रविवार, 20 मार्च 2022

TO-LET

 पुराने ज़माने में लैंडलार्ड यानी कि ज़मींदार या फिर मकानमालिक दोनों का ही रुतबा हुआ करता था और उन्हें अपने किसानों पर या फिर अपने किराएदारों पर, अपनी मर्ज़ी थोपने का और भांति-भांति के ज़ुल्मो-सितम ढाने का पैदायशी हक हुआ करता था.

मेरा बचपन, किशोरावस्था और मेरी युवास्था का प्रारंभिक हिस्सा, पिताजी के साथ हर तीन साल बाद आशियाना बदलते हुए बीता है.
पिताजी मजिस्ट्रेट थे. उनको अपने सेवा-काल में या तो सरकारी कोठी मिल जाती थी या फिर एलॉटमेंट वाला मकान मिल जाता था. इस तरह रिटायरमेंट से पहले तक पिताजी को किराएदार होते हुए भी आम किराएदार वाली निरीह स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा था.
लेकिन मेरी किस्मत में मकान मालिकों की कम और मकानमालकिनों की थोक में धौंस-घुड़कियाँ लिखी थीं.
लखनऊ यूनिवर्सिटी की मुदर्रिसी छूटने के बाद मुझे जब रोजी-रोटी की तलाश में बागेश्वर जाना पड़ा तो एक पंजाबी लाला के एक बड़े से मकान में एक छोटी सी यूनिट मुझे भी मिल गयी.
पंजाबी लाला तो ठीक-ठाक थे लेकिन उनकी श्रीमती जी की ताका-झांकी और हर बात में टांग अड़ाने की आदत थी.
इन मकान मालकिन को मैं जब भी अपनी हद पार न करने की सलाह देता था तो वो कहती थीं –
‘जैसवाल भाई साहब, आपको रोटियों आपका कॉलेज दे रहा है और हम आपको रहने का ठिकाना दे रहे हैं.
भगवान जी के बाद आपको रोज़ाना अपने कॉलेज को और हमको शुक्रिया कहना चाहिए.’
खैर, बागेश्वर में मेरा प्रवास मात्र आठ महीने ही रहा और फिर आशियाने की तलाश में मेरा सामना अल्मोड़ा के मकान मालिकों से होने लगा.
मेरा पहला मकान खत्यारी गाँव में था जो कि स्टेडियम से करीब 50 मीटर नीचे था. निर्जन इलाके के इस सीलन भरे मकान में रहते हुए मुझे रोज़ अपनी नानी याद आती थीं.
मेरे मकानमालिक दूध बेचते थे और उनके हर किराएदार को उनके पानी मिले दूध को ही खरीदना पड़ता था.
मेरे अगले मकान मालिक ठाकुर दीवान सिंह यूँ तो कलेक्टर के यहाँ टेलीफ़ोन ड्यूटी पर नियुक्त चपरासी थे लेकिन वो भी हम किराएदारों को अपनी भैंसों का, गधेरे के पानी का मिला दूध बेचा करते थे.
मुझको 'साहब बहादुर' कहने वाले ठाकुर दीवान सिंह मुझ पर धौंस तो नहीं जमाते थे लेकिन अपने पक्की छत वाले और पक्के फ़र्श वाले मकान का नक्शा ज़रूर मारा करते थे.
मैं ठाकुर दीवान सिंह से कहा करता था –
‘ठाकुर दीवान सिंह, तुम्हारी बदौलत मुझे पक्की छत और पक्के फ़र्श वाला मकान मिल गया वरना तो मेरी अब तक की ज़िंदगी पेड़ पर लटक कर ही बीती थी.’
खत्यारी के नरक से निकल कर हम दुगालखोला के स्वर्ग जैसे इलाके में पहुँच गए.
वहां हमारे पहले मकानमालिक पान की दुकान चलाते थे और निहायत शरीफ़ इंसान थे लेकिन उनकी श्रीमती जी – ‘घोड़ा था घमंडी’ किस्म की हुआ करती थीं और ख़ुद को मकानमालकिन के बजाय मालकिन कहलवाना पसंद करती थीं.
पिताजी की मृत्यु के बाद हम भी लखनऊ में मकान मालिक बन गए थे लेकिन हमने किसी किराएदार का मालिक बनने की कभी जुर्रत नहीं की.
अल्मोड़ा में नौकरी करते हुए लखनऊ वाला मकान बेच कर, ग्रेटर नॉएडा में जब हमारा मकान बना तो उसकी नीचे की तीन बेड रूम वाली यूनिट हमको किराए पर उठानी पड़ी.
एक डिप्टी कलेक्टर हमारे किराएदार बने.
इन डिप्टी साहब ने हम से बिना पूछे घर के बाहर गार्ड्स केबिन बनवा दिया और घर के अन्दर अपने बुलडॉग के लिए एक केनेल बनवा दिया.
बात-बात पर धौंस दिखाने की और अपनी डींगें हांकने की उनकी आदत से मैं तो परेशान हो गया था.
एक बार डिप्टी साहब अच्छे मूड में दिखाई दिए तो मैंने उन से पूछा –
‘मित्र, एक बात बताओ, ये डिप्टी कलेक्टर क्या लाट साहब से बड़ा होता है?’
डिप्टी साहब ने हैरान हो कर जवाब दिया –
‘नहीं तो ! लेकिन आप यह सवाल क्यों पूछ रहे हैं?’
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया –
‘अपनी उम्र से पंद्रह साल बड़े यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर को बात-बात पर धमकाने वाला शख्स तो लाट साहब से भी बड़ा अफ़सर ही होना चाहिए.’
