जोश मलिहाबादी -
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक वर्कशॉप के सिलसिले में वहां 15 दिन रहने का मौक़ा मिला. वहां उर्दू प्रेमियों से मिलकर बहुत अच्छा लगा. ज़ुबान की मिठास, शायिस्तगी और नफ़ासत में तो वो लखनऊ वालों को भी मात करते थे.
मेरे एक मित्र भाषा और साहित्य में बिल्कुल पैदल थे. उन्हें मेरा खोज-खोज कर उर्दू अदब के दीवानों से गुफ़्तगू करना क़तई पसंद नहीं आता था. दिक्क़त ये थी कि वो हमेशा साए की तरह से मेरे साथ रहते थे. पर मुझे फ़िल्म 'प्यासा' के हीरो, शायर विजय की तरह यह कहने का सौभाग्य कभी हासिल नहीं हुआ-
'हमको अपना साया तक,
अक्सर बेज़ार मिला.'
अलीगढ़ में एक बार मैं अपने मित्र को एक क़व्वाली की महफ़िल में ज़बर्दस्ती ले गया. हबीब पेंटर के एक शागिर्द क़व्वाल ने मेरी शाम को खुशनुमा बना दिया पर मेरे मित्र के लिए वहां तीन घंटे बैठना उम्र क़ैद से कम नहीं था. मुआवज़े के तौर पर अगली शाम मुझे उनकी फ़रमाइश पर उन्हें अभिनय सम्राट जीतेंद्र की एक मारधाड़ वाली फ़िल्म दिखानी पड़ी थी.
एक शाम अलीगढ़ के दोस्तों के साथ शेरो-सुखन की महफ़िल जमी हुई थी. एक मोहतरमा ने 'जोश मलिहाबादी' की एक बहुत ख़ूबसूरत नज़्म सुनाई. दिल खुश हो गया. मैंने उन मोहतरमा के पास जाकर उनकी बहुत तारीफ़ की. फिर बातों का सिलसिला आगे बढ़ा. पता चला कि वो उर्दू विभाग में लेक्चरर हैं और जोश मलिहाबादी पर रिसर्च कर रही हैं.
मैं कुछ कहता पर इस से पहले ही उन मोहतरमा ने मुझसे पूछ लिया -
'सर, आपने क्या जोश मलिहाबादी का नाम सुना है?'
यह सवाल सुनकर मेरे तनबदन में आग लग गयी पर मैंने बड़ी मासूमियत से जवाब देने के बदले एक सवाल दाग दिया -
'मलिहाबाद तो दशहरी आम के लिए दुनिया भर में मशहूर है. ये 'जोश मलिहाबादी' क्या दशहरी आम की कोई क़िस्म है?'
बड़ा ज़ोरदार ठहाका लगा. मेरे मित्र आदतन मेरे साथ थे तो वो भी सबके साथ हँसे फिर वो मिठाइयों की टेबल की तरफ़ मुखातिब हो गए.
मेरे सवाल से परेशान उन मोहतरमा को मैंने बताया कि उन्हीं की तरह मैं भी जोश मलिहाबादी का बहुत बड़ा फैन हूँ और उनकी आत्मकथा 'यादों की बारात' मैंने तीन बार पढ़ी है.
उन मोहतरमा ने मुझसे बाक़ायदा माफ़ी मांग ली पर जोश मलिहाबादी का ये किस्सा वहीं ख़त्म नहीं हुआ.
मेरे परम मित्र ने हमारे अलीगढ़ प्रवास के कुछ दिन बाद मुझसे पूछा -
जैसवाल साहब, आप जून, जुलाई में क्या लखनऊ जाएँगे?'
मैंने जवाब देते हुए एक सवाल भी कर दिया -
'लखनऊ तो मेरा घर है. फिर दशहरी आम का सीज़न हो और मैं वहां न जाऊं, क्या ऐसा कभी हो सकता है?'
मित्र बोले - 'आप से एक रिक्वेस्ट है.'
मैंने कहा - 'मित्र, निसंकोच कहो.
मित्र ने कहा - 'लखनऊ से हमारे लिए एक पेटी, नहीं तो कम से कम 5 किलो 'जोश मलिहाबादी' लेते आइएगा.'
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक वर्कशॉप के सिलसिले में वहां 15 दिन रहने का मौक़ा मिला. वहां उर्दू प्रेमियों से मिलकर बहुत अच्छा लगा. ज़ुबान की मिठास, शायिस्तगी और नफ़ासत में तो वो लखनऊ वालों को भी मात करते थे.
मेरे एक मित्र भाषा और साहित्य में बिल्कुल पैदल थे. उन्हें मेरा खोज-खोज कर उर्दू अदब के दीवानों से गुफ़्तगू करना क़तई पसंद नहीं आता था. दिक्क़त ये थी कि वो हमेशा साए की तरह से मेरे साथ रहते थे. पर मुझे फ़िल्म 'प्यासा' के हीरो, शायर विजय की तरह यह कहने का सौभाग्य कभी हासिल नहीं हुआ-
'हमको अपना साया तक,
अक्सर बेज़ार मिला.'
अलीगढ़ में एक बार मैं अपने मित्र को एक क़व्वाली की महफ़िल में ज़बर्दस्ती ले गया. हबीब पेंटर के एक शागिर्द क़व्वाल ने मेरी शाम को खुशनुमा बना दिया पर मेरे मित्र के लिए वहां तीन घंटे बैठना उम्र क़ैद से कम नहीं था. मुआवज़े के तौर पर अगली शाम मुझे उनकी फ़रमाइश पर उन्हें अभिनय सम्राट जीतेंद्र की एक मारधाड़ वाली फ़िल्म दिखानी पड़ी थी.
