की भावना) में कहा है –
‘रहिए अब ऐसी जगह चल कर, जहाँ कोई न हो.’
और अब हम कह रहे हैं –
'रहिए अब ऐसी जगह चल कर, जहाँ आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत लागू न हो.’
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जवाब देंहटाएंमेरी कलम की हौसलाअफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया अनिता जी.
हटाएंउव्वाहहह
जवाब देंहटाएंरोचक आपबीती
वंदन