बुधवार, 26 जून 2019

इमरजेंसी


लखनऊ यूनिवर्सिटी से जब मैं मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास में एम. ए. (1971-73) कर रहा था और तब जब कि मैं वहां शोध छात्र था, लखनऊ विश्वविद्यालय और उसके तथाकथित नंबर एक बॉयज़ हॉस्टल, हमारे लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल का बहुत बुरा हाल था. हर जगह गुंडा-राज था. 
हमारे लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल में हॉस्टल रेज़िडेंट्स के साथ तमाम गुंडे और दादा किस्म के लड़के गैर-क़ानूनी ढंग से रहते थे. अपनी हेकड़ी से ये लोग हॉस्टल मेस में खाना भी मुफ़्त में खाया करते थे और इनका बोझ हम नियमित रूप से पैसा देकर खाना खाने वाले उठाया करते थे. इनकी आतंकी गतिविधियों की वजह से आए दिन मेस बंद होते रहते थे और हम बेचारे लड़कों को बाहर बाज़ार के किसी ढाबे में जाकर अपना काफ़ी वक़्त जाया कर के और अपनी जेब कुछ अतिरिक्त ढीली कर के अपनी भूख मिटानी पड़ती थी.
रोज़ रात को इनकी महफ़िलें सजती थीं जिसमें कि जुआ खेलने और शराब पीने और फिर पी कर गालियाँ देने को सबसे शालीन कृत्यों में गिना जाता था. हॉस्टल के सीधे-सादे लड़कों से महीना-वसूली और अगर ज़रुरत पड़े तो हफ़्ता-वसूली का कोई भी मौक़ा ये लोग कभी छोड़ते नहीं थे. मुझ से पैसे उगाहने की तो इनकी कभी हिम्मत नहीं होती थी लेकिन जब से मुझे यू. जी. सी. फ़ेलोशिप मिलने लगी थी तो ये राक्षस मुझ से भी चाय समौसे के बहाने एकाद रुपया प्राप्त कर ही लेते थे. इनको पता था कि मैं शराब या क़बाब के लिए तो इन्हें पैसा देने से रहा.
सरदार और मौलाना (इन के नामों का मैं उल्लेख नहीं करूंगा) हमारे हॉस्टल रूपी तालाब के सबसे भयानक मगरमच्छ थे. हॉस्टल के कम-उम्र शक्ल-सूरत के अच्छे लड़कों पर इनकी हमेशा बुरी नज़र रहती थी. आए दिन कोई न कोई लड़का इनका शिकार हुआ करता था और सबसे दुखद बात यह थी कि हमारे हॉस्टल के बहुत कम लड़कों की सहानुभूति इन शिकार हुए लड़कों के साथ हुआ करती थी. हॉस्टल के एकाद लड़कों को तो इन राक्षसों की बेजा हरक़तों की वजह से हमारा हॉस्टल छोड़कर अपने रहने की कोई और व्यवस्था तक करनी पड़ी थी.
सरदार और मौलाना को देखते ही मेरे तन-बदन में आग लग जाती थी लेकिन मन मसोस कर मुझे उनके अभिवादन का जवाब भी देना पड़ता था और उनका कोई न कोई बेहूदा किस्सा भी सुनना पड़ता था.
मैं हमेशा दुआ करता था कि इन पापियों के नीचे की धरती फटे और इन्हें अपने में समा ले या फिर आसमान की बिजली इनके ऊपर गिरकर इन्हें राख में तब्दील कर दे पर मेरी न्यायोचित दुआओं का ऊपर वाले पर कोई असर नहीं हो रहा था. हमारे हॉस्टल में इन की सल्तनत बदस्तूर क़ायम रही.
जनवरी, 1975 में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में लेक्चरर के रूप में नियुक्त हुआ. अपने हॉस्टल का मैं पहला लड़का था जो कि अपने ही विश्विद्यालय में लेक्चरर बना था. मित्रों ने मुझ से दावतें मांगीं तो मुझे कई बार खुशी-खुशी अपनी जेब ढीली करनी पड़ी.
एक रात सरदार और मौलाना मिठाई का डिब्बा लेकर मेरे कमरे में आए. दोनों ही शराब के नशे में झूम रहे थे. मैंने उन्हें इस हालत में देख कर उन्हें अपने कमरे से धक्का देकर निकालने की कोशिश की तो सरदार बोला
गोपू दादा ! हम दोनों तो तुम्हारे लेक्चरर होने पर सारे हॉस्टल में मिठाई बांटते फिर रहे हैं और तुम हो कि हमको धक्का मारकर अपने कमरे में से निकाल रहे हो?’
मैंने कहा