मेरा ताना सुनने के बाद डिप्टी साहब की धौंस तो कम हो गयी पर उनका कुत्ता हमको फिर भी सताता रहा.
डिप्टी साहब के विदा होने पर मैंने बाक़ायदा घी के दिए जलाए थे.
रिटायरमेंट के बाद हम ग्रेटर नॉएडा में सेटल हो गए.
अब हमको ख़ुद नीचे की यूनिट में रहना था और ऊपर की दो कमरे की यूनिट को किराए पर उठाना था.
हमने प्रॉपर्टी डीलर्स से कह दिया था कि हमको किराएदार के रूप में एक छोटा शाकाहारी परिवार चाहिए. किराएदार पढ़ा-लिखा हो और नौकरीपेशा हो, यह भी वांछनीय था.
एक प्रॉपर्टी डीलर दो नाइजीरियन लड़कों को ले आए. वो मुझ से बोले -
‘अंकल जी, ये लड़के बहुत अच्छे हैं, ये दोनों शाकाहारी हैं. ये आपको ड्योढ़ा किराया देंगे. मेरी गारंटी पर आप इन्हें अपना मकान दे दीजिए.’
हमारे देश में आए दिन न जाने कितने नाइजीरियंस ड्रग पेडलिंग में पकड़े जाते हैं.
मैंने उस प्रॉपर्टी डीलर को फिर कभी अपने घर में घुसने नहीं दिया.
एक कथा-वाचक पंडित जी मेरा मकान देखने आए. पंडित जी के छह बच्चे थे. मैंने उन्हें मकान देने से इंकार करते हुए कहा -
'पंडित जी, मुझे तो छोटे परिवार वाला ही किराएदार चाहिए.'
पंडित जी ने कहा -
मान्यवर, हमारा तो छोटा ही परिवार है. छह बच्चे ज़्यादा थोड़ी होते हैं?
अब देखिए, लालू यादव के तो नौ बच्चे हैं.'
मैंने पंडित जी के आगे अपने हाथ जोड़ते हुए कहा -
'कल लालू यादव अपने नौ बच्चों के साथ मेरी इस यूनिट को देखने आए थे. मैंने उन्हें भी इंकार कर दिया था.'
एक बार एक मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में पढ़ाने वाली तीन लड़कियां हमारी ऊपर की यूनिट देखने आईं.
मैं लड़कियों को अपनी यूनिट देने को तैयार नहीं था पर मेरी श्रीमती जी को वो लड़कियां बड़ी अच्छी लगी थीं.
लड़कियों को हमारी यूनिट पसंद आई. फिर किराए की बात भी हो गयी.
जाते-जाते एक लड़की ने मेरी श्रीमती जी से पूछा –
‘आंटी, सुबह के नाश्ते में आप क्या-क्या देंगी और रात के खाने में क्या देंगी? हमारा झाडू-बर्तन कौन करेगा?’
मेरी श्रीमती जी तो इन सवालों को सुन कर हक्की-बक्की रह गईं पर मैंने अपनी ज़ुबान में मिस्री घोलते हुए जवाब दिया –
‘नाश्ते-खाने में तुम लोग जो भी कहोगी वो तुम्हारी आंटी बना देंगी और तुम्हारा झाडू-बर्तन मैं कर दिया करूंगा.’
मेरी बात पर लड़कियों की प्रतिक्रिया से पहले ही मैंने उन से एक बात पूछ ली –
‘भई, तुम तीनों के एक जैसे स्पोर्ट्स शूज़ तो बड़े ज़ोरदार हैं. किस कंपनी के हैं?’
एक लड़की ने जवाब दिया –
‘हम तीनों के स्पोर्ट्स शूज़ प्यूमा कंपनी के हैं लेकिन अंकल, आप ये क्यों पूछ रहे हैं?’
मैंने उनके सवाल के जवाब में कहा –
‘तुम तीनों अपने शानदार प्यूमा स्पोर्ट्स शूज़ में मुझे भाग कर दिखाओ. और हाँ, भाग कर अपने घर ही चली जाना यहाँ वापस लौटने की तुम्हें कोई ज़रुरत नहीं है.’
मुझे पता चला है कि बहुत से दुष्ट प्रॉपर्टी डीलर्स और कई असंतुष्ट-असफल किराएदार, मुझे पीठ-पीछे – ‘खुड़-खुड़ अंकल जी’ कह कर पुकारते हैं.
ग्रेटर नॉएडा में किराए के लिए मकानों की बहुतायत है और किराएदारों की किल्लत होने की वजह से उनके बहुत नखड़े हैं.
मैंने औने-पौने दामों में एक ठीक-ठाक सा किराएदार रख लिया है. मुझे उम्मीद है कि उसे मैं – ‘खुड़-खुड़ अंकल जी’ नहीं लगूंगा.
बागेश्वर में पंजाबन मकानमालकिन की और अल्मोड़ा में पनवाड़न मकानमालकिन की धमकियों और धौंस से पीड़ित किराएदार, मैं बदनसीब, ग्रेटर नॉएडा में मकानमालिक ज़रूर बन गया हूँ पर मेरी किस्मत में किराएदार पर रौब मारना लिखा ही नहीं है.
मकानमालिक की मुश्किलों का सामना करते-करते मैं तो परेशान हो गया हूँ. मुझे तो अब हर किराएदार से जलन होती है.
न तो मेंटेनेंस की चिंता न ही वाटर टैक्स और बिजली का बिल जमा करने की फिक्र !
महंगाई के दौर में पहले से आधे किराए में कोई मन-पसंद यूनिट लो फिर आए दिन मकानमालिक के सामने अपना शिकायती बक्सा और – ‘हमारी मांगे पूरी हों’ वाला चिटठा खोल दिया करो.
एक ज़माने में मकानमालिक बनने की मेरी बड़ी हसरत थी लेकिन अब तो मैं भगवान से कहता हूँ –
‘अगले जनम मोहे किराएदार ही कीजो.’

