दस पुरानी हल करीं, सौ और पैदा हो गईं.’
सूदखोर लाला फूलचंद के सुखी परिवार का हर सदस्य उनकी ज़िंदगी में ही उन्हें अपने दिल से दूध में पड़ी मक्खी की तरह से निकाल चुका था.
शादी की तीसवीं सालगिरह मनाने के बावजूद उनकी धर्मपत्नी कस्तूरी देवी उन से ज़्यादा मेहरबान तो अपनी पालतू बिल्ली पर रहा करती थीं क्योंकि अपने पतिदेव के दूध के हिस्से की मलाई वो उसको ही चटा दिया करती थीं.
अपने पतिदेव की खुराक के बादाम उनके देवर लालचंद के हिस्से में आया करते थे.
जहाँ दूजिया लाला फूलचंद कस्तूरी देवी से पंद्रह साल बड़े थे, वहां लालचंद, उनका हम-उम्र था.
इन देवर-भाभी की आपसी ट्यूनिंग के बारे में पूरे शहर में खुसुर-पुसर होती रहती थी.
लालचंद की ख़ुद की बीबी, देवर-भाभी की इस घनिष्ठ मित्रता से आज़िज़ हो कर अपने पूर्व प्रेमी के साथ कब की भाग चुकी थी.
विरही लालचंद ने दूसरी शादी नहीं की और वह अपनी भाभी की सेवा में ही अपने दिन और अपनी रातें बिताया करता था.
लाला को अपनी पहली बीबी राजबाला की निशानी, अपनी बिटिया, राजकुमारी उर्फ़ रज्जो से बड़ा प्यार था लेकिन उसकी और उसके दोनों बेटों की चोरी करने की आदत से वो इतने परेशान रहते थे कि उसे और उसके बेटों को अपने यहाँ बुलाने से पहले वो अपनी रेजगारी भी अपनी तिजोरी में रख लिया करते थे.
वैसे भी अपनी सौतेली माँ से रज्जो की बिलकुल भी पटती नहीं थी इसलिए उसका मायका-आगमन उँगलियों पर ही गिना जा सकता था.
लाला फूलचंद और कस्तूरी देवी का बेटा भालचन्द, जहाँ अपनी माँ की आँख का तारा था और अपने चाचा का महा-दुलारा था, वहां वह अपने बाप को फूटी आँख भी नहीं भाता था.
लाला फूलचंद तो उसकी शादी तक में शामिल नहीं हुए थे और शादी में बाप के हिस्से की सारी रस्में बेचारे लालचंद को निभानी पड़ी थीं.
दोस्त के नाम पर लाला को सिर्फ़ वकील चतुरसेन का साथ मिला था जो कि उनकी जायदाद की देखभाल भी किया करता था.
लाला फूलचंद की उजड़ी ज़िंदगी में सुखवंती देवी मास्टरनी बहार बन कर आई थीं.
राजबाला के बिस्तर पकड़ते ही लाला फूलचंद ने सुखवंती देवी मास्टरनी का आंचल थाम लिया था.
अपने अफ़ीमची और महा-नाकारा पति से दुखी, सुखवंती देवी, लाला को सहज ही उपलब्ध हो गयी थीं.
राजबाला की मौत के बाद यूँ तो लाला फूलचंद को दुबारा शादी करने की ज़रुरत नहीं थी क्योंकि उनकी पत्नी की सारी जिम्मेदारियां अन-ऑफ़िशियली सुखवंती देवी ही निभा रही थीं लेकिन चूंकि वो ऑफ़िशियली सधवा थीं इसलिए लोक-लाज की खातिर लाला ने अपनी भतीजी की उम्र की कस्तूरी देवी से विवाह कर लिया था.
कस्तूरी देवी को अपनी शादी के फ़ौरन बाद ही अधेड़ उम्र के लाला फूलचंद की रंगरेलियों के बारे में पता चल गया था लेकिन उन्होंने उन से कोई गिला-शिकवा करने के बजाय लालचंद के साथ रासलीला रचाना मुनासिब समझा था.
लुकाछिपी वाले इन इश्क-प्यार की बदौलत हमारी कहानी के पात्रों के दिन सुख-शांति से बीत रहे थे कि लाला फूलचंद ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया.
पहले सस्ते वैद्य का इलाज हुआ फिर दो रूपये पुड़िया वाले हकीम साहब उनकी नब्ज़ टटोलते रहे लेकिन आखिरकार उन्हें शहर के सबसे बड़े डॉक्टर की शरण में जाना पड़ा.
