शनिवार, 30 जून 2018

ठाकुर दीवान सिंह


1980 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में जब मेरी नियुक्ति हुई थी तब अल्मोड़ा में किराए के मकान के नाम पर आम तौर पर दो-दो कमरों के खोखे हुआ करते थे और उनकी लोकेशन ऐसी हुआ करती थी कि सड़क से उन तक पहुँचने के लिए या तो आपको पर्वतारोहण करना पड़ता था या फिर पाताल लोक तक नीचे उतरना पड़ता था.
अपनी शादी से पहले मैंने स्टेडियम के नीचे, खत्यारी मोहल्ले में जो किराए का मकान लिया था, उसे मेरे मित्र लोग पाताल-लोक का कोल्ड स्टोर कहते थे. उसे पाताल-लोक तो इसलिए कहा जाता था क्यों कि उस तक पहुँचने के लिए अच्छी-ख़ासी नीची जगह पर स्थित स्टेडियम से भी करीब 150 मीटर नीचे उतरना पड़ता था और कोल्ड स्टोर इसलिए क्योंकि सीलन और धूप कम पहुँचने की वजह से वो गर्मी के दो-तीन महीने छोड़ कर बिना बिजली वाले फ्रीज़र का काम किया करता था.
मेरे इंगेजमेंट के बाद एक बार पापा (तब मेरे होने वाले ससुर जी) मेरे उस घर में आए थे और एक रात उन्होंने मेरे साथ बिताई थी. दिसंबर का महीना था, रूम हीटर चल रहा था पर उन्होंने पूरी रात कंपकंपाते हुए गुज़ारी थी. जाते-जाते वो मुझसे ये वादा ले गए कि मैं उनकी बेटी को उस फ्रीज़र में रहने को मजबूर नहीं करूंगा. 
खत्यारी, क्या पूरे अल्मोड़ा में पानी मिला दूध बेचने के लिए विख्यात खत्यारी के ही निवासी, ठाकुर दीवान सिंह लटवाल मेरे घर भी दूध पहुँचाया करते थे. ठाकुर दीवान सिंह के ख्त्यारी में ही कई मकान थे. मैंने जब उनको अपनी व्यथा सुनाई तो उन्होंने फ़रमाया –
‘साहब बहादुर, आपकी किस्मत बहुत अच्छी है. आपके कॉलेज के ठीक नीचे मेरा मकान तैयार हो रहा है. आप उसको देख लो. टिपटॉप है. आप जैसे आला अफ़सर के लिए उस से अच्छा मकान तो अल्मोड़ा में कोई हो ही नहीं सकता.’
पहली बार मुझ गुरु जी को किसी ने आला अफ़सर कहा था. दिल तो बहुत खुश हुआ पर फिर ये शक़ भी हुआ कि जैसा आला अफ़सर मैं हूँ कहीं उसी तरह का ठाकुर दीवान सिंह का ये नया  टिपटॉप मकान भी न हो.
मैंने मकान देखा तो मेरा सर चकरा गया. नए मकान के नाम पर ठाकुर दीवान सिंह 10-15 साल पुराने मकान की निचली मंज़िल के दो खोखे वाले एक हिस्से का जीर्णोद्धार करा रहे थे. फिर भी पाताल लोक के कोल्ड स्टोर से मुझे ये मकान बेहतर लगा पर इसमें ये कमी थी कि टॉयलेट के लिए आपको घर से बाहर बने टॉयलेट में जाना पड़ता था. मैंने इस शर्त पर मकान लेने के लिए हामी भरी कि ठाकुर मुझको मेरी यूनिट में ही टॉयलेट बनाकर देंगे.
बहुत हाय-हत्या के बाद और मोटा एडवांस लेने के बाद ठाकुर दीवान सिंह मेरी डिमांड के हिसाब से मकान में सुधार करवाने को तैयार हो गए.
अपने वादे के मुताबिक़ दो महीने के अन्दर ठाकुर दीवान सिंह ने अपनी ये तथाकथित नई कोठी मेरे हवाले कर दी.   
अब इस आलीशान कोठी (या कोठरी?) में पहली बार अपने चरण रखते हुए हमारी श्रीमतीजी मगन होकर कितना नाचीं होंगी और कितना कूदी होंगी, इसकी चर्चा करना अपनी खुद की सुरक्षा के लिए क़तई मुनासिब नहीं होगा. लेकिन उनकी एक प्रतिक्रिया का उल्लेख तो किया ही जा सकता है –
