शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

बाग़ी शहज़ादा सलीम और मुगले-आज़म

हमारे भारत में अभिनय सम्राटकहते ही लाखों-करोड़ों के दिलो-दिमाग में एक ही नाम कौंध जाता है, और वो है दिलीप कुमार का.

दिलीप कुमार ने फ़िल्म देवदासमें पारो से बिछड़ने के गम में शराब क्या पी ली, लोगबाग जानबूझ कर अपनी-अपनी प्रेमिकाओं से बिछड़कर उनके गम में शराब पीने लगे. तमाम टैक्सी ड्राइवर्स ने फ़िल्म नया दौरदेख कर टैक्सी चलाने का धंधा छोड़ कर तांगा चलाना शुरू कर दिया.

लेकिन सबसे ज़्यादा नुक्सान तो फ़िल्म गंगा-जमुनाके उन प्रशंसकों का हुआ जो कि अपना अच्छा-ख़ासा, लगा-लगाया, काम-धंधा छोड़ कर डाकू हो गए.

हाईस्कूल-इंटर तक हम भी दिलीप कुमार के दीवाने हुआ करते थे और उनकी जैसी एक्टिंग करने की और उनके जैसे डायलॉग बोलने की कोशिश भी किया करते थे लेकिन उनका जैसा अभिनय कर पाना कभी हमारे बस में नहीं हो पाया और संवाद के मामले में फ़िल्म मुगले आज़ममें उनकी जैसी न तो हमारी उर्दू गाढ़ी हो पाई और न ही फ़िल्म गंगा-जमुनामें उनकी जैसी फ़र्राटेदार पुरबिया बोली हम बोल पाए.

और हाँ, हमारे घुंघराले बाल, हमारी कंजी आँखें और हमारी गोलू-मोलू पर्सनैलिटी भी हमको दूसरा दिलीपकुमार बनाने में बाधक सिद्ध हो रहे थे.

लेकिन दिल पर किसी का क्या ज़ोर चलता है? इन बाधाओं के बावजूद हम ख़ुद को दूसरा दिलीपकुमार, ख़ास कर, दूसरा बाग़ी सलीम समझने से नहीं रोक पाए. 

     

फ़िल्म मुगले आज़म हमने अपने बचपन में, यानी कि 1960 में ही देख ली थी लेकिन तब हमें शीश महल में – प्यार किया तो डरना क्या का ईस्टमैन कलर में फिल्मांकन और मुगले आज़म-बाग़ी शहज़ादे सलीम के बीच छिड़ी जंग के खौफ़नाक सीन्स ही प्रभावित कर पाए थे. 

लेकिन इंटर फ़र्स्ट इयर में मुगले आज़मको हमको दुबारा देखने  का मौक़ा मिला.

हम तो इस फ़िल्म के दीवाने हो गए और शहज़ादा सलीम तो हमारे दिलो-दिमाग में इस क़दर छा गया था कि हम घर के सबसे बड़े आइने के सामने किसी काल्पनिक दुर्जन सिंह से लम्बे से लम्बे मोनोलॉग बोलने लगे. मसलन – हाथ में अगर कोई छोटी सी खरोंच भी लग जाए तो हम ख़ुद को दुर्जन सिंह मान कर पहले ख़ुद से ही कहते –

जर्राह इजाज़त का मुन्तज़िर है. शहज़ादे क्या ज़ख्म धोए नहीं जाएंगे?’

फिर आइने में ख़ुद को देख कर हम शहज़ादा सलीम बन कर ख़ुद से कहते -  

ये ज़ख्म नहीं फूल हैं दुर्जन ! और फूलों का मुरझाना, बहार की रुसवाई है.

यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि इस शहज़ादे सलीम की कोई अनारकली नहीं थी.

हमारे गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, बाराबंकी में इंटरमीजियेट में दो लड़कियां हमारे साथ पढ़ा करती थीं ये दोनों ही मेनकाएँ भगवान की कृपा से ऐसी थीं कि उन्हें देख कर किसी विश्वामित्र का तप उसके सपने में भी भंग नहीं हो सकता था.