हजारों-लाखों खर्च कर के भी लाला की दुनिया, बिस्तर और बाथरूम तक ही सिमट कर रह गयी.
लेकिन एक बात अच्छी थी – लाला के तेज़ दिमाग पर और उनकी ज़हरीली जुबान, दोनों पर, उनकी बीमारी का कोई असर नहीं हुआ था.
सुखवंती देवी मास्टरनी, लाला फूलचंद की मिजाज़पुर्सी के लिए रोज़ ही आती थीं. वो घंटों उनके पास बैठती थीं, उनकी बातें कम सुनती थीं और कस्तूरी देवी की गालियाँ ज़्यादा सुनती थीं.
सुखवंती देवी के बेटे रूपचंद पर लाला फूलचंद जान छिड़कते थे. रूपचंद भी उन्हें अपने पिनकिये बाप से कहीं ज़्यादा प्यार और इज्ज़त देता था.
रूपचंद भी अपनी माँ सुखवंती देवी मास्टरनी की तरह लाला की बीमारी में उनका हमसाया बना रहता था.
वकील चतुरसेन भी रोज़ाना ही बीमार लाला फूलचंद से मिलने पहुँच जाया करते थे.
दोनों दोस्तों के बीच न जाने कितनी गुप्त बैठकें हुआ करती थीं. इन बैठकों के दौरान वकील चतुरसेन के लिए नाश्ता-पानी लाने के लिए सिर्फ़ दीना को ही कमरे में घुसने की इजाज़त हुआ करती थी.
इन मुश्किल दिनों में रोज़ सुबह कस्तूरी देवी दीना से पूछती थीं –
‘तेरे मालिक अब कैसे हैं दीना?’
जैसे ही दीना का हज़ार बार का दोहराया हुआ –
‘आज तो मालिक पहले से बेहतर हैं मालकिन !’
वाला जवाब उन्हें मिलता तो उनके चेहरे पर मायूसी छा जाती और फिर वो निराश स्वर में बड़बड़ातीं –
‘बुढ़ऊ तो बिस्तर पर पड़े-पड़े ही सैकड़ा पार कर लेंगे.’
आखिरकार लम्बी और उबाऊ बीमारी के बाद लाला फूलचंद का निधन हो ही गया.
पत्नी और बेटे ने लाला फूलचंद के अंतिम संस्कार में, उनकी तेरहवीं में और उनके नाम पर दान-पुण्य करने में, रुपया बहाने की कोई ज़रुरत नहीं समझी लेकिन सुखवंती देवी ने इन सब में इस तरह पानी की तरह पैसा बहाया कि सब शहर वाले कह उठे –
‘वाह ! महबूबा हो तो ऐसी हो.’
लाला फूलचंद की तेरहवीं के अगले दिन वकील चतुरसेन ने उनके ही बंगले में, उनके सभी सम्बन्धियों को बुला, उनकी वसीयत पढ़ कर सुनाने के लिए इकठ्ठा किया था.
लाला के परिवार-जन के हो-हल्ला करने के बावजूद वकील चतुरसेन ने सुखवंती देवी को और रूपचंद को भी, इस मौक़ा-ए-ख़ास में शामिल होने की दावत दी थी.
चतुरसेन ने लाला फूलचंद की वसीयत को बुलंद आवाज़ में सुनाना शुरू किया –
‘मैं लाला फूलचंद इस वसीयत को सुनाए जाने से चौदह दिन पहले भगवान जी के पास पहुँच चुका हूँ.
मैंने अपनी वसीयत सुनाए जाने की ज़िम्मेदारी अपने दोस्त चतुरसेन को दी है जिसकी सेवाओं के बदले मैं बीस लाख रूपये उसके नाम कर रहा हूँ.
अपनी नाम की धर्मपत्नी कस्तूरी देवी से मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है क्योंकि उसने मेरे साथ उतना ही बुरा किया है जितना कि मैंने उसके साथ किया है.
मेरा चक्कर सुखवंती देवी के साथ था तो उसका चक्कर मेरे नालायक भाई लालचंद के साथ था. तो हिसाब बराबर हुआ. फिर मेरी वसीयत में कस्तूरी देवी को कोई भी हिस्सा क्यों मिले?
फिर भी मैं अपना पुराना मकान और पचास लाख रूपये उसके नाम कर रहा हूँ.
