रविवार, 20 अक्तूबर 2019

खीरगति

मूलतः मारवाड़ी बोहरे जी का परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से हाथरस में रह रहा था. बोहरे जी का धंधा ब्याज पर रूपये उधार देना था. उनके ग्राहकों में गरीब तबक़े के लोग ज़्यादा हुआ करते थे. इन बिना-पढ़े मासूम लोगों से बोहरे जी बिना कोई ज़मानत लिए उधार देकर उन से उस पर मोटी ब्याज वसूला करते थे.
हमारे परदादा बोहरे जी के सर-परस्त थे. परदादा जी के कई मुलाज़िम भी बोहरे जी के उधारी के जाल में फंसे हुए थे. हमारे परदादा जी की हवेली पर जग-प्रसिद्द पेटू बोहरे जी को आए दिन दावत पर बुलाया जाता था. इसका कारण था कि हमारे परदादा को पेटूपने में बोहरे जी की रिकॉर्ड-तोड़ परफ़ॉरमेंस देखना बहुत अच्छा लगता था. यह बात और थी कि गोलमटोल बोहरे जी का अपनी हवेली में प्रवेश होते देख परदादी हर बार बड़बड़ाती थीं–
‘आय गयो कम्बखत, नासपीटो, मरभुक्खौ, भोजन-भट्ट !’
हाथरस में बोहरे जी का धंधा थोड़ा मंदा हो चला था लेकिन उनके कुछ रिश्तेदार पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसी धंधे में अच्छा पैसा बना रहे थे. हमारे बाबा उन्हीं दिनों में रूड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज से सी. ई. का डिप्लोमा उत्तीर्ण करके गोंडा में डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुए थे. अपने रिश्तेदारों की मौजूदगी और अपने सर-परस्त हमारे परदादा जी के बेटे की गौंडा में नियुक्ति ने बोहरे जी को गौंडा में अपना धंधा चलाने के लिए प्रेरित किया.
शुरू-शुरू में बोहरे जी अपना परिवार हाथरस में छोड़कर अकेले ही गौंडा गए थे. हमारे बाबा ने चैंपियन भोजन-भट्ट बोहरे जी को अपने बंगले में रहने की जगह नहीं दी. बेचारे बोहरे जी ने एक धर्मशाला में टिकने का इंतजाम किया और खाने के लिए पांडे भोजनालय वालों से बात कर ली. सस्ता ज़माना था, पांडे जी ने दो रूपये महीने में दोनों वक़्त का भरपेट खाना खिलाने का उनसे करार कर लिया. बोहरे जी ने अपनी अंटी से चांदी के दो रूपये निकाल कर पांडे जी को एक महीने का एडवांस दे भी दिया.
दिन को और शाम को खाना तैयार होते ही पांडे भोजनालय में पहुँचने वाले पहले ग्राहक बोहरे जी ही हुआ करते थे. दो-तीन दर्जन रोटियां, पतीली भर के दाल, सात-आठ बार सब्ज़ी का ढेर और तीन-चार बार चावल का पहाड़ परोसते-परोसते, परोसने वाले थक जाते थे लेकिन बोहरे जी के मुख से संतुष्टि की डकार नहीं सुनाई पड़ती थी.
बेचारे पांडे जी तो वचन-बद्ध थे, वो अपना क़रार तोड़ भी तो नहीं सकते थे. खैर जैसे-तैसे एक महीना बीता. बोहरे जी ने एक बार फिर अपनी अंटी से चांदी के दो रूपये निकाल कर जब पांडे जी के हाथ में रकम रखनी चाही तो उन्होंने हाथ जोड़ दिए और फिर अपनी संदूकची से दो चांदी के रूपये निकालकर उल्टे उन्हीं के हाथ पर धर कर अपने हाथ जोड़ कर कहा –
‘सेठ जी, आप गौंडा में हमारे मेहमान थे. मुझे खाना खिलाने के आप से रूपये नहीं लेने चाहिए थे. मैं ये दो रूपये आपको लौटा रहा हूँ. अब आप कोई और भोजनालय तलाश कर लीजिए. अगर आप मेरे भोजनालय पर ही खाते रहे तो मुझे सुदामा पांडे की तरह भिक्षा मांगने को मजबूर होना पड़ेगा.’
बोहरे जी को अपने लिए भर-पेट खिलाने वाला कोई दूसरा भोजनालय तलाशने में कोई सफलता नहीं मिली. गौंडा जैसे छोटे शहर में किसी भी भोजनालय में पहुँचने से पहले ही उनके पेटूपने की ख्याति वहां पहुँच जाती थी. इधर धर्मशाला वालों ने भी बोहरे को कमरा खाली करने को कह दिया था.