वैसे भी हमारे महा-टोकू खानदान में अगर कोई लड़का किसी लड़की से एक किलोमीटर दूर रह कर हेलो भी कर ले तो बुज़ुर्गवार अपनी आँखें तरेर कर जीते जी उसका पोस्टमार्टम कर देते थे.

दिलीपकुमारके अभिनय का यह जादू था कि अनारकली के बिना ही हम बागी शहज़ादे हो गए.

हमारी चाल-ढाल शाही अंदाज़ वाली हो गयी, हमारी बातचीत में उर्दू के वो अल्फ़ाज़ ज़बर्दस्ती आने लगे जो कि हमारी दिमागी डिक्शनरी में थे, लेकिन सबसे ख़तरनाक बात ये हुई कि शहज़ादे सलीम की देखा-देखी हम भी अपने बड़ों से बाक़ायदा बदतमीज़ी से पेश आने लगे.

हमारी आवारगी बढ़ गयी और इंटर फ़र्स्ट इयर के हाफ़ इयरली एक्ज़ाम्स में हमने गणित और भौतिक शास्त्र, दोनों में, लाल गोले वाले अंक प्राप्त किए.

हमारे धीर-गंभीर पिताजी को बच्चों पर अनावश्यक नियंत्रण रखना बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन हमारी अर्धवार्षिकी परीक्षा की उपलब्धि देख कर उन्होंने हमारे ऑफ़िसर्स क्लब में टेबल टेनिस खेलने पर, घर में रेडियो पर विविध भारती और रेडियो सीलोन पर बिनाका गीतमाला सुनने  पर, पाबंदी लगा दी.  

अब तो हमारा बग़ावत करना लाज़िमी हो गया. क्लब जाना और रेडियो सुनना क्या बंद हुआ हमने तो पूरी शाम बाहर आवारागर्दी करने में बितानी शुरू कर दी.  

 

एक बार पिताजी ने हमको पढ़ाई के वक़्त आवारागर्दी करने पर टोका तो हमने बाग़ी शहज़ादे सलीम की हेकड़ी वाले अंदाज़ में जवाब दिया

ये हमारा ज़ाती मामला है.

हमारे इस डायलॉग पर ताली बजाने के बजाय पिताजी ने अचानक ही मुगले आज़म का रोल अदा करते हुए हमारे बाएँ गाल पर एक करारा झापड़ रसीद कर दिया.

इसके बाद वो माँ की तरफ़ मुखातिब हुए और फिर कड़क आवाज़ में अपना हुक्म सुनाते हुए उन से बोले –

कल मैं इनके कॉलेज जाकर इनका नाम कटवाता हूँ.

इन से इनकी साइकिल छीन लो और इनके लिए एक रिक्शा खरीदवा दो. साहबज़ादे उस से आराम से कमाएं-खाएं और जहाँ चाहें, जब चाहें, घूमें-फिरें.

बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि महारानी जोधाबाई ने बाग़ी शहज़ादे का कोई साथ नहीं दिया और उसे अपने सीने से लगा कर उसे दिलासा देने के बजाय उन्होंने ख़ुद एक लम्बा लेक्चर झाड़ना शुरू कर दिया.

ज़ाहिर है कि इसके बाद शहज़ादे सलीम और मुगले आज़म के बीच जंग का छिड़ना लाज़िमी था.

जंग हुई. शहज़ादे सलीम ने पूरे एक दिन तक खाना नहीं खाया. गुस्से में अपना पॉकेट मनी उसने महारानी जोधा बाई को लौटा दिया.

लेकिन इस खूंखार जंग का बड़ा हैरतअंगेज़ अंजाम हुआ.

फ़िल्म मुगले आज़म में ऐसा कोई सीन नहीं था.

बाग़ी शहज़ादे ने ख़ुद जंग ख़त्म करने का ऐलान कर दिया.