‘सुनिए जी ! ये मकान तो शुरू होते ही ख़त्म हो जाता है.’
सवा सात फ़ुट ऊंची छत को देख कर उन्होंने मुझसे ये सवाल भी पूछा था –
‘ये छत, रात में हमारे ऊपर तो नहीं गिर पड़ेगी?’
और ठाकुर दीवान सिंह थे कि पूरे मोहल्ले में इस बात की चर्चा कर रहे थे कि कैसे उन्होंने मेरी फ़रमाइश पर - ‘मनी का भारी मिशयूज’ होते हुए भी मेरे लिए पक्की छत, पक्के फ़र्श और  एक निजी टॉयलेट की व्यवस्था कर दी थी. मैंने कृतज्ञ होकर ठाकुर दीवान सिंह से कहा –
‘भला हो तुम्हारा ठाकुर दीवान सिंह ! तुम्हारी वजह से मुझे पक्की छत, पक्के फ़र्श और टॉयलेट वाला मकान नसीब हो गया वरना अब तक तो मैंने पेड़ पर ही ज़िन्दगी गुज़ारी थी.’
ठाकुर दीवान सिंह असली मकान मालिक थे. वो अपने दो भाइयों और अपने भांजे के साथ मिलकर राज, मिस्त्री और मज़दूर का काम करते हुए मकान तैयार करते थे और फिर उसकी पुताई और पेंट का काम भी खुद ही करते थे. पुताई-पेंट करते समय क्या मजाल कि पुताई के मटीरियल या पेंट की एक बूँद भी ज़मीन पर गिरकर बर्बाद हो.
ठाकुर दीवान सिंह जिलाधीश के यहाँ चपरासी थे और उनका काम था - रात में उनके फ़ोन अटेंड करना. इस गुरुतर कार्य को वो बहुत ज़िम्मेदारी से निभाते थे और इसके लिए वो खुद को बहुत अहमियत भी देते थे. रात 8 बजे से सुबह 5 बजे तक टेलीफ़ोन अटेंड करने की ड्यूटी निभाकर वो सुबह 7 बजे से 10-10 लीटर की दो जरीकैन में दूध भरकर उसका वितरण करने के लिए निकल पड़ते थे. हमारे घर में दूध देते समय वो 5-10 मिनट मेरे पास ज़रूर बैठते थे. उन्होंने एक बार मुझे बताया –
‘साहब बहादुर, पूरे जिले में ये एक अकेला ठाकुर दीवान सिंह ही है जिसके एक इशारे पर खुद जिलाधीश आधी रात को भी फ़ोन सुनने के लिए दौड़ा चला आता है.’
मेरा प्रभावित होना तो बनता ही था. मैंने नतमस्तक होकर उन से पूछा –
‘मित्र ठाकुर, रात में जब भी फ़ोन आता है तो क्या डी. एम. तुम्हारे इशारे पर दौड़ा चला आता है?’
ठाकुर दीवान सिंह ने फ़रमाया –
‘ना जी ! रात में आधे से ज़्यादा फ़ोन करने वाले तो लोकल नेता या छोटे-मोटे अफ़सर लोग होते हैं. उन्हें तो मैं ये कहके ख़ुद ही टरका देता हूँ –
‘साहब इज़ बिज़ी, टॉक इन दि मोर्निंग.’
ठाकुर दीवान सिंह, अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग बहुत अच्छा करते थे. अपने दोनों फ़ौजी भाइयों को उन्हें एक नया मकान तैयार करने के लिए बुलवाना था पर उन्होंने बहाना अपने 80 साल के पिता की बीमारी का बनाना था. उन्होंने दोनों भाइयों को टेलीग्राम कर दिया –
‘फ़ादर सीरियस. कम सून, इमीजियेटली.’
मैंने इस सन्देश के बारे में सुना तो उन से कहा –
‘ठाकुर दीवान सिंह, सून या इमीजियेटली में से तुम एक ही शब्द इस्तेमाल करते तो तुम्हारे 50 पैसे बच जाते.’
ठाकुर मुस्कुराकर बोले –
‘साहब बहादुर, टेलीग्राम करने में 50 पैसे तो बच जाते पर शायद तब मेरे दोनों भाइयों के साहब उन्हें छुट्टी नहीं देते.’
        