बोहरे जी को अस्थायी तौर पर हमारे बाबा की शरण में जाना पड़ा. बाबा के बंगले में बोहरे जी के लिए तो बहुत जगह थी लेकिन हमारी अम्मा के दिल में उनके लिए बिल्कुल भी जगह नहीं थी. महाराजिन ने हमारी अम्मा को नोटिस दे दिया था कि वो रोज़ाना बोहरे जी के लिए दो सेर आटे की रोटियां, कढ़ाई भर सब्ज़ी और पतीला भर दाल नहीं बना पाएगी. बोहरे जी की एक और हरक़त अम्मा को क़तई गवारा नहीं थी. उन दिनों बंगले के खेत में मटर लगी हुई थी और बोहरे जी खेत में घुसकर हरी मटर तोड़-तोड़ कर खाने में खुली गाय-भैंस की तरह सारा खेत चरे जा रहे थे. अम्मा के असहयोग आन्दोलन के कारण बाबा ने एक हफ़्ते में ही इस शरणार्थी को कोई और ठिकाना तलाश करने को कह दिया.
अब अगर बोहरे जी को गौंडा में रहकर अपना कारोबार जमाना था तो उन्हें अपने रहने की वहां कोई स्थायी व्यवस्था तो करनी ही थी. हमारे बाबा ने उनके लिए एक सस्ते मकान का जुगाड़ करवा दिया. मकान मिलने के बाद बोहरे जी हाथरस जाकर अपने सामान समेत अपना परिवार गौंडा ले आए.
हमारी अम्मा जैन होने के बावजूद नवरात्रि पर नौ कन्याओं को घर बुलाकर भोजन कराती थीं. बोहरे जी की छोटी बेटी अविवाहित थी. अम्मा ने बोहरे जी से कह कर उसे भी निमंत्रण दे दिया. कन्याओं को भोजन कराने से पहले अम्मा ने उनके सामने केलों की टोकरी रख दी. कुछ देर बाद उनके लिए भोजन आया तो केले की टोकरी खाली पाई गयी. अम्मा ने महाराजिन से पूछा –
‘महाराजिन, इस टोकरी में से केले कहाँ गए? क्या तुमने उठाकर फिर से भंडार-घर में रख दिए?
बोहरे जी की बिटिया ने केले गायब होने का रहस्योद्घाटन किया –
‘भाभी, बे सगरे केला तो हम खाय गए.’
(भाभी, वो सब केले तो हमने खा लिए)
दो दर्जन केले एक नन्हीं सी जान के पेट में पांच मिनट के अन्दर कैसे समा सकते हैं, इस पर विचार करते-करते अम्मा का सर चकराने लगा. फिर उन्होंने संभल कर अपनी इस छोटी सी ननदिया से पूछा –
‘केले तो तुमने खा लिए. अच्छा किया ! पर उनके छिलके कहाँ गए?’
छोटी सी ननदिया ने अपने घर का राज़ खोलते हुए कहा –
‘हमाई अम्मा तो केला छील कै खात ऐं पै हम औ बाबू तो छिलकई सुन्दा हप्प !’
(हमारी माँ तो केला छील कर खाती हैं लेकिन हम और बाबू तो छिलके सहित उनको हप्प कर जाते हैं)
बोहरे जी की बिटिया ने शेष आठ कन्याओं के कुल भोजन से थोडा ज़्यादा ही भोजन कर के अपना आसन छोड़ा. बाबा ने थकी और परेशान अम्मा को सांत्वना देते हुए कहा –
‘भागवान ! बोहरे जी की बिटिया को भोजन कराने से ही तुमको नौ कन्याओं को भोजन कराने का पुण्य मिल गया है. आज तो तुमने सत्रह कन्याओं को भोजन कराने का पुण्य प्राप्त कर लिया है.’
हमारे बाबा को कार खरीदने के लिए गौंडा से लखनऊ जाना था. उनके हर सफ़र में एक खिदमतगार का होना ज़रूरी होता था. बोहरे जी को यह पता चला तो उन्होंने अपनी सेवाएँ देने का प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया. बदले में बाबा को उन्हें अयोध्या जी में हनुमान गढ़ी के और लखनऊ में अलीगंज के मंदिर में भी हनुमान जी के दर्शन कराने थे.
बोहरे जी के साथ लखनऊ में बाबा, चारबाग की जैन धर्मशाला में ठहरे. बाबा ने अगली सुबह बोहरे जी को एक रुपया देकर अपने लिए कचौड़ियाँ और एक कुल्हड़ दूध मंगवाया और बोहरे जी को भी नाश्ता करने के लिए कह दिया. एक घंटे बाद बोहरे जी ने बाबा को दूध का कुल्हड़ और कचौड़ियों के साथ तीन पैसे लौटाते हुए कहा –
