मंगलवार, 17 अगस्त 2021

मगरमच्छी आंसू बहाने की औपचारिकता

तीन साल पहले मैंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था -
'अटल जी नहीं रहे. भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे. आज के एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले ज़माने में वो नेताओं की जमात में एक ऐसे नेता थे जिन्हें अपने अनुयायियों का ही नहीं, अपितु अपने विरोधियों का भी प्यार और सम्मान मिला था.
टीवी के हर न्यूज़ चैनल पर, हर समाचार पत्र में, यह मुख्य खबर है कि अपने प्रिय नेता से बिछड़ने के कारण आज सारा देश शोकाकुल है.
लेकिन अटल जी के निधन से मैं दुखी नहीं हूँ. 93 वर्ष से भी अधिक की परिपक्व आयु में और लम्बी असाध्य बीमारी के बाद उनका निधन कोई हादसा नहीं है. हमको तो इस बात का संतोष होना चाहिए कि उनको अपने कष्टों से मुक्ति मिली.
वो ओजस्वी वक्ता, वो हाज़िर जवाब विनोदी व्यक्ति, वो कवि-ह्रदय राजनीतिज्ञ जिसके हम सब प्रशंसक थे, वो तो हमसे लगभग एक दशक पहले ही बिछड़ गया था. 2009 के बाद से तो अटल जी अपने बंगले में ही रहने के लिए मजबूर हो गए थे. उनके सार्वजनिक जीवन पर पूर्ण विराम लग गया था.
लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम के सहारे सिर्फ़ साँसें लेना वाला एक बेबस इन्सान, अगर अपने कष्टों से मुक्ति पा गया तो हमको आंसू बहाने की क्या ज़रुरत है?
हम अटल जी को अगर सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो उनकी तरह स्वच्छ राजनीति का निर्वाहन करने वालों को अपना नेता चुनें. प्रति-पक्षी की आलोचना करते समय उनकी तरह शालीनता का व्यवहार करें. अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी गंगा-जमुनी विरासत पर गर्व करें और दुश्मन को भी गले लगाने की उदारता दिखाएं.'
साहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र नीरज और तामिल राजनीति के भीष्म पितामह करुणानिधि के निधन पर भी शोक संवेदना के बनावटी आंसू बहाने वाले हज़ारों की संख्या में दिखाई पड़ रहे थे.
अभी हाल ही में दिलीपकुमार के निधन पर भी ऐसे ही मगरमच्छी आंसू बहाए गए थे.
अभिनय सम्राट दिलीपकुमार तो एक अर्सा हुआ हम से ही क्या, ख़ुद से बिछड़ गए थे.
जब व्हीलचेयर पर बैठे दिलीपकुमार को सायरा बानो एक बच्चे की तरह खिलाती थीं, उनकी तरफ़ से लोगों से बातें करती थीं, तो अपने महा-नायक की बेबसी पर हमारी आँखें भर आया करती थीं.
मृत्यु तो एक ध्रुव सत्य है ! इसे हम शालीनता के साथ स्वीकार क्यों नहीं कर सकते?
हमारे देश में आंसू बहाने का इतना नाटक क्यों होता है?
कितनों ने लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम के सहारे घुट-घुट कर जीने का नाटक करते हुए किसी मरीज़ को देखा है?
मैंने अपनी बड़ी बहन को अपने जीवन के अंतिम तीन सालों में हर दिन ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलते देखा था.
सप्ताह में तीन बार डायलसिस के लिए जाना और उसके कारण उत्पन्न अनेक कॉम्प्लीकेशंस का मुक़ाबला करना, उनके लिए ही नहीं, समस्त परिवार के लिए अत्यंत कष्टदायी था.
अपने जीवन के अंतिम तीन दिन उन्होंने वेंटीलेटर के सहारे गुज़ारे थे.
जब वो 72 वर्ष से भी कम आयु में चल बसीं तो मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उन्होंने मेरी बहन को उनके असह्य कष्टों से मुक्ति दिला दी.
हमको इस शोक प्रकट करने की बनावटी औचारिकताओं से बचना चाहिए.
पेशेवर शोक प्रकट करने वाले मर्सिया पहले से तैयार रखते हैं, उसमें सिर्फ़ कोई पुराना नाम हटा कर दिवंगत आत्मा का नाम डालते ही एक नया, ताज़ा और गरमा-गर्म मर्सिया तैयार हो जाता है.
यदि दिवंगत विभूति के प्रति हमारे ह्रदय में आदर और प्रेम की भावना है तो हमको उसके द्वारा छोड़े गए अधूरे कामों को पूरा करना चाहिए और उसका अनुकरण करके उसकी विचारधारा को, उसके जीवन-दर्शन को आगे बढ़ाना चाहिए.
बिना बात के आंसू बहाने के लिए मगरमच्छ और किराए की रुदालियाँ काफ़ी हैं, हम सबको उनका जैसा नाटक कर, उनकी रोज़ी-रोटी का ज़रिया छीनने की क्या ज़रुरत है?
आइए, हम सब दिवंगत आत्माओं को एक बार फिर से याद करते हुए राष्ट्र-निर्माण में उनके योगदान को याद करें और उनके सिखाए हुए मार्ग पर चल कर भारत की सर्वतोमुखी उन्नति में यथासंभव ख़ुद भी जुट जाएं.
ॐ शांतिः, शांतिः, शांतिः !

6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे बेबाक विचारों से सहमत होने के लिए धन्यवाद मित्र !

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  2. सत्य से रूबरू कराता चिंतन ।मृत्यु पर रोना, क्यों रोना, क्यों नहीं रोना,सही, गलत का सटीक विश्लेषण 🙏🙏

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    1. धन्यवाद जिज्ञासा.
      मृत्यु के विषय में हमारे भारतीय धर्म-दर्शन में ही नहीं, बल्कि विश्व के हर धर्म, हर दर्शन में विलाप करने को अनुचित बताया गया है.

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  3. सही में श्रद्धांजलि तो यही है की उनके द्वारा स्थापित मूल्यों का आदर किया जाय ... जो वो करना चाहते थे उन्हें पूरा किया जाय ...

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    1. सही कहा आपने दिगंबर नासवा जी.
      हम शोक-संवेदना में भी बढ़ा-चढ़ा कर दिखावा करते हैं.

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