ठाकुर दीवान सिंह की बिटिया की शादी थी. हम सपरिवार शादी में शामिल हुए. शादी में जितना दूल्हे का स्वागत हो रहा था, उस से कहीं ज़्यादा स्वागत, वर-वधू को आशीर्वाद देने आए जिलाधीश महोदय का हो रहा था. भला हो ठाकुर दीवान सिंह का, उनकी कृपा से एक ग्रुप फोटोग्राफ़ में हम भी जिलाधीश महोदय और वर-वधू के साथ आ गए.         
हमारे मकानों में पाइप लाइन पुरानी होने की वजह पानी की ज़बर्दस्त किल्लत रहती थी और अक्सर पानी की सप्लाई 10-10 दिन के लिए ठप्प हो जाती थी. हम किरायेदार लोग ठाकुर दीवान सिंह से नई पाइप लाइन डलवाने के लिए कहते थे तो वो कहते थे –
‘साहब लोगों ! आप लोगों के घर से बस, दो सौ गज़ नीचे नौला (प्राकृतिक जल-श्रोत) है जिसके पानी में तमाम विटामिन हैं. आप बढ़िया पानी के लिए थोड़ी मेहनत-मशक्क़त कर लीजिए. दस-पांच दिन में तो पाइप लाइन दुरुस्त हो ही जाएगी.’
एक बरस तक जल-संकट झेलकर मैंने दुगुने किराए पर दुगालखोला में एक बेहतर मकान में जाने का फ़ैसला कर लिया. ठाकुर दीवान सिंह ने मुझे अपने घर में रोकने की कोशिश में मुझसे वादा किया कि वो साल-दो साल में पाइप लाइन बदलवा कर मेरी शिक़ायत दूर कर देंगे. पर मैं नहीं माना और दुगालखोला के मकान में शिफ्ट हो गया. लेकिन मकान बदलने के बावजूद मेरी ठाकुर दीवान सिंह से दोस्ती बनी रही.
वो अक्सर घर के खेत की दो-चार मूली, कुछ टमाटर, थोड़ा हरा धनिया और चार-पांच हरी मिर्च लेकर हमारे घर आ जाते थे और फिर चाय पर हमारी दीर्घकालीन चर्चा हुआ करती थी.
एक गरीब परिवार के, मामूली पढ़े-लिखे, अदना सी नौकरी करने वाले शख्स ने अपनी मेहनत से कुल मिलाकर एक दर्जन मकान खड़े कर लिए थे और अपने आधा-दर्जन बेटे-बेटियों को और अपने बिना माँ-बाप के दो भांजे-भांजियों को भी अच्छा खासा सेटल कर दिया था.
ठाकुर दीवान सिंह सरकारी सेवा से रिटायर हो गए पर उनकी व्यस्तता में कोई कमी नहीं आई. मैंने अपनी ज़िन्दगी में 24 घंटों में 16-17 घंटे काम करने वाला उनके जैसा आदमी नहीं देखा था.
मैं उनसे मज़ाक़ में कहता था –
‘ठाकुर दीवान सिंह, अगर तुम दूध में इतना पानी नहीं मिलाते तो मैं तुम्हारे जैसे कर्मठ आदमी को ‘भारत रत्न’ दिलवा देता.’
ठाकुर दीवान सिंह मुस्कुराकर जवाब देते –
‘साहब बहादुर, दूध में पानी मिलाने का बिज़निस तो इस दूध की थैली आने से चौपट हो गया है. अब आप मुझको ‘भारत रत्न’ दिलवा ही दो.’
मैं ठाकुर दीवान सिंह को भारत रत्न तो नहीं दिलवा पाया पर मेरी नज़रों में वो ‘कर्मठ-रत्न’ हमेशा बने ही रहे. मेरे अल्मोड़ा प्रवास में ही ठाकुर दीवान सिंह स्वर्ग सिधार गए पर गए तो आखरी दिन भी काम करते-करते.
अलविदा ठाकुर दीवान सिंह ! तुम इस दुनिया से तो चले गए हो पर मेरे दिल से अभी भी नहीं गए हो. कौन जाने कब दूध से भरी दो जरीकैन लेकर मेरे घर का दरवाज़ा खटखटा कर, सुबह का अलार्म बनकर, मुझे आवाज़ देकर, तुम कहो –
‘साहब बहादुर, सुबह सात बजने को आए. क्या दूध नहीं लेना है? घोड़े बेच कर क्या सोते ही रहोगे?’      

