अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं,
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ, झिझकैं, कपटी, जे निसाँक नहीं.
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ, झिझकैं, कपटी, जे निसाँक नहीं.
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक ते दूसरो, आँक नहीं,
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं.
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं.
घनानंद से क्षमा-याचना के साथ -
अति टेढ़ो सियासत-मारग है, जहाँ नेकु सराफत, बांक नहीं,
छल-कपट बिना इस धंधे में, मिलिहै सत्ता की फांक नहीं.
नेताओं की मति बात सुनौ, इन तें तो, डाकू-चोर भले,
इन में तोला भर लाज नहीं, अरु आतमा, एक छटांक नहीं.
नेता जी तो सुनायेंगे भगत चाटुकार सिपहसलार सुने जिनपर बातेंं थोपी जाती हैं उनके सुनने ना सुनने से नेता जी को क्या लेना देना? :)
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू, घनानंद को मैं कान्हा जी से नेता जी तक तो घसीट लाया. अब उन्हें नेताओं के भक्तों तक घसीटने का काम तुम करो.
जवाब देंहटाएंमेरे पाप में अगर तुम भागी नहीं बने तो फिर तुम मेरे दोस्त कैसे?
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (21-01-2020) को "आहत है परिवेश" (चर्चा अंक - 3587) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'आहत है परिवेश' (चर्चा अंक - 3587) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंबहुत गहरा व्यंग्य सर ! घनानंद आज होते तो आपकी क्षमा
जवाब देंहटाएंयाचना पर जरूर मुस्कुरा देते ।
ऐसी प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मीना जी लेकिन घनानंद की गोपियों जैसे व्यंग्य-वाण छोड़ने की क्षमता मुझमें सात जन्म तक नहीं आ सकती है.
हटाएंजितने कान्हा छलिया थे, उस से सौ गुने छलिया हमारे नेता हैं. फ़र्क बस इतना है कि कान्हा की लीला का लक्ष्य लोक-कल्याण था और इन नेताओं की लीला का लक्ष्य स्वार्थ-सिद्धि के लिए लोक-विनाश होता है.
वाह...बेहद रोचक
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद वर्षा जी.
हटाएंबहुत गहरा सटिक व्यंग गोपेश भाई। आज के नेता ऐसे ही हैं।
जवाब देंहटाएंज्योति जी, मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ पर मैंने अपने होश में किसी भी नेता में त्याग-बलिदान की भावना नहीं देखी. आज़ादी से पहले कुर्बानी का दौर था और आज अवसरवादिता का दौर है, कुनबावाद का दौर है, कुर्सीवाद का दौर है.
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