रही भालचन्द की बात तो इस नालायक को मेरी जायदाद में से एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी जाए.
दरअसल ये निकम्मा, मेरी और कस्तूरी देवी की नहीं, बल्कि लालचंद की और कस्तूरी देवी की औलाद है.
इस पाप के बोझ को मैंने लोक-लाज के लिए पिछले छब्बीस साल ढोया है पर अब मरने के बाद ऐसा दिखावा करने की कोई ज़रुरत नहीं है.
वैसे भी अपनी माँ के पैसों पर इसी को तो ऐश करना है और उसको दिए मकान में भी इसी को रहना है.
लालचंद मेरा भाई कम और दुश्मन ज़्यादा था. इस विभीषण को तो मैं अपने घर से कब का निकाल फेंकता पर इसके लठैत, मेरे लठैतों से ज़्यादा ताक़तवर थे इसलिए मुझे खून का घूँट पी कर इसे अपने घर में बर्दाश्त करना पड़ा.
रूपचंद की ही तरह इस धोखेबाज़ के लिए भी मेरी जायदाद में एक चवन्नी नहीं है.
मेरी प्यारी रज्जो बिटिया चोर है और उसके दोनों बेटे तो चोर होने के साथ-साथ डाकू भी हैं.
हिसाब लगाया जाए तो इन माँ-बेटों ने मुझे तीस-चालीस लाख का चूना तो लगाया ही होगा. फिर भी इस मोहब्बती बाप की तरफ से रज्जो बिटिया को बीस लाख रूपये और दोनों नालायक नातियों को दस-दस लाख रूपये दिए जाने का इंतज़ाम कर दिया गया है.
मेरा नौकर दीना बहुत ही वफ़ादार रहा है. बरसों तक, ख़ास कर, मेरी बीमारी में, उसने मेरी बहुत सेवा की है.
दीना के नाम मुझे पांच लाख रूपये करने थे पर उसने मेरी सोने की चेन और मेरी पुखराज की अंगूठी पहले ही पार कर दी थी जिनकी कि कीमत करीब एक लाख की थी. इसलिए अब उसके नाम चार लाख रूपये ही किए जा रहे हैं.
सुखवंती देवी मास्टरनी तो मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं है.
इस डायन कस्तूरी देवी की जली-कटी सुन कर मुझे उसके शीतल आंचल में ही राहत और चाहत मिलती थी.
मैं एक करोड़ रूपये सुखवंती के नाम कर रहा हूँ.
अब बात आती है रूपचंद की.
दरअसल रूपचंद उस पिनकिये का नहीं, बल्कि मेरा ही बेटा है. मैंने तो उसका और अपना डीएनए टेस्ट करा कर यह बात कन्फ़र्म भी कर ली थी.
अपने सपूत के लिए आशीर्वाद के रूप में मैं एक करोड़ रूपये छोड़ रहा हूँ.
ज़िंदगी भर मैंने काली-कमाई की है और सूदखोरी के धंधे में न जाने कितनों की ज़मीन-जायदाद पर गैरकानूनी क़ब्ज़ा किया है.
अपने पापों का प्रायिश्चित करने के लिए मैं एक खैराती अस्पताल के निर्माण और उसके संचालन के लिए पचास लाख रूपये छोड़ रहा हूँ.
मेरा दोस्त चतुरसेन और सुखवंती देवी इस खैराती अस्पताल को चलाएँगे.
हाँ, अब रही इस बंगले की बात जिसके कि हॉल में यह वसीयत पढ़ी जा रही है.
इस बंगले का इस वसीयत में कोई ज़िक्र नहीं है. वो इसलिए कि इसकी रजिस्ट्री पहले ही सुखवंती देवी और रूपचंद के नाम हो चुकी है.
इस वसीयत को पढ़े जाने के एक महीने के अन्दर ही सुखवंती देवी का और रूपचंद का, इस पर क़ब्ज़ा हो जाएगा.’
वकील चतुरसेन के द्वारा लाला फूलचंद की वसीयत पढ़े जाने के बाद क्या-क्या हुआ, इसका विस्तृत वर्णन कोतवाली की फ़ाइल में दर्ज है.
लाला फूलचंद के जानने वाले यह हिसाब नहीं लगा पा रहे हैं कि इस वसीयत से जुड़े कितने लोग फ़ौजदारी करने के आरोप में थाने में बंद हैं और कितने लोग घायल हो कर अस्पताल में भर्ती हैं.