रविवार, 10 जनवरी 2016

अकबर इलाहाबादी और नया ज़माना

अकबर इलाहाबादी और नया ज़माना
अकबर इलाहाबादी उन्नीसवीं सदी की पुरातनपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे. प्रगति के नाम पर सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक अथवा वैचारिक परिवर्तन उन्हें स्वीकार्य नहीं था. उनकी दृष्टि में रस्मो-रिवाज, तहज़ीब, मज़हबी तालीम, खवातीनों की खानादारी अर्थात स्त्रियों का कुशल गृह-संचालन, बड़ों का अदब आदि पौर्वात्य संस्कृति का अभिन्न अंग थे पर हमारे अग्रेज़ आक़ा हिन्दोस्तानियों की तरक्की के नाम पर इन सबको मिटाने पर और उनको मनसा, वाचा, कर्मणा काला अंग्रेज़ बनाने पर तुले हुए थे. अकबर इलाहाबादी ने जोशो-ख़रोश के साथ अपने अशआर के ज़रिये इसकी मुखालफ़त (विरोध) की थी.  अकबर इलाहाबादी यह जानते थे कि उनके जैसे परम्परावादी कौम को आगे नहीं ले जा सकते लेकिन उन्हें इस बात का भी इल्म था कि मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाने का दावा करने वाले खुद दिशा हीन थे –
‘पुरानी रौशनी में, और नयी में, फ़र्क इतना है,
उन्हें कश्ती नहीं मिलती, इन्हें साहिल नहीं मिलता.’
(कश्ती – नाव, साहिल –किनारा)  
अंगेज़ी तालीम हमको अपने धर्म, संस्कृति और अपनी ख़ास पहचान से दूर कर रही थी. ये वो तालीम थी जो कि  प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हमको अपने से बड़ों के साथ बे-अदबी से पेश आना सिखा रही थी –
‘हम ऐसी कुल किताबें, क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर के बेटे, बाप को खब्ती समझते हैं.’
(क़ाबिले ज़ब्ती – ज़ब्त किये जाने योग्य)
इस नयी तालीम ने भारतीय युवा पीढ़ी को सिखाया था तो बस, सूट-बूट पहनना, टेबल मैनर्स, बालरूम डांस करना और अपनों के ही बीच बेगाना बन कर रहना –
हुए इस क़दर मुहज्ज़ब, कभी घर का मुंह न देखा,
कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर.’
(मुहज्ज़ब – सभ्य)                            
अकबर इलाहाबादी स्त्री-शिक्षा के विरोधी नहीं थे लेकिन वो चाहते थे कि पढ़-लिखकर लड़की मज़हब-परस्त बने, सु-गृहिणी बने, एक अच्छी बीबी बने, एक अच्छी माँ साबित हो न कि फैशन की पुतली और महफ़िलों की रौनक बने –
‘तालीम लड़कियों की, लाज़िम तो है मगर,
खातून-ए-खाना हो, वो सभा की परी न हो.’
(लाज़िम – आवश्यक, खातून-ए-खाना – सु-गृहिणी)
आज से सौ-सवा सौ साल पहले कोई सोच नहीं सकता था कि सभ्य घरों की महिलाएं और लड़कियां बारात में जाएँगी और सार्वजनिक स्थानों पर खुले-आम नाचेंगी पर नयी तालीम ने हमको यह मंज़र (दृश्य) भी दिखा दिया था –
‘तालीम-ए-दुख्तरां से, ये उम्मीद है ज़रूर,
नाचे खुशी से दुल्हन, खुद अपनी बरात में.’
(तालीम-ए-दुख्तरां – शिक्षित बेटी)         
अकबर इलाहाबादी पर्दा प्रथा के बड़े हिमायती थे लेकिन उन्हें मालूम था कि एक न एक दिन हिंदुस्तान से ये रस्म ज़रूर उठ जाएगी –
गरीब अकबर ने बहस परदे की, बहुत ही खूब की, लेकिन हुआ क्या?
नकाब उलट ही दी उसने कहकर, कि कर लेगा मुआ क्या?’

मैं और मेरे साथ ही तमाम तरक्की पसंद आज अकबर इलाहाबादी को अप्रगतिशील, परम्परावादी, दकियानूसी, स्त्री-स्वातंत्र्य तथा नारी-उत्थान का विरोधी कह सकते हैं लेकिन उनके अशआर को पढ़कर ऐसा हो ही नहीं सकता कि हमको गुदगुदी न हो, हमारे होठों पर मुस्कराहट न आये या हम खिलखिलाकर हंस न पड़ें.                        

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