मंगलवार, 26 जून 2018

गुलज़ार का लघु-उपन्यास - 'दो लोग'


'हम एक थे. एक अलग हो गया. अब हम दो लोग हैं.'
गुलज़ार की शायरी का जवाब नहीं लेकिन जब वो शायरी नहीं करते हैं और नस्र में कुछ कहते हैं या कुछ लिखते हैं तो उनके ख़यालात और भी शायराना हो जाते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि उन्हें सुनने वाले को या उन्हें पढ़ने वाले को यही एहसास होता है कि वो किसी ख़ूबसूरत नज़्म का लुत्फ़ उठा रहा है.
हिंदुस्तान का, भारत और पाकिस्तान में तकसीम होना, मुसलमान का हिन्दू और सिख के खून का प्यासा होना, हिन्दू और सिख का, मुसलमान का खून बहाकर खुश होना, एक-दूसरे की बहू-बेटियों की आबरू लूटकर अपने मज़हबी फ़राइज़, अपने धार्मिक कर्तव्य निभाना, आगज़नी, लूट-मार के बीच अपनी मिटटी से, अपने वतन से बिछड़ना, अपने हम-निवाला, अपने हम-प्याला, अपने हमराज़ और अपने हमसायों से हमेशा-हमेशा के लिए जुदा होना और फिर अनजाने देस में, अनजाने लोगों की शक़ भरी निगाहों के बीच गर्दिश और ज़िल्लत की ऐसी लम्बी रात गुज़ारना जिसकी कि सुबह, कभी आने का नाम ही न लेती हो.
गुलज़ार के इस लघु उपन्यास का पहला भाग और दूसरा भाग ऐसी ही दर्द भरी दास्तानें हैं.
बूढ़े सिख मास्टर करम सिंह दंगाइयों की शिकार हुई अपनी बीबी का अंतिम संस्कार करते हुए खुद उसी की चिता में बैठ जाते हैं. और बलात्कार की वजह से गर्भवती हुई मोनी जब एक प्यारे से बच्चे को जन्म देती है तो उस मासूम बच्चे में अपने उस बलात्कारी का अक्स देखकर उसका खून कर देती है.   
लेकिन इस दर्द के पीछे ऐसे रिश्तों की मीठी सी कहानियां भी हैं जिनके बीच में मज़हब-धर्म की दीवार खड़ी नहीं हो पाती है. अपने सिख यार को दंगाइयों से बचाने के लिए कोई मुसलमान जान पर खेल जाता है तो जिस्म-फ़रोशी का पेशा करने वाली पन्ना एक अनाथ सिख बच्चे की परवरिश का ज़िम्मा उठा लेती है.
और फिर आज़ादी मिल गयी. गुलज़ार कहते हैं –
‘आज़ादी पहुँच तो गयी, पर बुरी तरह लहूलुहान, ज़ख़्मी – जगह-जगह से जिस्म फट गया. कुछ अंग टूट गए. कुछ अटके रह गए. न इस तरफ़, न उस तरफ़ ---.’
गुलज़ार के इस उपन्यास की कहानी फिर एकदम से छलांग सी लगा लेती है और हम सालों की दहायियाँ एक साथ पार करने लगते हैं. कहानी बहुत तेज़ी से दौड़ने लगती है और भारत-पाकिस्तान की सरहदों को पार करते हुए वो इंग्लैंड के रिफ्यूजियों तक पहुँच जाती है. यहाँ कहानी में वो दम नहीं रह जाता जो इसके पहले दो भागों में था.
लेकिन एक बार फिर गुलज़ार की कहानी हमारे दिल को तब फिर से छूने लगती है है जब वो इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए सिक्खों के नृशंस हत्याकांड का दिल दहलाने वाला मंज़र पेश करते हैं.  
बटवारे की सियासत पर कहानी के एक बुज़ुर्ग पात्र जाफ़र मियां कहते हैं –
‘अभी तो कई बार ये मुल्क टूटेगा, जुड़ेगा. सदियों पुरानी आदत है, हुक्मरानों की. कोई दूसरा आके जोड़ दे तो जोड़ दे, खुद नहीं जुड़ेंगे. खुद जुड़ के रहना है तो जम्हूरियत क्या है?’
शुक्रिया गुलज़ार ! आपने अपने इस अफ़साने से हमको बहुत रुलाया है लेकिन साथ में ऐसा सबक भी दिया है जो हमको सरहदों को, और दिलों को और ज़्यादा बार, और ज़्यादा बेरहमी से, बांटने से रोकेगा.                   

