भैंस के आगे बीन बजाए -
उत्तराखंड के तराई-क्षेत्र, जौनसार-बावर के मूल निवासी खुद को द्रौपदी की सन्तान कहते हैं.
पुराने ज़माने में यहाँ की मातृसत्तात्मक सभ्यता में स्त्रियों के मध्य बहु-पतिवाद का चलन एक आम बात हुआ करती थी.
करीब 50-60 साल पुरानी बात है.
उन दिनों जौनसार-बावर में सरकार के द्वारा स्त्री-शिक्षा प्रचार के साथ-साथ बहु-पतिवाद की कु-प्रथा के विरुद्ध सामाजिक जागृति का अभियान भी बड़े ज़ोर-शोर से चलाया जा रहा था.
बहुत से एन. जी. ओ. भी इस सामाजिक-परिष्कार कार्यक्रम में जुटे हुए थे.
सरकारी अनुदान द्वारा पोषित एक एन. जी. ओ. की संचालिका थीं - उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव की धर्मपत्नी (मुख्य सचिव का नाम मैं नहीं बताऊंगा).
हमारी ये मोहतरमा सामाजिक-जागृति की और नारी-उत्थान की अपनी मशाल लेकर जौनसार-बावर पहुँच गईं.
जौनसार-बावर की मूल-निवासी महिलाओं का बाहरी दुनिया से तब तक नाम-मात्र का संपर्क हो पाया था.
कबीर की आत्मस्वीकृति – ‘मसि, कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ’ इन महिलाओं पर बिलकुल सटीक बैठती थी. अपनी स्थानीय भाषा के अतिरिक्त उन्हें कोई और भाषा नहीं आती थी.
मुख्य सचिव की समाज-सुधारक श्रीमती जी को तथाकथित मानव-सभ्यता से कोसों दूर रहने वाली इन स्त्रियों तक अपना जागृति-संदेश पहुँचाने के लिए एक ऐसे दुभाषिए के सेवाओं की आवश्यकता पड़ी जो कि उनके हिंदी में दिए गए भाषण का स्थानीय भाषा में अनुवाद कर उनको उसका मर्म समझा सके.
स्थानीय स्त्रियों के लिए आयोजित सभा में हमारी मोहतरमा पूरी तैयारी से पहुँचीं.
उन्होंने उदाहरण सहित बहु-पतिवाद की तमाम बुराइयाँ बताते हुए यह सिद्ध किया कि यह प्रथा भारतीय धर्म-संस्कृति के सर्वथा विरुद्ध है और इसका सबसे ज़्यादा नुक्सान खुद औरत को ही उठाना पड़ रहा है.
भाषण के बीच में दुभाषिया मोहतरमा की बातों का न केवल स्थानीय भाषा में अनुवाद करता जा रहा था बल्कि उन्हें अपनी तरफ़ से उसका भावार्थ भी बताता जा रहा था.
महिलाओं द्वारा अपनी बात को ध्यानपूर्वक सुनते देख मोहतरमा उत्साहित हो गईं.
उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण देते हुए बहु-पतिवाद के विरूद्ध अपना भाषण कुछ इन शब्दों में ख़त्म किया –
‘बहनों ! आप मुझ को देखिए ! मैं पढ़ी-लिखी हूँ और ख़ुद अपने पैरों पर खड़ी हुई हूँ. मैं शादीशुदा हूँ. मेरे पति के चार भाई हैं.
इन में दो इन से बड़े हैं और दो इन से छोटे हैं.
मेरे पति के दोनों बड़े भाई यानी कि मेरे जेठ मेरे लिए अपने बड़े भाइयों की तरह हैं और उनके दोनों छोटे भाई यानी कि मेरे देवर मेरे अपने छोटे भाइयों की तरह हैं.
क्या इस व्यवस्था से मैं आपको ज़रा सा भी दुखी नज़र आती हूँ?
आप लोग भी अगर मेरी तरह से सिर्फ़ एक-पतिव्रत का पालन करेंगी और अपने पति के बड़े भाइयों को अपने बड़े भाइयों के समान तथा अपने पति के छोटे भाइयों को अपने छोटे भाइयों के समान समझेंगी तो आप भी मेरी तरह से सुखी रहेंगी.’
दुभाषिए ने उपस्थित महिलाओं के समक्ष भाषण के अंतिम अंश का अनुवाद कर दिया लेकिन किसी भी महिला ने भाषण-काण्ड संपन्न होने पर ताली नहीं बजाई.
लगता था कि मोहतरमा का संदेश और उनका उपदेश उनके समझ में ही नहीं आया था.
मोहतरमा के आदेश पर दुभाषिए ने उनके हिंदी में दिए गए भाषण का एक बार फिर स्थानीय बोली में भावार्थ बताया लेकिन सभा में बैठी हुई महिलाओं के चेहरों पर उसे समझने का कोई भाव नहीं आया.
मोहतरमा और दुभाषिए की परेशानी देख कर भीड़ में बैठी एक सयानी बुढ़िया उठ खड़ी हुई.
बुढ़िया ने दो-तीन मिनट तक अपनी साथी महिलाओं से स्थानीय भाषा में न जाने क्या कहा कि सभा में एकदम से सन्नाटा छा गया. सारी की सारी औरतें तरस खाती हुई निगाहों से लम्बा भाषण झाड़ने वाले मोहतरमा को देखने लगीं.
बुढ़िया की बात सुन कर दुभाषिए के चेहरे पर तो हवाइयां उड़ने लगीं.
बुढ़िया के संबोधन के बाद मोहतरमा को दुभाषिए के और अपनी श्रोताओं के हाव-भाव में अचानक हुए परिवर्तन का रहस्य समझ में नहीं आया.
