मंगलवार, 26 जून 2018

गुलज़ार का लघु-उपन्यास - 'दो लोग'


'हम एक थे. एक अलग हो गया. अब हम दो लोग हैं.'
गुलज़ार की शायरी का जवाब नहीं लेकिन जब वो शायरी नहीं करते हैं और नस्र में कुछ कहते हैं या कुछ लिखते हैं तो उनके ख़यालात और भी शायराना हो जाते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि उन्हें सुनने वाले को या उन्हें पढ़ने वाले को यही एहसास होता है कि वो किसी ख़ूबसूरत नज़्म का लुत्फ़ उठा रहा है.
हिंदुस्तान का, भारत और पाकिस्तान में तकसीम होना, मुसलमान का हिन्दू और सिख के खून का प्यासा होना, हिन्दू और सिख का, मुसलमान का खून बहाकर खुश होना, एक-दूसरे की बहू-बेटियों की आबरू लूटकर अपने मज़हबी फ़राइज़, अपने धार्मिक कर्तव्य निभाना, आगज़नी, लूट-मार के बीच अपनी मिटटी से, अपने वतन से बिछड़ना, अपने हम-निवाला, अपने हम-प्याला, अपने हमराज़ और अपने हमसायों से हमेशा-हमेशा के लिए जुदा होना और फिर अनजाने देस में, अनजाने लोगों की शक़ भरी निगाहों के बीच गर्दिश और ज़िल्लत की ऐसी लम्बी रात गुज़ारना जिसकी कि सुबह, कभी आने का नाम ही न लेती हो.
गुलज़ार के इस लघु उपन्यास का पहला भाग और दूसरा भाग ऐसी ही दर्द भरी दास्तानें हैं.
बूढ़े सिख मास्टर करम सिंह दंगाइयों की शिकार हुई अपनी बीबी का अंतिम संस्कार करते हुए खुद उसी की चिता में बैठ जाते हैं. और बलात्कार की वजह से गर्भवती हुई मोनी जब एक प्यारे से बच्चे को जन्म देती है तो उस मासूम बच्चे में अपने उस बलात्कारी का अक्स देखकर उसका खून कर देती है.   
लेकिन इस दर्द के पीछे ऐसे रिश्तों की मीठी सी कहानियां भी हैं जिनके बीच में मज़हब-धर्म की दीवार खड़ी नहीं हो पाती है. अपने सिख यार को दंगाइयों से बचाने के लिए कोई मुसलमान जान पर खेल जाता है तो जिस्म-फ़रोशी का पेशा करने वाली पन्ना एक अनाथ सिख बच्चे की परवरिश का ज़िम्मा उठा लेती है.
और फिर आज़ादी मिल गयी. गुलज़ार कहते हैं –
‘आज़ादी पहुँच तो गयी, पर बुरी तरह लहूलुहान, ज़ख़्मी – जगह-जगह से जिस्म फट गया. कुछ अंग टूट गए. कुछ अटके रह गए. न इस तरफ़, न उस तरफ़ ---.’
गुलज़ार के इस उपन्यास की कहानी फिर एकदम से छलांग सी लगा लेती है और हम सालों की दहायियाँ एक साथ पार करने लगते हैं. कहानी बहुत तेज़ी से दौड़ने लगती है और भारत-पाकिस्तान की सरहदों को पार करते हुए वो इंग्लैंड के रिफ्यूजियों तक पहुँच जाती है. यहाँ कहानी में वो दम नहीं रह जाता जो इसके पहले दो भागों में था.
लेकिन एक बार फिर गुलज़ार की कहानी हमारे दिल को तब फिर से छूने लगती है है जब वो इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए सिक्खों के नृशंस हत्याकांड का दिल दहलाने वाला मंज़र पेश करते हैं.  
बटवारे की सियासत पर कहानी के एक बुज़ुर्ग पात्र जाफ़र मियां कहते हैं –
‘अभी तो कई बार ये मुल्क टूटेगा, जुड़ेगा. सदियों पुरानी आदत है, हुक्मरानों की. कोई दूसरा आके जोड़ दे तो जोड़ दे, खुद नहीं जुड़ेंगे. खुद जुड़ के रहना है तो जम्हूरियत क्या है?’
शुक्रिया गुलज़ार ! आपने अपने इस अफ़साने से हमको बहुत रुलाया है लेकिन साथ में ऐसा सबक भी दिया है जो हमको सरहदों को, और दिलों को और ज़्यादा बार, और ज़्यादा बेरहमी से, बांटने से रोकेगा.                   