गुरुवार, 21 जून 2018

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूढ़े बन-माहिं



आदरणीय राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी ने आज की अपनी एक पोस्ट पर बी फ़ातिमा के जीवन-दर्शन से जुड़ी हुई एक कहानी का ज़िक्र किया है.
बी फ़ातिमा एक रात अपने घर के बाहर उजाले में कुछ खोज रही थीं. लोगों ने पूछा तो उन्होंने बताया कि वो एक गुम हुई सूई खोज रही हैं. लोगबाग भी सुई खोजने के लिए उनकी मदद को आ गए. बहुत खोजने पर भी जब सुई नहीं मिली तो लोगों ने उनसे पूछा -
'आपको कुछ अंदाज़ा है कि सुई कहाँ गिरी थी?'
फ़ातिमा बी ने जवाब दिया -
'सुई तो मेरे घर के अन्दर ही गिरी थी पर चूंकि घर में अँधेरा था इसलिए उसे बाहर उजाले में खोज रही हूँ.'

लोगबाग जब फ़ातिमा बी की इस नादानी पर हंसने लगे तो उन्होंने उनसे एक सवाल पूछा -
'तुम लोग सुई के मामले में तो बड़े सयाने हो पर यह तो बताओ कि जिस चैन, जिस सुकून को, तुम लोग बाहर खोजते रहते हो, क्या वह कहीं बाहर खोया था?' 
बी फ़ातिमा की यह कथा तो समाप्त हुई किन्तु यह बहुत से सवाल छोड़ गयी है.

एक सवाल है –
क्या किसानों के कष्टों का निवारण एयर कंडीशंड कमरों में बैठ कर हो सकता है?’
क्या कश्मीर की समस्या का निवारण महबूबा को गले लगाने से या उसको ठुकराने से हो सकता है?’
क्या नक्सलवादी समस्या का निदान नक्सलियों द्वारा हमारे जवानों पर किए गए हर हमले के बाद गृहमंत्री के इस बयान से हो सकता है –
ऐसे हमलों को अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.’
क्या 'फ़िट रहे इंडिया' का नारा देकर या उस से सम्बंधित वीडियो का प्रसारण करके हम भूखों, नंगों और को फ़िट कर सकते हैं?  
क्या गाँधी-नेहरु को कोस कर हम अपने दायित्वों से बच सकते हैं?

सवाल तो अनंत हैं पर अगर हम इन पांच सवालों का ठीक-ठीक जवाब भी खोज लें तो हो सकता है कि बी फ़ातिमा की गुम हुई सुई भी मिल जाए.    

रविवार, 17 जून 2018

जीत लिया है सकल जहान

गोली खाता रहे जवान, सूली चढ़ता रहे किसान,
किन्तु पकौड़े बेच, भाग्य पर, इठलाता देखा इंसान,
सूखी रोटी, चिथड़ा कपड़ा, वृक्ष तले है खुला मकान,
अच्छे दिन आ गए, मगन है, आज समूचा हिंदुस्तान.

शुक्रवार, 15 जून 2018

चंद गुस्ताखियाँ - फ़िराक़ गोरखपुरी से क्षमा-याचना के साथ


1. बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
    तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं.
संशोधित शेर -
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
मुसाहिब, अपने आक़ा की महक, पहचान लेते हैं

2. ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
    वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में.
संशोधित शेर -
ग़रज़ कि काट दिए, ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तलुए चाट के गुजरें, कि दुम हिलाने में.