तुम दोनों को पता है कि मैं शराब से और शराबियों से कितनी नफ़रत करता हूँ. फिर तुम लोग शराब पीकर मेरे कमरे में क्यों आए? और मेरे लेक्चरर होने की खुशी में तुम लोग मिठाई क्यों बाँट रहे हो? अब असली मुद्दे पर आओ, तुम लोग मुझसे क्या चाहते हो?’
ना मांगू सोना-चांदी, ना मांगू बंगला-गाड़ीनगमे के अंदाज़ में कमबख्त मौलाना बोला
गोपू, तुम बस, हिस्ट्री डिपार्टमेंट की लड़कियों से हमारी दोस्ती करा देना.
मौलाना की इस डिमांड को सुनकर मेरे तो पाँव तले ज़मीन खिसक गयी. मैंने उन दोनों के हाथ जोड़ कर आज़िज़ी से कहा
भाई लोगों ! मेरी नौकरी लगे जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए हैं और तुम उसे खाने के लिए अभी से आ गए?’
भाई लोग मुस्कुराकर समवेत स्वर बोले
डिपार्टमेंट में तो हम तुम्हारे ज़रूर आएँगे और तुमको हमारा ये काम भी ज़रूर करना पड़ेगा.
मैंने उन दुष्टों को लाख समझाया बार-बार मिन्नतें कीं पर वो अपनी इस नापाक डिमांड से टस से मस नहीं हुए. आख़िरकार मैंने उन से जान-बक्शी की कीमत जाननी चाही. उनकी वैकल्पिक डिमांड पूरी करना मेरी जेब के बस में नहीं था. मान-मनौअल के बाद वो लोग मुझसे उस सस्ते ज़माने में 150 रूपये झटक कर और मुझे हिस्ट्री डिपार्टमेंट में कभी न आने का अभयदान देकर, दारू और मुर्गे की पार्टी करने के लिए चलते बने.
मेरी कमाई से पहली और आख़िरी बार दारू और मुर्गे की पार्टी हो रही थी. मेरे दिल में आग लगी हुई थी और चुनिन्दा से चुनिन्दा बददुआएं उनके लिए निकल रही थीं. लेकिन न तो वो पापी धरती में समाए, न उन पर बिजली गिरी और न ही उन्हें हार्ट-अटैक आया.
मुझे समाज से बड़ी शिकायत है. क्यों वह सरदार और मौलाना जैसे पापियों को पनपने देता है? फिर हमारे प्रशासक क्या सिर्फ़ सुविधा भोगने के लिए हैं? और हमारी पुलिस क्या सिर्फ़ हफ़्ता वसूलने के लिए है?
सरदार और मौलाना के ज़ुल्म और बढ़ते जा रहे थे लेकिन हमारे छात्रावास में उन्हें निकालने के लिए कोई भी कार्रवाई नहीं हो रही थी. मैंने मन ही मन तय कर लिया था कि अगर सरदार और मौलाना जैसे गुंडों को हॉस्टल से नहीं निकाला गया तो मैं अपने रहने का इंतजाम कहीं और कर लूँगा.
और फिर 25 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा दी.
आप पूछेंगे
सरदार-मौलाना आतंक-प्रसंग में इमरजेंसी का ज़िक्र क्यों आ गया?’
इस सवाल का जवाब हाज़िर है -
सरदार और मौलाना की हवस का शिकार होकर एक लड़का हॉस्टल छोड़कर चला गया था. उसकी पढ़ाई का एक साल भी मारा गया था. उस लड़के के पापा की इंदिरा गाँधी के दरबार में प्रविष्टि हो गयी और फिर सरदार-मौलाना आतंक के दुर्दिन शुरू हो गए. एक सुबह मारपीट और गाली-गलौज का शोर सुनकर मेरी आँख खुल गयी. मैं अपने कमरे से बाहर निकला तो देखा कि हमारे हॉस्टल में पुलिस की पलटन सरदार और मौलाना को घसीटते हुए ले जा रही है साथ में लाठी पर लाठी की मार और गाली पर गाली का उपहार. हॉस्टल का कोई भी लड़का इन दुष्टों की दुर्दशा देखकर दुखी नहीं था.
और मैं मन ही मन – ‘सच हुए सपने तेरेजैसा कोई गीत गाता हुआ इंदिरा गाँधी को इमरजेंसी लगाने के लिए धन्यवाद दे रहा था.
इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के दौरान आतंक का राज क़ायम हुआ, नए गुंडे पनपे, हमारी ज़ुबान पर लगाम लगाई गयी, हमारी कलम पर ताले लगे, हज़ारों बे-गुनाह जेल में भरे गए, लेकिन एक बढ़िया बात यह हुई कि उस दौर के शुरू होने के कुछ ही दिन बाद मेरी ज़िंदगी के दो बड़े खलनायकों का एक ही झटके में इतने शानदार तरीके से खात्मा हो गया.