16 टिप्‍पणियां:

  1. शुक्रिया गुलज़ार ! इतना कहना सब कुछ कहना है।

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  2. नमस्ते,
    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
    गुरुवार 28 जून 2018 को प्रकाशनार्थ 1077 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

    प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
    सधन्यवाद।

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    1. धन्यवाद रवींद्र सिंह जी. 'पांच लिंकों का आनंद' ब्लॉग में अपनी रचना को सम्मिलित किए जाने से मुझे प्रसन्नता है. कल इस अंक का आनंद उठाने के उत्सुक रहूँगा.

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  3. वाह! गुलजार साहब की कलम की बात ही कुछ और है !!
    अब तो इस लघु उपन्यास को जरूर पढना पडेगा । धन्यवाद सर ।

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    1. ज़रूर पढ़ो लेकिन इस कहानी में इंसान की दरिंदगी देखकर मायूस मत होना क्योंकि इंसानों की बस्तियों में सिर्फ़ दरिन्दे ही नहीं कुछ फ़रिश्ते भी बसते हैं.

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  4. गुलजार जी का कोई सानी नहीं है उनकी विस्तृत दृष्टि क्षितिज पार तक का अवलोकन कर वो लिख देती है जो अद्भुत अद्वितीय और अविस्मरणीय होता है ये उपन्यास छुटा है पढ़ने से जल्दी ही पढने को मन लालायित हो रहा है।
    आपकी समीक्षा ने आकर्षण को और बढा दिया
    अत्योत्तम समीक्षा ।

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    1. धन्यवाद कुसुम जी. गुलज़ार ने इस उपन्यास में भोगे हुए यथार्थ का चित्रण किया है. इसी लिए यह पाठकों को इतना प्रभावित कर पाता है. मैंने उपन्यास की समीक्षा तो क्या की है, बस, इसको पढ़कर जो दिल में जज़्बात उभरे, उनको शब्दों का जामा पहना दिया है.

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  5. बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है आपने उपन्यास की सर।
    गुलज़ार जी का लेखन अद्भुत है। उनके द्वारा रचा शब्द-शिल्प गज़ब का प्रभाव छोड़ता है।
    आपने इतना सुंदर और महीन भाव-विश्लेषण किया कि मन इस किताब को पढ़ने को लालायित हो गया।
    सादर आभार सर।

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  6. धन्यवाद श्वेता जी. मेरी बड़ी बेटी गीतिका जिसने कि मुझे यह उपन्यास भेंट किया है, वो इस बात से नाराज़ है कि मैंने अपनी समीक्षा में उपन्यास की कथा का सार बता दिया है जिस से लोगों की दिलचस्पी इस उपन्यास को पढने में कम हो जाएगी. अब मैं उसे आपकी टिप्पणी दिखाऊंगा.

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  7. गुलज़ार का लेखन हो या बंटवारे का दर्द। आँखों से आंसू बहा ही ले जाते हैं। दर्द है, तड़प है, हैवानियत है और इंसानियत भी है इसीलिये उनका लेखन रूह तक पंहुचता है। आप ने लघु उपन्यास का जो खाका खींचा है उसका हर तार हमें पुस्तक को पढ़ने के लिए लालायित कर रहा है। जल्द ही पढ़ती हूँ।
    सादर

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    1. गुलज़ार की कलम की पहुँच हम सबकी रूह तक है. सीधी और सच्ची बात कहने का उनका अंदाज़ ऐसा है कि हम-आप उसमें डूब जाते हैं. आप इस उपन्यास को पढ़ेंगी तो आपको लगेगा कि मैंने इसकी तारीफ़ कुछ कम ही की है.

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  8. निशब्द हूं इस समीक्षा और गुलज़ार साहब के लेखन कौशल के आगे । मेरी ढेर सारी किताबों एक और बढ़ने वाली है।

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    1. धन्यवाद मीना जी. गुलज़ार-फैन-क्लब में आपका स्वागत है. अगर किताबें बढ़ानी हैं तो फिर इस उपन्यास के अलावा आपको गुलज़ार द्वारा टैगोर की कविताओं का काव्यानुवाद भी खरीदना होगा. आपको अगर आनंद न आए तो मन-मुताबिक़ हर्ज़ाना, आप मुझसे वसूल सकती हैं.

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    2. जी निश्चित रूप से....., मुझे यकीन है हर्ज़ाना वसूलने की नौबत आयेगी ही नही ।

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