16 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 21 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. 'पांच लिंकों का आनंद' के सोमवार, 21 मार्च, 2022 के अंक में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (21 मार्च 2022 ) को 'गौरैया का गाँव में, पड़ने लगा अकाल' (चर्चा अंक 4375 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. 'गौरैया का गाँव में, पड़ने लगा अकाल' (चर्चा अंक - 4375) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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    1. मेरे संस्मरण को स्वादिष्ट बताने के लिए धन्यवाद नूपुरं जी.

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  4. व्यथित पूकार।
    शानदार लेखन ।

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    1. तारीफ़ के लिए और सहानुभूति के लिए, धन्यवाद मन की वीणा.
      वैसे आजकल व्यथा कम है क्यों कि अपनी शर्तें तोड़े बिना मुझे किराएदार मिल गया है.

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  5. 😃😃👌यानि की मकनमालिक बनकर भी मुकद्दर के सिकंदर ना बन सके आप।रौब सहना ही नसीब था,रौब गाँठना नहीं।लाजवाब व्यंग! बतरस से भरपूर्।।सादर 👌👌🙏😃

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    1. तारीफ़ के लिए शुक्रिया रेणु !
      चार दिन की चांदनी है, फिर आने वाली अंधेरी रातों का रोना अभी से क्यों रोएँ?
      आजकल तो अपने पास किराएदार है ही.
      और रही रौब मारने की बात तो इन दिनों मैं आदमकद शीशे के सामने खड़ा हो कर उसमें दिखने वाले एक बुज़ुर्ग पर मैं खूब रौब झाड़ता हूँ.

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  6. वाह ! बहुत रोचक संस्मरण

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    1. मेरे संस्मरण की तारीफ़ के लिए शुक्रिया अनिता जी.

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