शुक्रवार, 21 जून 2019

चमकी बुखार



16 जून की शाम को मुज़फ्फ़रपुर में फैले चमकी बुखार के सम्बन्ध में हो
रही एक ज़रूरी मीटिंग में स्वास्थ्य-मंत्री द्वारा उठाए गए दो अहम सवाल -
1. 'लेटेस्ट स्कोर क्या है?'
2. 'क्या रोहित शर्मा की सेंचुरी हो गयी?'
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मुज़फ्फ़रपुर में श्री शिवमंगल सुमन की अमर रचना – वरदान मांगूगा नहीं के अंदाज़ में मंत्री जी कुम्भकरणी उद्गार -   

जब मृत्यु एक विराम है,
फिर क्यों मचा कोहराम है?
क्या कोसना हमको सदा, 
इस मीडिया का काम है?
वातानुकूलित कक्ष का,
आराम सारा छोड़ कर,
साँसें बचाने के लिए,
मैं आज भागूंगा नहीं.
दम तोड़ दें बच्चे सभी,
मैं आज जागूँगा नहीं.

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एक दमतोड़ स्पष्टीकरण -

देश प्रगति कर रहा, तुम्हें कुछ पता नहीं है,
यम ने बच्चे चुने, हमारी ख़ता नहीं है.’

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महाकवि दिनकर का बिहार –

श्वानों को मिलता, दूध, वस्त्र,
भूखे बच्चे, अकुलाते हैं.
चमकी बुखार से ग्रस्त हुए तो,
बिन इलाज, मर जाते हैं.