‘भैया जी ! जे सारे लखनऊ बारे हलबाई तो भौतई बेइमान ऐं. हमने  हलबाई ते कई कि जो कोऊ मिठाई ताजी हो, बो मोय पाव भर दै दे. कम्बखत ने पाव-पाव भर नौ ताजी मिठाई मोए परोस दईं. अब तुम्हाए औ हमाए नास्ता के सवा पन्द्रह आने है गए. बाक़ी बचे कुल तीन पैसा.’
(भैया जी, ये साले लखनऊ के हलवाई तो बहुत ही बेइमान हैं. हमने हलवाई से कहा कि जो मिठाई ताज़ी हो, हमको पाव भर दे दे. कमबख्त ने मुझे पाव-पाव भर नौ ताज़ी मिठाइयाँ परोस दीं. अब तुम्हारे और हमारे नाश्ते के सवा पन्द्रह आने हो गए. बाक़ी बचे कुल तीन पैसे.)
बाबा को लखनऊ में पांच दिन ठहरना था लेकिन कार खरीदकर दो दिन में ही गौंडा लौटने का उन्होंने फ़ैसला कर लिया. बाबा से जब अपना कार्यक्रम छोटा करने का बोहरे जी ने कारण पूछा तो बाबा ने फ़रमाया –
‘बोहरे जी, लखनऊ में हम पांच दिन रहेंगे तो पांचों दिन हमको तुम्हारी ऐसी ही खातिरदारी करनी पड़ेगी. उसके बाद कार खरीदने के लिए पैसे बचेंगे ही कहाँ? तो बस, समझ लो कि प्रोग्राम इसीलिए छोटा करना पड़ा है.’
माँ-पिताजी की शादी थी, बारात को हाथरस से एटा जाना था. बोहरे जी ने बाबा के साथ ही गौंडा से हाथरस के लिए प्रस्थान किया और फिर सज-धज के बारातियों में शामिल हो गए. बारात के स्वागत में तीन दिनों तक आयोजित हर दावत में बोहरे जी ने पेटूपने के नए कीर्तिमान स्थापित किए. पूरी, कचौड़ी, सब्ज़ी, रायते, वगैरा को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया और अपना पूरा ध्यान उन्होंने मिठाई- रबड़ी पर लगाया. बार-बार कुल्हड़ भरवा कर रबड़ी पीने में बोहरे जी को दिक्कत हो रही थी इसलिए उन्होंने रबड़ी परोसने वाले से कहा कि वह अपने बर्तन से रबड़ी उड़ेलता चला जाए. अब पानी की तरह ओक से गटागट रबड़ी पीना शुरू कर बोहरे जी ने सभी दर्शकों को मन्त्र-मुग्ध कर दिया. एटा के इतिहास में ऐसा चैंपियन भोजन-भट्ट बाराती पहले कभी नहीं आया था. हमारे नानाजी ने तो एक नौकर सिर्फ़ बोहरे जी को खिलाने-पिलाने के लिए तैनात कर दिया था.
पिताजी की शादी के दो साल बाद हमारे बड़े चाचाजी की शादी होना तय हुआ. बोहरे जी बारात में जाने की पूरी तैयारी कर चुके थे लेकिन ऐन वक़्त पर चाचाजी शादी करने से मुकर गए. सबको निराशा हुई लेकिन बरात में जाने को आतुर बोहरे जी का तो दिल ही टूट गया. उन्होंने हमारे बाबा से शादी टूटने का कारण पूछा तो बाबा ने कहा -
'बोहरे जी, लड़की वालों को पता चल गया था कि बारात में तुम भी आ रहे हो. उन्होंने शर्त रक्खी थी कि बारात में इस भोजन-भट्ट को न लाया जाए. अब तुम्हारे बारात में जाए बिना हमारे घर में कोई शादी हो सकती है भला? बस, हमने ये रिश्ता ही तोड़ दिया.’
वृद्धावस्था में बोहरे जी गौंडा से वापस हाथरस चले गए. उनका शरीर जर्जर हो गया था लेकिन दावतों में उनकी परफ़ॉरमेंस पहले की तरह ही विस्फोटक रहती थी. एक बार बोहरे जी एक भव्य दावत में खीर के दौने पर दौने उड़ाए जा रहे थे कि अचानक ही उनके सीने में ज़ोरों का दर्द उठा. डॉक्टर-हकीम-वैद्य आने से पहले ही उनके दिल की धड़कन बंद हो गयी. जब उनके प्राण पखेरू हुए तो उनके श्री मुख पर मधुर-मनोहर मुस्कान थी. शरीर छोड़ते समय उनकी आत्मा पूर्णतया तृप्त थी.
बोहरे जी की शव-यात्रा में पूरा हाथरस उमड़ पड़ा था. और ऐसा होना लाजमी भी था. दावत-ए-जंग का वह पहला बांकुरा था जो कि खीरगति को प्राप्त हुआ था.