मोहतरमा ने दुभाषिए से इन सबकी वजह पूछी तो वह बोला –
‘मैडम जी ! मुझे माफ़ कीजिए ! आप चाहें मेरी जान ले लें, मैं तब भी आपको नहीं बताऊँगा कि बुढ़िया ने आपकी बात को क्या समझा और अपनी साथियों को इस ने उसे कैसे समझाया.’
मैडम जी के बार-बार अनुरोध किए जाने पर और अभय-दान दिए जाने पर दुभाषिए ने बुढ़िया की बात को उनके सामने ज्यों का त्यों दुहरा दिया -
‘देखो, ये औरत जो हमारे बीच आई है, कितनी सुन्दर है ! ये तो खूब पढ़ी-लिखी भी है और ख़ुद कमाती भी है !
इस बिचारी के पांच मर्द थे लेकिन इसके बीच वाले मर्द को छोड़ कर बाकी ने इसे छोड़ दिया है.
इसके साथ जैसा अन्याय हुआ है भगवान न करे कि हम में से किसी के साथ भी वैसा अन्याय हो.
अब ये दुखियारी औरत हम सबसे अपना दुखड़ा रोने आई है.’
जागृति अभियान में संलग्न हमारी समाज-सुधारक मोहतरमा ने बुढ़िया की बात सुनते ही बिजली की गति से जौनसार-बावर क्षेत्र का अपना दौरा वहीं समाप्त कर दिया और फिर वो आजीवन उस इलाक़े में जन-जागरण की मशाल लेकर कभी फटकी भी नहीं.
कहीं कहीं बहु पतिवाद की जगह बहुपत्नीवाद छप गया है।
जवाब देंहटाएंबड़ी मजेदार बात कही आपने। हँसी भी आई लेकिन दुःख भी हुआ कि वो उचित भाव न समझा पाई और पलायन को अपना लिया।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद रोहतास.
हटाएंतुम्हारे द्वारा टोके जाने पर मैंने आवश्यक संशोधन कर दिया है.
अल्मोड़ा-प्रवास में मेरे शराब न पीने को कई साथी मेरी कंजूसी मानते थे.
अब तुम बताओ कि जब पढ़े-लिखे लोगों की सोच में इतना फ़र्क हो सकता है तो बहु-पतिवाद का पालन करने वाली और आधुनिक सभ्यता से अछूती महिलाओं को एक-पतिवाद की महत्ता बता पाना कैसे संभव हो सकता था.
'योगदान जिनका नहीं, मांगे वही हिसाब' (चर्चा अंक - 4005) में मेरे किस्से को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंबेचारी मोहतरमा :)
जवाब देंहटाएंमित्र, अगर तुम दुभाषिए होते तो मोहतरमा को जौनसार-बावर जाने ही नहीं देते.
हटाएंकभी कभी ज्यादा उतावलेपन में दांव उल्टा भी पड़ जाता ..समाज सुधारक बनने से पहले उस समाज की नब्ज़ पकड़ना बहुत जरूरी है..सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
हटाएंवैसे ये बात तुमने बिलकुल सही कही.
सामाजिक परिवेश को समझे बिना हम समाज-सुधार की बात नहीं कर सकते और न ही किसी दूसरे पर अपने सामाजिक-नैतिक और धार्मिक मूल्य थोप सकते हैं.
कहीं भी समाज सुधार कार्यक्रम शुरू करने से पहले वहां के समाज में शिक्षा प्रसार और आर्थिक उन्नति के लक्ष्य को हासिल करना आवश्यक है.
रोचक किस्सा रहा.... वैसे सबकी अपनी संस्कृति है और उसी के अनुरूप आचरण करते हैं.. सही गलत क्या है इसे कौन जान पाया है.... यह कुछ ऐसा ही है जैसे आदिवासियों को विकसित करने के लिए लोग लालायित रहते हैं लेकिन सोचने वाली बात है कि उन लोगों ने विकसित होकर ही क्या पा लिया है..उल्टा नुकसान धरती का ही किया...
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद विकास नैनवाल अंजान जी !
जवाब देंहटाएंदुनिया भर में आदिवासियों को सभ्यता का पाठ पढ़ाने के बहाने तथाकथित सभ्य जातियों ने उनका शोषण शोषण ही किया है.
वाह ! ऐसे किस्से बस आपके ही पास मिल सकते हैं आदरणीय गोपेश सर। मजेदार किस्सा। आदिवासियों का भोलापन भी झलकता है इस घटना में।
जवाब देंहटाएंमीना जी, कम्युनिकेशन गैप एक भारी समस्या होती है.
हटाएंएक क़िस्सा है - एक इत्र-फ़रोश (गंधी) अपना इत्र बेचने एक गाँव गया. उसने एक व्यक्ति को इत्र की फ़ुलेल दी (इसे कान में लगा कर उसकी सुगंध का आनंद लिया जाता है). उस व्यक्ति ने फ़ुलेल को चखा और उसको मीठा बता कर उसकी तारीफ़ की. इस प्रसंग पर महाकवि बिहारी कहते हैं -
'कर फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहि,
रे गंधी, मति-अंध तू, इतर दिखावत काहि'
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
हटाएंसही शीर्षक है भैंस के आगे बीन बजाना...
जवाब देंहटाएंबहुत ही मजेदार हास्यास्पद किस्सा
वाह!!!
सुधा जी, स्थान, परिवेश और माहौल को देख कर ही किसी को प्रवचन देना चाहिए.
हटाएंअल्मोड़ा में शराबखोरी के विरुद्ध मेरे भाषणों का भी ऐसा ही हशर होता था.