शुक्रवार, 14 जून 2019

साम्यवादी मूल्यों की स्थापना


साम्यवादी मूल्यों की स्थापना
पिताजी के हर तीन साल में तबादले की वजह से हम बच्चों को नए परिवेश में खुद को ढालने की चुनौती होती थी. हर बार नए दोस्त और नए दुश्मन बनाने पड़ते थे. 1965 में जब पिताजी का रायबरेली से बाराबंकी तबादला हुआ तो मेरा एडमिशन बाराबंकी के गवर्नमेंट इन्टर कॉलेज के क्लास टेंथ में करा दिया गया. मेरा कॉलेज हमारे घर से क़रीब ढाई किलोमीटर था और वहां तक मुझे पैदल ही जाना होता था क्योंकि मुझे तब तक साइकिल चलाना आता ही नहीं था.
बाराबंकी के हमारे कॉलेज में मुहल्ला कल्चर बहुत थी. पंजाबी रिफ्यूजी कॉलोनी के लड़कों का अपना गैंग था तो शुगर-मिल कॉलोनी वाले लड़कों का अपना दल था. मेरे लिए सबसे चिंता विषय यह था कि मेरी तरह का कोई और ऐसा लड़का था ही नहीं जिसका कि क्लास टेंथ में नया एडमिशन हुआ हो. लेकिन कुछ दिन बाद मेरी तरह से ही एक लड़के ने क्लास टेंथ में एडमिशन लिया. वह लड़का था तो चुच्चू किस्म का सींकिया पहलवान लेकिन उसका दिमाग सातवें आसमान तक पहुंचा हुआ था. मैंने अपनी तरफ़ से उस से दोस्ती करने की पहल करने के लिए उसका परिचय जानना चाहा. उसने बड़ी शान से अपना परिचय देते हुए कहा
‘My self Krishna Kumar Sharma, son of Shri R. D. Sharma, I. P. S., the Superintendent of Police, Barabanki.’
(यहाँ मज़े कि बात बता दूँ कि कृष्ण कुमार शर्मा सिर्फ़ अपना परिचय देते हुए इंग्लिश में ये रटा-रटाया जुमला बोलते थे वरना इस म्लेच्छ-भाषा में वो बिलकुल ही पैदल थे.)
जब कृष्ण कुमार शर्मा जी ने मुझसे मेरे बारे में पूछा तो मैंने अपने बारे में मुई आंग्ल-भाषा का पूर्ण परित्याग कर अपनी प्यारी हिंदी भाषा में सिर्फ़ इतना बताया कि मैंने रायबरेली से नाइन्थ पास करके यहाँ टेंथ में एडमिशन लिया है. शर्मा जी का अगला सवाल था
तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’
मैंने जवाब दिया
मेरे पिताजी जुडिशियल मजिस्ट्रेट हैं.
शर्मा जी का अगला वाक्य ऐसा था जिसने मेरे तन-बदन में आग लगा दी -
जुडिशियल मजिस्ट्रेट तो छोटा अफ़सर होता है. उसे न तो सरकारी कार मिलती है और न ही कोई जीप.
अपने गुस्से को क़ाबू में रखते हुए मैंने बड़ी विनम्रता से कहा
'
मेरे पिताजी साइकिल की सवारी करते हैं.
साहबे-आलम ने हें-हें-हें करते हुए पूछा
और तुम?’
संयम की पराकाष्ठा दर्शाते हुए मैंने जवाब दिया
मैं तो पैदल सैनिक हूँ.
ज़ाहिर था कि इन साहबे-आलम और मुझ पैदल सैनिक के बीच की पहली मुलाक़ात ख़ुशगवार नहीं थी लेकिन तोकू और, न मोकू ठौरकी कहावत को चरितार्थ करते हुए हम दोनों के बीच दोस्ती होनी तो ज़रूरी थी क्योंकि क्लास के हम दो नए रंगरूटों से कोई और लड़का जल्दी दोस्ती करने को तैयार ही नहीं था.
कृष्ण कुमार में पता नहीं क्यों पुराने ज़माने के ठाकुरों जैसी बेकार की हेकड़ी हुआ करती थी. उसकी हर बात अपने पापा के रौब-दाब से या तो शुरू होती थी या फिर उस से ख़त्म होती थी. लेकिन उसके लिए सबसे दुःख की बात यह थी कि क्लास में कोई भी ढंग का लड़का उसे वी. आई. पी. स्टेटस देने को तैयार नहीं था.
कृष्ण कुमार अक्सर मुझे फ़ोन करने के लिए कहता रहता था. हालांकि उसे पता था कि हमारे घर में फ़ोन नहीं है. कब उसने बम्बई में अपने चाचा जी से ट्रंक कॉल करके बात की, कब उसके पापा को प्रदेश के गृह-मंत्री का फ़ोन आया और कब-कब उसके पापा और जिलाधीश महोदय की आपस में फ़ोन पर बात हुई, इसकी सारी ख़बर, हमको नियमित रूप से मिलती रहती थी.