इस कहानी का आख़िरी सीन बहुत दर्दनाक था –

बाग़ी शहज़ादा अपने कान पकड़ कर मुगले आज़म से माफ़ी मांग रहा था और उन से वादा कर रहा था कि अब वो अपना सारा ध्यान अपनी पढ़ाई पर लगाएगा.


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी कहानी हर बड़े होते बच्चे की कहानी सर ! कहानी यथार्थ के धरातल पर सटीक बैठती है ।

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  2. धन्यवाद मीना जी !
    वैसे क्या हर बड़े होते हुए बच्चे के नसीब में अपने पिता से एक करारा झापड़ मिलना ज़रूरी होता है.

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०९-०७-२०२१) को
    'माटी'(चर्चा अंक-४१२१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. 'माटी' (चर्चा अंक - 4121) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता.

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  4. चुनाव आ रहे हैं अबकी बार अनारकली के खिलाफ़ दांव आजमयेगा। :)

    बहुत खूब।

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    1. अनारकली अगला चुनाव जीतेगी और शहज़ादा सलीम उसके मिनिस्टर बनने के बाद उसके चमचाए-ख़ास होंगे.

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  5. 😀😀😀👌👌👌👌 लाज़वाब संस्मरण आदरनीय गोपेश जी। शहजादे सलीम की नकल करते हुए ये घर आंगन में ही मुगले आज़म की पटकथा क्या पूरी फ़िल्म ही तैयार हो गई। और आम घरों में जोधाबाई तो जिल्लेइलाही की अनुगामिनी ही होती हैं। उनसे फिल्मी जोधाबाई सरीखे व्यवहार की आशा करना। व्यर्थ है। और आखिरी सीन में बागी शहजादे की उठक बैठक मज़ेदार रही। भारतीय समाज में ऐसे शहज़ादे रोज़ बनते बिगड़ते हैं 😀😀
    बहुत ही शानदार व्यंग्य। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। उस बागीपन के दमन की बदौलत साहित्य जगत को एक उत्तम विद्वान मिल गपाया, नहीं तो ना जाने कहां ये असीम प्रतिभा भटक जाती।

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    1. हौसलाअफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया रेणुबाला जी. हमारे घर की महारानी जोधाबाई ज़िल्लेइलाही से काफ़ी स्वतंत्र विचारों वाली थीं लेकिन उस बार उन्होंने पाला बदल लिया था. और यहाँ यह आपको याद दिला दूं कि बाग़ी शहज़ादे ने ज़िल्ले इलाही से माफ़ी मांगते हुए सिर्फ़ अपने कान पकड़े थे, उट्ठक-बैठक नहीं लगाई थी.
      रही बाग़ी शहज़ादे की कलम की बात, तो यह तो आप मित्रों का प्यार है कि आप उसे प्रतिभावान मानते हैं.



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  6. अहा, आनंदम परमानंदम का अहसास हो गया,मैने भी अपने घर में बड़े भैया लोगों को सलीम बनते देखा है,स्नानघर से दर्द भरे नगमें की आवाज सुनी है,मजा आ गया पढ़कर सर,बहुत आभार आपका ये गंभीर और हास्य का मिश्रण बड़ा ही रोचक लगा।आपको मेरा सादर अभिवादन 🙏

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    1. जिज्ञासा, मरहूम दिलीपकुमार ने मेरे बचपन से लेकर मेरी जवानी तक का बहुत वक़्त और बहुत पैसा बर्बाद करवाया है. उन्होंने मेरी बहुत सारी पढ़ाई भी बर्बाद करवाई है. आज इन बातों पर हंसी आती है.

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  7. वाह!लाजवाब संस्मरण आदरणीय । सुंदर भाषा -शैली से रोचकता अंत तक बनी रही ।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद शुभा जी.
      दूसरों की ही नहीं, बल्कि अपनी टांग खींचने में भी मुझे मज़ा आता है.

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  8. बहुत मजा आया इसे पढ़कर, फेसबुक पर ही पढ़ लिया था।

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    1. धन्यवाद मीना जी. आपकी तारीफ़ मेरे लिए बहुत मायने रखती है.

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