23 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. धन्यवाद मित्र ! आजकल बोहरे जी की बिरादरी के लोग अगर दिखाई दें तो पब्लिक ए. के. 56 से उनका स्वागत करेगी.

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  2. जी नमस्ते,


    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-10-2019) को (चर्चा अंक- 3495) "आय गयो कम्बखत, नासपीटा, मरभुक्खा, भोजन-भट्ट!" पर भी होगी।
    ---
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  3. 'चर्चा अंक - 3495' में मेरी परदादी के क्रोध की अभिव्यक्ति को इतना अधिक महत्त्व देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी. मेरी कलम को चलाते रहने का श्रेय आप कद्रदानों के उत्साहवर्धन को जाता है.

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  4. अद्भुत और अद्वितीय ! बहुत उम्दा हास्य संस्मरण । आपकी लेखनी और शैली बहुत अनूठी है ।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद मीना जी,
      मेरी बेटी गीतिका के यह समझ में नहीं आता कि उसकी पौने दो साल की बेटी इरा ज़्यादा नटखट है या फिर उसके पापा !

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    2. बड़ों के मन में बचपना सुरक्षित रहे बच्चों जैसा ..बहुत बड़ी नेमत है आप यूंही इरा जैसे बने रहे और सब के चेहरों पर मुस्कुराहट लाते रहें ।

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    3. वाक़ई, मेरी रचना पढ का लोगों के चेहरे पर अगर मुस्कराहट आ जाती है तो समझता हूँ कि मेरी मेहनत वसूल हुई.

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  5. हा हा हा...वाह मज़ेदार संस्मरण और उससे भी उम्दा आपका प्रस्तुतिकरण।
    'भोजन भट्ट' का कोई किस्सा आज पहली बार पढ़ने को मिला। हम सबके साथ साझा करने के लिए आभार आदरणीय सर। बोहरे जी को प्रणाम।
    आपकी कलम को कोटिशः नमन 🙏

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  6. धन्यवाद आंचल ! बोहरे जी को दूर से ही प्रणाम करना श्रेयस्कर है, घर आ गए तो दाल-आटे का भाव पता चल जाएगा.

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  7. मजबूरियाँ पोस्ट शायद आपसे गलती से मिट गयी है जरा देखिये।