बाराबंकी के ऑफिसर्सक्लब में हम दोनों टेबल टेनिस खेलने जाते थे. वहां एक बिलियर्ड्स टेबल भी थी पर उसमें उन दिनों में भी खेलने का प्रति घंटे एक रुपया चार्ज था. हमारे स्मार्ट कृष्ण कुमार ने बिलियर्ड्स टेबल पर चुपके से चाकू लेकर नक्काशी कर दी. उस सस्ते ज़माने में बिलियर्ड्स टेबल पर नया कपड़ा चढ़ाने में दो हज़ार का खर्चा आना था. क्षति-ग्रस्त बिलियर्ड्स टेबल को कामचलाऊ बना कर सब के लिए फ्री में उपलब्ध कर दिया गया. अब कृष्ण कुमार और मैं भी बिलियर्ड्स प्लयेर बन गए. उन दिनों बिलियर्ड्स में हमारे विल्सन जोंस और माइकल फ़रेरा का दुनिया भर में नाम था. अब बाराबंकी के ऑफिसर्सक्लब में दो और बिलियर्ड्स चैंपियन तैयार हो रहे थे. कृष्ण कुमार ने अपनी ज़िंदगी में एक यही ऐसा काम किया था जिसके लिए मैं आज भी उसका शुक्रगुज़ार हूँ.
कृष्ण कुमार पढ़ाई में कद्दू था. घर में उसे दो मास्साब पढ़ाने आते थे लेकिन उनकी मदद से वो सिर्फ़ अपना होम-वर्क कर लेता था. उसके बाक़ी भाई-बहन पढ़ने में बहुत अच्छे थे लेकिन उसकी गणना हमारे क्लास के सबसे फिसड्डी लड़कों में होती थी और दूसरी तरफ़ मेरी गणना क्लास के अच्छे विद्यार्थियों में की जाती थी. त्रैमासिक परीक्षा में मुझे क्लास में सर्वाधिक अंक प्राप्त हुए. भाई कृष्ण कुमार को यह बात बिलकुल हज़म नहीं हुई. मुझसे बदला लेने के लिए उन्होंने नए सिरे से - आला अफ़सर के बेटे और छोटे अफ़सर के बेटे वाला पुराना मुद्दा उठा लिया.
कृष्ण कुमार मुझे बताते
हम लोग जीप से जा रहे थे कि रास्ते में तुम्हारे पापा हमको साइकिल पर जाते हुए दिखाई दिए.
अब ज़ाहिर था कि अगर पिताजी साइकिल से ही यहाँ-वहां जाते थे तो वो किसी को भी साइकिल चलाते हुए दिखाई दे सकते थे.
बाराबंकी वालों को देवा मेला का हर साल इंतज़ार रहता था. हम लोग भी कवि-सम्मलेन, मुशायरा, क़व्वाली और म्यूजिक कांफ्रेंस वाले दिनों में वहां ज़रूर जाते थे. देवा मेले में भी अफ़सरी ठाठ का नक्शा लेने में कृष्ण कुमार पीछे नहीं रहता था. उसका अंदाज़ कुछ ऐसा होता था
म्यूजिक कांफ्रेंस वाले दिन मैंने तुम लोगों को देखा था. हम लोग तो आगे सोफ़े पर बैठे हुए थे और तुम लोग पांचवी लाइन में कुर्सियों पर बैठे थे.
कमला सर्कस में तो मज़ा आ गया. हम वीआईपी लोगों को तो मिठाई भी खाने को मिली. मैंने तो स्टेज पर जाकर जोकर से हाथ भी मिलाया था. तुम लोगों को तो पीछे बैठकर साफ़-साफ़ दिखाई भी नहीं दे रहा होगा.
खून का घूँट पी कर मैंने बताया कि हम लोग कमला सर्कस देखने गए ही नहीं थे.
मेरे सब्र का पैमाना अब छलकने वाला था. आला अफ़सर और छोटा अफ़सर वाला यह खेल मेरे लिए क़ाबिले-बर्दाश्त नहीं रह गया था. दरोगा तो दरोगा, इन दिनों तो कृष्ण कुमार के अनुसार कोतवाल और डी. एस. पी. भी उसे सलाम करने लगे थे. लेकिन कृष्ण कुमार ने जब यह जतलाना शुरू किया कि एक एस. पी. के बेटे का खुद का स्टेटस भी एक जुडिशियल मजिस्ट्रेट से ऊपर होता है तो मुझमें विस्फोट होना लाज़मी था.
कृष्ण कुमार की इन बदतमीज़ियों को ख़त्म करने का एक ही तरीक़ा था कि मैं उसको पटक-पटक कर मारूं लेकिन यहाँ उसका जूडो-कराटे प्रशिक्षण मुझे रोक रहा था. कृष्ण कुमार अपनी नंगी हथेलियों से लकड़ी के मोटे-मोटे पटरे और ईंट तोड़ने के दावे करता था. मेरा जैसा गोलू-मोलू लड़का उस जैसे जूडो के तथाकथित ब्राउन-बेल्ट होल्डर का मुक़ाबला कैसे कर सकता था?
मैंने कृष्ण कुमार से बात करना बंद कर दिया लेकिन मेरे साथ उसकी छेड़ा-छाड़ी रुकी नहीं. एक दिन मैं कॉलेज से वापस घर जा रहा था. पीछे से साइकिल पर आकर उसने मेरे सर पर चपत मारी और मुझे ''प्यादा बाबूकहकर मुझसे आगे निकल गया.
मैंने आव देखा न ताव, दौड़कर उसकी साइकिल का कैरियर पकड़ कर उसकी साइकिल खींच कर पलट दी. हमारे तथा-कथित जूडो चैंपियन साइकिल से छिटक कर दूर जाकर गिर पड़े और मैं हैवी-वेट उनकी छाती पर चढ़ कर उन पर दनादन घूंसे बरसाने लगा.
