1987 में रचित मेरी एक कविता
मोहिनी अट्टम -
पद-धारी साहित्यकार की लीला, अपरम्पार है,
अपनी छवि पर स्वयम् मुग्ध है, बाकी सब बेकार है.
तुलसी को कविता सिखलाता, प्रेमचन्द को अफ़साना,
वर्तमान साहित्य सृजन का, अनुपम ठेकेदार है.
चाहे जिसका गीत चुरा ले, उसको यह अधिकार है,
बासे, सतही, कथा-सृजन से, भी तो कब इन्कार है.
प्रतिभा का संहारक है, भक्तों का तारनहार है,
नेता, अफ़सर के कहने पर, करता सब व्यापार है.
ज्ञानदीप को बुझा, तिमिर का, करता सदा प्रसार है,
शिव के वर से, सत्ता का, उसको, चढ़ गया बुखार है.
पुनर्जन्म लो आज मोहिनी, अपनी लीला दोहरा दो,
नवलेखन के भस्मासुर का, एक यही उपचार है.
अपनी छवि पर स्वयम् मुग्ध है, बाकी सब बेकार है.
तुलसी को कविता सिखलाता, प्रेमचन्द को अफ़साना,
वर्तमान साहित्य सृजन का, अनुपम ठेकेदार है.
चाहे जिसका गीत चुरा ले, उसको यह अधिकार है,
बासे, सतही, कथा-सृजन से, भी तो कब इन्कार है.
प्रतिभा का संहारक है, भक्तों का तारनहार है,
नेता, अफ़सर के कहने पर, करता सब व्यापार है.
ज्ञानदीप को बुझा, तिमिर का, करता सदा प्रसार है,
शिव के वर से, सत्ता का, उसको, चढ़ गया बुखार है.
पुनर्जन्म लो आज मोहिनी, अपनी लीला दोहरा दो,
नवलेखन के भस्मासुर का, एक यही उपचार है.
बढ़िया है गोपेश सर। बिलकुल सच।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी.
हटाएंमैंने सरकार द्वारा मनोनीत साहित्यकारों की शान में ही यह क़सीदा पढ़ा है. इसके सोलहों आने सच्चे होने की मैं गारंटी देता हूँ.
वाह
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू, हमने आह भरी तोतुम वाह कर रहे हो !
हटाएंफिर भी शुक्रिया !
वाह !वाह ! सर लाज़वाब
जवाब देंहटाएंसादर
प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनीता !
हटाएंसाहित्य के क्षेत्र में कुर्सी पर बैठते ही हर कोई कलम-चोर कालिदास कहलाने का अधिकारी हो जाता है.
बहुत सुन्दर और सार्थक
जवाब देंहटाएंधन्यवाद डॉक्टर रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक'. आप जैसे लब्ध-प्रतिष्ठ कवि की सराहना मेरे लिए अमूल्य है.
हटाएंबहुत खूब.आदरणीय 🙏
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद सुधा जी !
हटाएंआत्मप्रवंचना।
जवाब देंहटाएंशानदार व्यंग्य लेखन ,सर नमन आपके अभूतपूर्व कल्पना संसार को ।
प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कुसुम जी.
हटाएंहम सब का ऐसे पद-धारी, सरकारी, स्वघोषित साहित्यकारों से साबका पड़ता रहता है. मैंने हम सब साहित्यान्वेशियों की ऐसे व्यथापूर्ण अनुभवों को शब्दों का जामा ही पहनाया है.
आदरणीय गोपेश जी प्रणाम ! आपकी यह धारदार रचना न जाने कितने लँगड़े साहित्यकारों के हृदय को छलनी कर दिया हो प्रकृति ही जाने ! हँसी तो मुझे तब आती है जब वही साहित्यकार आपकी इसी रचना की झूठी तारीफ़ कर अपने आका के दिखाये मार्ग पर पुनः बोरिया-बिस्तर समेत लौट जाता है। यानी ढांक के तीन पात ! साधुवाद 'एकलव्य'
जवाब देंहटाएंमित्र एकलव्य ! मैंने तुमसे फ़ोन पर बात करते हुए बताया था कि एक कोई शुक्ल जी थे जिन्होने बी. ए. प्रथम की हमारी आधुनिक हिंदी काव्य की पुस्तक का संपादन किया था. शुक्ल जी 'राष्ट्रीय आत्मा' उपनाम से कविता करते थे और उनकी देशभक्तिपूर्ण रचनाएँ मुख्यतः 'भारतीय आत्मा' (माखनलाल चतुर्वेदी) की रचनाओं की फूहड़ और खुली नक़ल होती थी. मज़े की बात यह थी कि हमारे पाठ्यक्रम में 'राष्ट्रीय आत्मा' की रचनाएँ तो थीं लेकिन 'भारतीय आत्मा' की रचनाएँ गायब थीं.
हटाएंमेरी यह रचना ऐसे ही जाली साहित्यकारों को समर्पित है.
'पांच लिंकों का आनंद' के 16 जनवरी, 2020 के अंक में मेरी कविता को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
जवाब देंहटाएंतुलसी को कविता सिखलाता, प्रेमचन्द को अफ़साना,
जवाब देंहटाएंवर्तमान साहित्य सृजन का, अनुपम ठेकेदार है.
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब धारदार सृजन
तारीफ़ के लिए शुक्रिया सुधा जी !
हटाएंहिंदी संस्थानों में, आकाशवाणी में और भी न जाने कहाँ-कहाँ आपको ये स्वनाम-धन्य साहित्यकार थोक के भाव में मिल जाएँगे.
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-01-2020) को " सूर्य भी शीत उगलता है"(चर्चा अंक - 3583) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता 'अनु '
'सूर्य भी शीत उगलता है' (चर्चा अंक - 3583) में मेरी कविता को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता 'अनु' जी.
हटाएंसर शब्द नहीं है क्या लिखे आपकी इस रचना कि प्रशंसा में। आपकि लेखनी और विचारों को सादर प्रणाम सर।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद श्वेता !
हटाएंयह तो 32 साल पुरानी कविता है !
तब खून में कुछ ज़्यादा ही गर्मी थी.
बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुराधा जी.
हटाएंऐसी तारीफ़ के लिए धन्यवाद अमित निश्छल !
जवाब देंहटाएंमैं ख़ुद को कोई साहित्यकार नहीं मानता. मेरी अधिकांश रचनाएं आँखिन देखी होती हैं और जब कभी किसी के अपने अनुभव की झलक, अपना भोगा हुआ यथार्थ, मेरी रचनाओं में मिलती/मिलता है तो वो कभी-कभी उनकी सराहना भी कर देता है.
रचना का शीर्षक पूरी रचना पर छाया हुआ है... लाजवाब धारदार
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद संजय भास्कर जी.
हटाएंपन्त जी ने कहा है - 'आह से उपजा होगा गान'
ये पंक्तियाँ भी मेरी आह से निकली थीं, अर्थात् मेरे निजी अनुभव से !