शुक्रवार, 1 जून 2018

एक क्लास की कहानी


राजनीति-शास्त्र की कक्षा में अपने विद्यार्थियों को भारतीय लोकतंत्र की विशेषताएँ पढ़ाते समय गुरु जी उनको इतिहास की एक कथा सुनाने लगे –
बच्चों ! द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने फ़्रांस पर क़ब्ज़ा कर लिया था लेकिन फ़्रांसीसी अब भी छुप-छुप कर जर्मन सेना पर हमले कर रहे थे. इसके जवाब में जर्मन सैनिक घर-घर जाकर, खोज-खोज कर फ़्रांसीसी नौजवानों को मारने लगे.
पेरिस से बहुत दूर एक निर्जन से कस्बे के एक घर में एक बुढ़िया रहती थी. बुढ़िया के दो बेटे थे पर जर्मन फ़ौज के डर से वो कहीं छुप गए थे. एक रात को बुढ़िया के दरवाज़े को कोई ज़ोर से भड़भड़ाते हुए चिल्लाया –
दरवाज़ा खोलो, नहीं तो हम इसे तोड़ देंगे.'
मजबूरन बुढ़िया को दरवाज़ा खोलना पड़ा. हाथों में रायफ़ल लिए हुए दो जर्मन सैनिक घर के अन्दर दाख़िल हो गए. सैनिकों ने देखा कि बुढ़िया के दोनों फ़रार बेटे खाना खा रहे हैं. जर्मन सैनिकों ने उन दोनों भगोड़ों को एक खम्बे से बाँध दिया और फिर उनकी माँ को हुक्म दिया –
बुढ़िया, हमको भूख लगी है. चल, हमको खाना खिला.'
बुढ़िया ने उन दोनों सैनिकों को अपने हाथों का बना स्वादिष्ट भोजन बड़े ही प्यार से खिलाया और फिर उनके सामने अपने बेटों की जान की भीख मांगने के लिए हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी.
भरपेट स्वादिष्ट भोजन करके दोनों जर्मन सैनिक दरियादिल हो गए थे. उन्होंने बुढ़िया से कहा –
बुढ़िया, तूने हमको इतना अच्छा खाना खिलाकर हमारा दिल खुश कर दिया. वैसे तो हम किसी की नहीं सुनते पर हम तेरी बात सुनेंगे. अब तू ही बता कि हम तेरे किस बेटे को पहले मारें और किस बेटे को बाद में.’
कथा समाप्त हो गयी. एक छात्र ने आश्चर्य प्रकट करते हुए गुरु जी से पूछा –
गुरु जी द्वितीय विश्व युद्ध के इस प्रसंग का भारतीय लोकतंत्र से क्या सम्बन्ध है?
गुरु जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया –
बिलकुल सम्बन्ध है. क्या तुमने उस बुढ़िया को नहीं पहचाना? वह बुढ़िया ही तो अपना भारतीय लोकतंत्र है.
एक और विद्यार्थी ने पूछा – तो उस बुढ़िया के वो दो बेटे कौन थे?
गुरु जी ने उत्तर दिया – बुढ़िया का बड़ा बेटा – ईमान था और छोटा बेटा – सांप्रदायिक सद्भाव था.
तीसरे विद्यार्थी ने पूछा – तो वो जर्मन सैनिक कौन-कौन थे?
गुरु जी का जवाब था – उनमें से एक देशभक्त पार्टी था और दूसरा था – महा गठबंधन !                         

20 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद. लेकिन सिर्फ़ 'वाह' कहने से काम नहीं चलेगा. हमको-तुमको बुढ़िया और उसके बेटों की मदद के लिए आगे भी आना होगा.

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  2. बहुत सुंदर संदेशात्मक कहानी है सर,
    खतरे मे पड़े बुढ़िया के बेटों की मदद के लिए जनमानस की जागृति आवश्यक है।

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    1. धन्यवाद श्वेता जी. 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' महाकवि दिनकर ने यूँ ही थोड़ी कहा था. जन-जागृति के सामने तो बड़े से बड़ा अत्याचारी भी धराशायी हो जाता है.

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  3. तो क्या लोकतंत्र इन्ही देश भक्तों और गठ्बन्धन से खतरे में है.
    क्या एक सच्चा देश भक्त ईमानदार और सम्प्रदायिक सद्भावना नहीं रखता है.

    कहानी बहुत कुछ बयाँ कर रही है.

    कविता और मैं


    .

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    1. रोहितास घोरेला जी. मैंने सच्चे देशभक्तों की नहीं, स्व-घोषित देशभक्तों की बात की थी जो ईमान बेचकर और सांप्रदायिक सद्भाव का खून कर के अपना वतमान और अपना भविष्य सुधारते हैं. आपकी कविताओं का रस्वादन अवश्य करूंगा.

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  4. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति कमजोर याददाश्त - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

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    1. धन्यवाद हर्षवर्धन जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' के माध्यम से मुझे साहित्य-प्रेमी मित्रों से संपर्क करने का अवसर मिलता है और बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिलता है.

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  5. सोचने को मजबूर करती आपकी यह व्यंग रचना .

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    1. धन्यवाद राही जी. हम सब इकट्ठे होकर सोचेंगे और हिम्मत जुटाएंगे तो बुढ़िया और उसके दोनों बेटों को बचाने का कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकल आएगा.

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  6. व्यंग प्रधान रचना । हर कहानी की तरह सीख देती । युगों से चली आ रही परंपरा है ।

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    1. धन्यवाद मीना जी. हुक्मरान के ज़ुल्मो-सितम हमको बहुत-कुछ सिखा देते हैं.

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  7. लगता है हमारे लोकतंत्र में ऐसे हालात हमेशा रहेंगे ।

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    1. अगर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हमारे भाग्य-विधाता बने रहे तो वाक़ई हालात कभी नहीं सुधरेंगे.

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  8. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 6 जून2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद 'पांच लिंकों का आनंद' सदैव मुझे सुधी पाठकों तक पहुंचाता है. मैं ज़रूर इसकी रचनाओं का रसास्वादन करूंगा.

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  9. प्रतीकात्मक बिंबों के प्रयोग से कही गई बात कभी कभी सीधे सीधे कही गई बात से भी गहरा असर करती है। सांप्रदायिक सद्भाव और ईमान लोकतंत्र की नींव के दो मजबूत खंभे हैं,जिनको पल पल मिटता हम देख ही रहे हैं। मिटानेवाले कौन यह संदेश भी कहानी में आ गया। अब बचानेवालों को खोजना होगा और उनका साथ देना होगा।

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    1. मीनाजी, मज़ाक़ में आपकी बात का जवाब दूं?
      'हमारे भरोसे मत रहियो !'
      वैसे किसी न किसी चूहे को तो बिल्ली के गले में ख़तरे की घंटी बाँधने के लिए आगे आना ही होगा. अब वो बहादुर चूहा ख़ुद मैं भी हो सकता हूँ, आप भी हो सकती हैं या कोई और भी हो सकता है. बहरहाल ये बात सही है कि ईमान और सांप्रदायिक सद्भाव के मिटते ही लोकतंत्र, उस फ़्रांसीसी बुढ़िया की तरह बेबस और लाचार हो जाता है.

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