3.  ऐ दोस्त, हमने तर्के-मोहब्बत के बावजूद,
     महसूस की है तेरी ज़रुरत, कभी-कभी.
संशोधित शेर –
ऐ दोस्त, हमने तर्के-मोहब्बत के बावजूद,
इक नाज़नीं से पेच लड़ाए, अभी-अभी.
(तर्के मुहब्बत - प्रेम का परित्याग)

4.  याद करते हैं किसी को, मगर इतना भी नहीं,
      भूल जाते है किसी को, मगर ऐसा भी नहीं.
नेताजी उवाच –
अपने वादों से मुकरता हूँ, मगर ऐसा भी नहीं,
जूते-चप्पल से नवाज़ो, मुझे, गोली से नहीं.

शनिवार, 9 जून 2018

सत्ता-भक्ति में शक्ति

पानी केरा बुदबुदा, अस भक्तन की जात,
पद छिनते छुप जाएंगे, ज्यों तारा परभात.
आजकल भक्तगण टीवी चैनलों पर और फ़ेसबुक पर छाए हुए हैं. लेकिन ये भक्त कुर्सी पर विराजमान महानुभावों की ही भक्ति करते हैं, न कि किसी मंदिर में स्थापित शिवजी की, रामजी की, कान्हाजी की या हनुमानजी की. इन सत्ता-भक्तों की वाणी अत्यंत मधुर होती है. लगता है कि ये बाबा रामदेव के दन्तकान्ति से नहीं, बल्कि डायनामाइट से दन्त-मंजन करते हैं.
बादशाह अकबर के ज़माने में दर्शनियों की एक जमात होती थी जो बादशाह के दर्शन किये बिना न पानी का एक भी घूँट लेती थी और न मुंह में अन्न का एक भी दाना डालती थी.
इंदिराजी के ज़माने में कोई बरुआ साहब हुआ करते थे जिन्हें इंदिरा जी में ही इंडिया दिखाई देता था.
महा-विद्वान पी. वी. नरसिंह राव मानव संसाधन मंत्री के रूप में कुमाऊँ विश्व विद्यालय के दीक्षांत समारोह में आए तो कह गए -
'हम पुराने लोग नई तकनीक के बारे में कुछ नहीं जानते थे. हम राजीव गाँधी जी के आभारी हैं कि उन्होंने हमको तकनीकी दुनिया में हमारा हाथ पकड़कर चलना सिखाया है.'
बिहार में जब लालू-राज था तो वहां मंदिरों में हनुमान चालीसा की जगह लालू चालीसा पढ़ा जाता था.
और वर्तमान कुर्सी भक्तों की भक्ति का तो बखान ही नहीं किया जा सकता. ये भक्त, पुराने कुर्सी भक्तों की तुलना में अधिक उत्साही हैं, अधिक समर्पित हैं, अधिक आक्रामक हैं, और सबसे बड़ी बात है कि अधिक अंधे हैं.
इन भक्तों को मतभेद स्वीकार्य ही नहीं है. जिस से उनके विचार नहीं मिलते उसको अपने त्रिशूल से भेदना इन्हें खूब आता है.
टीवी चैनल्स पर हो रही बहसों में अपने विरोधियों को ये कच्चा चबा जाने की हर संभव कोशिश करते है.
फ़ेसबुक पर पोस्ट की गयी कोई बात इन्हें अगर नागवार गुज़रे तो ये लाठी भांजते हुए अपने शिकार की ओर दौड़ पड़ते हैं. इनकी भाषा इतनी अशिष्ट होती है कि लोग चिरकीन की शायरी भूल जाएं और इनके विचार तथा तर्क इतने बचकाने होते हैं कि के. जी. में पढ़ने वाला बच्चा भी उस पर हंस पड़े.
अपनी स्पष्टवादिता के कारण अक्सर मुझे इन भक्तों के प्रकोप का भाजन बनना पड़ता है. कल मैंने अपने एक मित्र की पोस्ट पर प्रणव मुुखर्जी के भाषण और उनके राजनीतिक जीवन पर प्रतिकूल टिप्पणी क्या कर दी, एक कुर्सी-भक्त मुझ पर तलवार लेकर टूट पड़े. जैसे तैसे मेरी जान बची.
अपने सभी जागरूक मित्रों से मेरा अनुरोध है कि वो इन अति-उत्साही कुर्सी-भक्तों से ३६ का आंकड़ा रक्खें. अगर वो ऐसा नहीं करते हैं तो मैं समझूंगा कि मेरी मुफ़्त में हज़ामत कराने में उन्हें भी खुशी मिलती है.
वैसे एक बात अच्छी है. इन बरसाती मेढकों की टर-टर सत्ता परिवर्तन होते ही बंद हो जाती है पर जब तक कुर्सी पर विराजमान मूरत नहीं बदलती तब तक तो इनके शोर और इनकी हरक़तों को हमको बर्दाश्त करना ही होगा.