आठ-दस मुक्के खाकर जूडो-चैंपियन तो बचाओ-बचाओचिल्लाने लगा. लेकिन मैं न तो अपने हाथ चलाना रोक रहा था और न ही अपनी ज़ुबान. एक मुक्का और एक गाली (शुद्ध शाकाहारी वाली) उसकी जीप की सवारी के नाम पर, तो एक मुक्का और एक गाली उसकी फ़ोन वार्ता की ठसक पर, एक मुक्का उसको सैल्यूट करने वालों के नाम पर, तो एक गाली उसके वीआईपी स्टेटस के नाम पर. आखिरकार हमारे दो-चार दोस्तों ने आकर हम दोनों को अलग किया.
धूल-धूसरित, घायल और अपमानित हमारे एस. पी. पुत्र, रोते-रोते, नाक पोंछते-पोंछते, मेरे समूचे खानदान को जेल भिजवाने की धमकी दे रहे थे लेकिन इन धमकियों से अब कोई भी सहम नहीं रहा था. एक तरफ़ मैं पिछले पांच-छह महीनों से अपनी इंतकाम की सुलगती आग को उसके आख़िरी अंजाम तक पहुँचाने पर खुश हो रहा था तो दूसरी तरफ़ हमारे कई साथी इस एक-तरफ़ा कुश्ती को देख कर हंस रहे थे.
अपने कपड़ों की धूल झाड़ते हुए घायल कृष्ण कुमार जाते-जाते मुझे कल से कॉलेज न आने की और आज से ही ऑफिसर्स क्लब में न जाने की हिदायत दे गए क्योंकि इन दोनों जगहों पर पहुँचते ही दो-चार सिपाही डंडों से मेरी आव-भगत करने को नियुक्त किए जाने वाले थे. लेकिन जब ओखली में मैंने अपना सर डाल ही दिया था तो मूसलों से डरने का दौर भी मेरे लिए ऑटोमैटिकली दूर हो गया था. उसी शाम को मैं भयभीत हुए बिना ऑफिसर्स क्लब पहुँच गया. डंडाधारी सिपाही-सेना तब तक वहां नहीं पहुँची थी और तो और, कृष्ण कुमार भी वहां नज़र नहीं आ रहा था. सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि पिताजी और आला अफ़सर, हमारे एस. पी. साहब यानी कि कृष्ण कुमार के पापा, दोनों टेनिस खेल रहे थे. मैं उन दोनों का खेल देखते हुए कृष्ण कुमार का और उसकी डंडाधारी-सेना का इंतज़ार करने लगा.
कुछ देर बाद डंडाधारी सिपाही-सेना के बिना ही कृष्ण कुमार मुझे साइकिल पर आता हुआ दिखाई दिया. मुझे निषिद्ध-स्थान पर देखकर उसकी हालत पतली हो गयी. ऊपर से मेरे पिताजी और अपने पापा को वहां मौजूद देख कर तो उसके चेहरे से हवाइयां उड़ने लगीं. मैं उसकी डांवाडोल स्थिति को तुरंत भांप गया. मैंने हेकड़ी जताते हुए उस से पूछा
हाँ तो जूडो चैंपियन, एस. पी. पुत्र, कृष्ण कुमार ! तुम्हारी फ़ौज कहाँ है? तुम तो मेरी हड्डियाँ तुड़वाने वाले थे? अब तो छोटे अफ़सर, यानी कि मेरे पिताजी भी यहीं हैं और आला अफ़सर, यानी कि तुम्हारे पापा भी यहीं हैं. बताओ, मेरी कुटम्मस करवा के तुम मुझे कब जेल भिजवा रहे हो?’
साहबे-आलम, आला अफ़सर के शहज़ादे, भाई कृष्ण कुमार ने हाथ जोड़ते हुए मुझ से कहा
'गोपेश, कॉलेज में जो हुआ उसे भूल जाओ. चलो फिर से दोस्ती कर लेते हैं.
मैं पहले ही तय कर चुका था की इस शेखी-खोरे के साए से भी खुद को दूर रक्खूँगा. मैंने सख्ती से कहा
मुझ मामूली लड़के की तुम जैसे शहज़ादे से दोस्ती हो ही नहीं सकती. अभी तो तुम्हारी सारी हरक़तें मैं पिताजी को और तुम्हारे पापा को बताने वाला हूँ.
अपने कान पकड़ते हुए कृष्ण कुमार ने आज़िज़ी से कहा
तुम कॉलेज जैसी तुड़ाई चाहे एक फिर कर दो पर अंकल से और पापा से मेरी शिकायत मत करो. अच्छा, ये सब बातें छोड़ो ! ये बताओ बिलियर्ड्स खेलोगे?’
मैंने कुछ देर सोचा फिर मैं रौब से बोला
नहीं ! आज हम टेबल टेनिस खेलेंगे.
कृष्ण कुमार ने विनम्रता से जवाब दिया
ठीक है ! हम आज टेबल टेनिस ही खेलेंगे. भला मैं कहीं अपने सबसे अच्छे और अपने सबसे पक्के दोस्त की बात टाल सकता हूँ?’
उस दिन के बाद से मैं और कृष्ण कुमार वाक़ई अच्छे और पक्के दोस्त बन गए. फिर न तो कभी कोई छोटा अफ़सर हमारी बातचीत में आया और न ही कभी कोई आला अफ़सर हमारी दोस्ती में बाधक बना. हमारी दोस्ती में छोटे-बड़े का फ़र्क हमेशा-हमेशा के लिए मिट गया. और इस प्रकार सच्चे अर्थों में उसी दिन से भारत में समाजवादी और साम्यवादी मूल्यों की स्थापना हुई.