एक शाम अलीगढ़ के दोस्तों के साथ शेरो-सुखन की महफ़िल जमी हुई थी. एक मोहतरमा ने 'जोश मलिहाबादी' की एक बहुत ख़ूबसूरत नज़्म सुनाई. दिल खुश हो गया. मैंने उन मोहतरमा के पास जाकर उनकी बहुत तारीफ़ की. फिर बातों का सिलसिला आगे बढ़ा. पता चला कि वो उर्दू विभाग में लेक्चरर हैं और जोश मलिहाबादी पर रिसर्च कर रही हैं.
मैं कुछ कहता पर इस से पहले ही उन मोहतरमा ने मुझसे पूछ लिया -
'सर, आपने क्या जोश मलिहाबादी का नाम सुना है?'
यह सवाल सुनकर मेरे तनबदन में आग लग गयी पर मैंने बड़ी मासूमियत से जवाब देने के बदले एक सवाल दाग दिया -
'मलिहाबाद तो दशहरी आम के लिए दुनिया भर में मशहूर है. ये 'जोश मलिहाबादी' क्या दशहरी आम की कोई क़िस्म है?'
बड़ा ज़ोरदार ठहाका लगा. मेरे मित्र आदतन मेरे साथ थे तो वो भी सबके साथ हँसे फिर वो मिठाइयों की टेबल की तरफ़ मुखातिब हो गए.
मेरे सवाल से परेशान उन मोहतरमा को मैंने बताया कि उन्हीं की तरह मैं भी जोश मलिहाबादी का बहुत बड़ा फैन हूँ और उनकी आत्मकथा 'यादों की बारात' मैंने तीन बार पढ़ी है.
उन मोहतरमा ने मुझसे बाक़ायदा माफ़ी मांग ली पर जोश मलिहाबादी का ये किस्सा वहीं ख़त्म नहीं हुआ.
मेरे परम मित्र ने हमारे अलीगढ़ प्रवास के कुछ दिन बाद मुझसे पूछा -
जैसवाल साहब, आप जून, जुलाई में क्या लखनऊ जाएँगे?'
मैंने जवाब देते हुए एक सवाल भी कर दिया -
'लखनऊ तो मेरा घर है. फिर दशहरी आम का सीज़न हो और मैं वहां न जाऊं, क्या ऐसा कभी हो सकता है?'
मित्र बोले - 'आप से एक रिक्वेस्ट है.'
मैंने कहा - 'मित्र, निसंकोच कहो.
मित्र ने कहा - 'लखनऊ से हमारे लिए एक पेटी, नहीं तो कम से कम 5 किलो 'जोश मलिहाबादी' लेते आइएगा.'
:) बढ़िया।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, भूखा बुद्धिजीवी और बेइमान नेता “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम् मिश्र जी. ब्लॉग बुलेटिन के माध्यम से मेरी रचनाएँ अधिक से अधिक सुधी पाठकों तक पहुंचे, मेरे लिए इस से अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है?
हटाएंबहुत अच्छा संस्मरण है सर...:)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्वेता सिन्हा जी. आप जैसे नई पीढ़ी के लोगों को भी हम जैसे पुराने चावलों का ख़याली पुलाव पसंद आए तो बहुत खुशी मिलती है.
हटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १२ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
ध्रुव सिंह जी, 'लोकतंत्र संवाद मंच' में मेरी रचना सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. मैं इस साहित्यिक मंच से हमेशा जुड़ा रहूँगा.
हटाएंवाह !मजेदार संस्मरण
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी. अवकाश-प्राप्ति के बाद तो मुझे फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत रहती है पर ये चटपटी पुरानी यादें मुझे खाली बैठने ही नहीं देतीं. बस, कम्प्यूटर के की बोर्ड पर उँगलियाँ थिरकने लगती हैं.
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंhttps://yoursharepost.blogspot.in/2018/02/blog-post_11.html
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बेरोज़गार लेखक महोदय. आपके माध्यम से आपके अन्य मित्रों तक भी मेरी बात पहुंचेगी.
हटाएंफिर लाये या नहीं जोश मलीहाबादी ? वैसे मैं एक पेटी अवश्य लाकर देता और कहता यह मलीहाबादी तो हैं मगर इनमें जोश नहीं है ! पता नहीं गुज़रे जमाना हो गया उसे !
जवाब देंहटाएंसतीश सक्सेना जी, आमों में जोश था या नहीं था पर यह तय है कि मेरे मित्र को होश नहीं था. आम की पेटी लाकर अगर उनके सर पर पटक देता तो शायद आमों को जोश आ जाता और मेरे मित्र को होश!
हटाएंवाह!!सुंदर संस्मरण ..।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद शुभा जी.
हटाएंयादें सभी से जुड़ी होती हैं मगर शब्दों में बांध कर प्रस्तुत करने की कला में प्रवीण होना अलग बात है .बहुत सुन्दर संस्मरण
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मीनाजी. कुछ नमूने ऐसे होते हैं जिनकी कि हर हरक़त एक चुटकुला, एक लतीफ़ा बन जाती है. आपने इतिहास-पुरुष, ऐतिहासिक-नारी के बारे में सुना होगा. मैंने एक ऐतिहासिक चुटकुला-पुरुष को इस संस्मरण में याद किया है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रभावी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी. मैं अपने मित्र से बिछड़ने के बहुत दिनों बाद यह संस्मरण लिखने का साहस जुटा पाया हूँ.
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