शुक्रवार, 1 जून 2018

एक क्लास की कहानी


राजनीति-शास्त्र की कक्षा में अपने विद्यार्थियों को भारतीय लोकतंत्र की विशेषताएँ पढ़ाते समय गुरु जी उनको इतिहास की एक कथा सुनाने लगे –
बच्चों ! द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने फ़्रांस पर क़ब्ज़ा कर लिया था लेकिन फ़्रांसीसी अब भी छुप-छुप कर जर्मन सेना पर हमले कर रहे थे. इसके जवाब में जर्मन सैनिक घर-घर जाकर, खोज-खोज कर फ़्रांसीसी नौजवानों को मारने लगे.
पेरिस से बहुत दूर एक निर्जन से कस्बे के एक घर में एक बुढ़िया रहती थी. बुढ़िया के दो बेटे थे पर जर्मन फ़ौज के डर से वो कहीं छुप गए थे. एक रात को बुढ़िया के दरवाज़े को कोई ज़ोर से भड़भड़ाते हुए चिल्लाया –
दरवाज़ा खोलो, नहीं तो हम इसे तोड़ देंगे.'
मजबूरन बुढ़िया को दरवाज़ा खोलना पड़ा. हाथों में रायफ़ल लिए हुए दो जर्मन सैनिक घर के अन्दर दाख़िल हो गए. सैनिकों ने देखा कि बुढ़िया के दोनों फ़रार बेटे खाना खा रहे हैं. जर्मन सैनिकों ने उन दोनों भगोड़ों को एक खम्बे से बाँध दिया और फिर उनकी माँ को हुक्म दिया –
बुढ़िया, हमको भूख लगी है. चल, हमको खाना खिला.'
बुढ़िया ने उन दोनों सैनिकों को अपने हाथों का बना स्वादिष्ट भोजन बड़े ही प्यार से खिलाया और फिर उनके सामने अपने बेटों की जान की भीख मांगने के लिए हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी.
भरपेट स्वादिष्ट भोजन करके दोनों जर्मन सैनिक दरियादिल हो गए थे. उन्होंने बुढ़िया से कहा –
बुढ़िया, तूने हमको इतना अच्छा खाना खिलाकर हमारा दिल खुश कर दिया. वैसे तो हम किसी की नहीं सुनते पर हम तेरी बात सुनेंगे. अब तू ही बता कि हम तेरे किस बेटे को पहले मारें और किस बेटे को बाद में.’
कथा समाप्त हो गयी. एक छात्र ने आश्चर्य प्रकट करते हुए गुरु जी से पूछा –
गुरु जी द्वितीय विश्व युद्ध के इस प्रसंग का भारतीय लोकतंत्र से क्या सम्बन्ध है?
गुरु जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया –
बिलकुल सम्बन्ध है. क्या तुमने उस बुढ़िया को नहीं पहचाना? वह बुढ़िया ही तो अपना भारतीय लोकतंत्र है.
एक और विद्यार्थी ने पूछा – तो उस बुढ़िया के वो दो बेटे कौन थे?
गुरु जी ने उत्तर दिया – बुढ़िया का बड़ा बेटा – ईमान था और छोटा बेटा – सांप्रदायिक सद्भाव था.
तीसरे विद्यार्थी ने पूछा – तो वो जर्मन सैनिक कौन-कौन थे?
गुरु जी का जवाब था – उनमें से एक देशभक्त पार्टी था और दूसरा था – महा गठबंधन !