बुधवार, 12 जून 2019

कठुआ काण्ड और अलीगढ़ काण्ड से जुड़ा एक सवाल


नन्हीं कलियाँ, बिन खिले, मुरझा गईं !
वहशियत है मुल्क में, समझा गईं !

बच्चियां हिन्दू की हों,
मुसलमान की हों
या
किसी अन्य धर्मावलम्बी की !
किसी से बदला लेने के लिए -
या
किसी को सबक सिखाने के लिए -
उन मासूमों का अपहरण,
उन का बलात्कार,
और उन की हत्या
करना ज़रूरी क्यों हो जाता है?

गुरुवार, 6 जून 2019

सांस लेते हुए मुर्दे

उसूलों पर जहाँ आँच आए, टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िंदा हो, तो फिर ज़िंदा नज़र आना, ज़रूरी है.
वसीम बरेलवी
मुर्दा-दिल क्या खाक़ जिया करते हैं -
जो हिम्मत कर के लब खोले, तो जाना, मैं भी ज़िन्दा हूँ,
मैं वरना, सांस लेते, एक मुर्दे के, सिवा क्या था.
एक गुस्ताख़ी और -
दाल-रोटी, चंद कपड़े और सर पर एक छत,
ग़र यही, जीने का मक़सद, फिर तो मैं, मुर्दा भला !