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  8. आदरणीय गोपेश जी , जानलेवा व्यस्ताओं के बीच आपके ब्लॉग पर आती तो रही पर लिख कुछ ना पायी | आज भी आपकी नवीनतम रचना पर आई थी पर इस रचना पर बहुत दिन से लिखना चाहती थी सो आज पहले यहीं लिख रही हूँ | बोहरे मियाँ की इस असीम भोजनलोलुपता को उनकी धर्मपत्नी कैसे झेलती होगीं ये पता नहीं पर वे जरुर सदी की महान वीरांगना थी जिन्होंने इतने दिन पति का पालन पोषण किया | अप का ये संस्मरण मैंने अपने परिवार के व्हात्ट्स अप्प ग्रुप में शेयर किया था | मेरी दो बहनों ने मुझे बताया कि वे कैसे इस रचना को पढ़कर बहुत मुद्दत बात खुलकर हँसी| उन्होंने आपको सादर अभिवादन भेजा है जिसे आप स्वीकार करें | मैं भी यदा कदा इसकी शैली और आपके अंदाजे बयाँ पर अपनी हँसी रोक नहीं पाती | हेलन वाले लेख के बाद आपका ये मासूमियत भरा अतंत उत्कृष्ट संस्मरण है | जिसके लिए कोई सराहना करने की क्षमता मुझमें नहीं | यही दुआ है आपकी लेखनी का ये रंग हमेशा खिला रहे | आप यूँ ही हँसते- हंसाते रहें | आपके भीतर का ये बच्चा कभी बड़ा ना हो | आपका ये बालपन ना जाने कितने चेहरों पर मुस्कान ले आता है | सादर प्रणाम |

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    1. रेणु जी, अपनी रचनाओं पर आपकी रोचक और विश्लेषणात्मक टिप्पणियों का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता है. मेरी कलम को प्रोत्साहित करने के लिए दो छोटी बहनें और मिल गईं, मुझ जैसे बच्चे (?) के लिए इस से ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है?
      दोनों बहनों को मेरा अभिवादन और आशीर्वाद पहुँचाना अब आपकी ज़िम्मेदारी है.

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  9. जी गोपेश जी आज पढ़ पाई, आज ये लिंक फिर से उन्हे भेज रही हूँ । आपका अभिवादन और आशीर्वाद वे खुद सहेज लेंगी। एक बार फिरसे शुभकामनायें। आपका ये बचपना कभी का ना हो , यही दुआ है। 🙏🙏

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  10. जी नमस्ते , आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 24 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ......
    सादर
    रेणु

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  11. वाह!!गोपेश जी ,बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया संस्मरण ! सुबह-सुबह मन प्रफुल्लित हो गया ।

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  12. वाह!! सर बहुत ही रोचक संस्मरण ,सादर नमन आपको

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  13. आदरणीय गोपेश सर, आपकी विशिष्ट किस्सागोई वाली शैली में लिखा गया यह लेख बहुत ही मनोरंजक है। इसे पहले भी पढ़ा था, शायद तब व्यस्तता के कारण इस पर टिप्पणी नहीं लिख पाई। एक जमाना था जब हम बचपन में एक चाल में रहते थे। घोड़े की नाल के आकार के आँगन के चारों तरफ बने हुए छोटे छोटे घर और उनमें रहने वाले बड़े बड़े दिलवाले लोग !!! टीवी भी एकाध घर में ही होता था। रात नौ से दस किस्सागोई का समय था। आँगन सबका साझा था। चटाइयाँ बिछा बिछा सब बैठ जाते और एक से बढ़कर एक किस्से सुनाते। लोग भी सब अलग अलग राज्यों से थे तो वैरायटी भी बहुत होती। आपके संस्मरण पढ़कर उस माहौल को बहुत मिस करती हूँ।
    आज रेणु बहन को भी धन्यवाद फिर से यह मजेदार संस्मरण साझा करने हेतु।

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  14. गोपेश भाई, मैं ने भी अपने बचपन में एक दो ऐसे पेटू लोग देखे हैं। वैसे पहले के लोगो की पाचनशक्ति अच्छी थी। वे ज्यादा कहा भी सकते थे और ज्यादा देर भूख भी सहन कर सकते थे। लेकिन आज की पीढ़ी न जी ज्यादा खाना पचा सकती है और न ही ज्यादा देर तक भूखी रह सकती हैं। बढ़िया संस्मरण।

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  15. बहुत ही लाजवाब संस्मरण अनूठी शैली ....
    वाह!!!!
    पहले ऐसे अनेक भोजनभट्टों के किस्से हमने भी सुने है अपने बड़ों से......।
    आजकल कर्फ्यू के हालात में सब घर पर ही हैं तो आज दिन में मैं इस अद्भुत संस्मरण को अपने बच्चों से शेयर करूंगी....
    रेणु जी का धन्यवाद इस अद्भुत संस्मरण को शेयर करने के लिए...
    आपको और आपकी लेखनी को शत शत नमन🙏🙏🙏🙏

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