मंगलवार, 22 अगस्त 2023

ये है ग्रेटर नॉएडा मेरी जान

 फ़िल्म ‘सीआईडी’ का मशहूर गाना – ‘ज़रा हट के, ज़रा बच के, ये है बॉम्बे मेरी जान –‘ दरअसल हमारे ग्रेटर नॉएडा के शरीफ़ वाहन-चालकों के लिए और निरीह पैदल चलने वालों के लिए कुछ इस तरह से लिखा गया था –

‘ज़रा हट के, ज़रा बच के,
ये है ग्रेटर नॉएडा मेरी जान’
पर बाद में इसे चोरी कर के और इसमें थोड़ा फेर-बदल कर के, इसका इस्तेमाल बॉम्बे के बाशिंदों को होशियार करने लिए कर लिया गया.
आप कहेंगे कि ‘सीआईडी’ फ़िल्म तो 1956 में रिलीज़ हुई थी और ग्रेटर नॉएडा की नींव 1992 में पड़ी थी फिर ये गाना चोरी करने वाली बात कैसे सच हो सकती है.
इस सवाल के जवाब में हम कहेंगे कि इस गीत की रचना बहुत पहले ज्योतिष-विद्या में प्रवीण एक अज्ञात कवि ने ग्रेटर नॉएडा के सम्बन्ध में अपनी भविष्यवाणी के रूप में की थी.
वैसे भी आजकल इतिहास को तो बुद्धि-विवेक को ताक पर रख कर ही लिखा, पढ़ा और समझा जाता है.
हमारे ग्रेटर नॉएडा में घी-दूध की नदियाँ तो नहीं बहतीं पर सड़कों पर, फुटपाथों पर, थोक के भाव गाय-भैंस का गोबर (बरसात के मौसम में) और उनका मूत्र (बारहों महीने) अवश्य बहता है.
सुना है कि बाबा आँख मारू पांच-छह सौ रूपये में गौ-मूत्र की एक बोतल बेचते हैं और पंच-गव्य के नाम पर भी ऊंचे दाम पर लोगों की जेबें काटते हैं.
बाबा हमारे ग्रेटर नॉएडा में अगर अपना प्लांट खोल लें तो उन्हें रॉ मटीरियल की कभी कोई कमी नहीं रहेगी.
अपने निस्वार्थ जनहित-कार्य के लिए यहाँ की गाय-भैंस भी यहाँ के नागरिकों की भांति ही ट्रैफ़िक नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए, यत्र-तत्र-सर्वत्र उल्टी-सीधी दिशाओं में विचरण करती हुई, मोदी जी के स्वच्छ-भारत अभियान की ऐसी की तैसी करती रहती हैं.
भारत में जन-प्रतिनिधि सभाओं के बाद सबसे ज़्यादा तादाद में छुट्टा सांड आपको ग्रेटर नॉएडा में ही दिखाई देंगे.
इन सांडों के सौजन्य से भले ही गायों की आने वाली नस्लें सुधरें या फिर न सुधरें पर इनके सड़कों पर आवारा घूमने से हमारे आने-जाने में हमारी जान जाने का कितना ख़तरा रहता है, उसका आप आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं.
यहाँ के दूध बेचने वाले मोटर साइकिल पर अगल-बगल तीस-तीस लीटर की 5-6 कैन्स ले कर चलते हैं और आम तौर पर उल्टी दिशा में ही चलते हैं.
प्रैक्टिकली इन दूध-वाहक दुपहिया वाहनों की चौड़ाई हमारी छोटी सी कार आल्टो 800 से ही क्या, छोटे-मोटे ट्रक से भी ज़्यादा हो जाती है.
हमारे ग्रेटर नॉएडा में सड़कें बहुत चौड़ी हैं और दिल्ली, नॉएडा की तुलना में यहाँ ट्रैफ़िक भी कम है लेकिन यहाँ रॉंग डायरेक्शन में चलने का रिवाज़ इतना ज़्यादा है कि हम जैसे ट्रैफ़िक नियमों का पालन करने वाले वाहन चालकों को शक़ हो जाता है कि कहीं हम ही तो गलत नहीं जा रहे हैं.
कभी 70 किलोमीटर की स्पीड से रॉंग डायरेक्शन में चलने वाले की गाड़ी से जब हमारी कार भिड़ते-भिड़ते बच जाती है तो वह आँखे तरेर कर और गुर्राते हुए हमसे पूछता है –
‘ताऊ, अँधा है क्या?’
हमारे ग्रेटर नॉएडा में पार्कों की भरमार है लेकिन जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था के इन पार्कों में हम प्रातःकालीन भ्रमण के लिए अगर जाते हैं तो वहां हमको कुत्तों, गायों और सांडों से ख़ुद को बचते-बचाते हुए चलना पड़ता है.
ग्रेटर नॉएडा में ट्रैफ़िक पुलिस सिर्फ़ तब दिखाई देती है जब कोई महा-माननीय किसी समारोह में पधारता है और फिर उसके प्रस्थान करते ही वह गधे के सर पर सींग की तरह गायब भी हो जाती है.
ग्रेटर नॉएडा से नॉएडा जाने के दो रास्ते हैं.
एक रास्ता परी चौक से एक्सप्रेस वे से होता हुआ नॉएडा पहुंचता है और दूसरा हाथी चौक से भंगेल के रास्ते नॉएडा पहुंचता है.
अपेक्षाकृत 6-7 किलोमीटर छोटा होने की वजह से नॉएडा जाने के लिए पहले हम भंगेल वाला रास्ता पकड़ते थे पर भंगेल में बीच सड़क पर कार, बस और ट्रक, या अपना ठेला खड़ा करना, यहाँ के निवासियों का जन्मसिद्ध अधिकार है.
आप अपनी कार को सिर्फ़ उड़ा कर या फिर भिड़ा कर, इन बाधाओं को पार कर सकते हैं.
दो-चार बार अपनी कार को ठोकरें लगवा कर और गलत दिशा में आ रहे वाहक-चालकों की गालियाँ-धमकियाँ खा कर, हमने इस रास्ते का हमेशा के लिए परित्याग कर दिया है और नॉएडा जाने के लिए एक्सप्रेस वे वाला लम्बा रास्ता अपना लिया है.
स्कूल और ऑफ़िस के खुलने के और बंद होने के टाइम पर बसों के और कारों के, बेलगाम हुजूम में कई बार फंसने के बाद हमने उस टाइम पर घर से बाहर निकलना छोड़ ही दिया है.
रात में हमको कुछ ख़ास सूझता नहीं है इसलिए शाम के बाद हम अपनी कार को विश्राम ही देते हैं.
हाँ, रविवार की सुबह हम जैन मन्दिर तक अपनी कार से ज़रूर चले जाते हैं. आने-जाने में कुल जमा साढ़े तीन किलोमीटर का चक्कर लगाने से हमारी कार का आवश्यक साप्ताहिक व्यायाम हो जाता है और साथ में हमको धर्म-लाभ भी हो जाता है.
हमारे यहाँ पद-यात्री सबसे निरीह प्राणी होता है.
यहाँ की फुटपाथों पर पेड़ों का या फिर हॉकर्स का क़ब्ज़ा होता है.
जिन रास्तों से पद-यात्री सड़क क्रॉस करता है उसका इस्तेमाल दुपहिया वाहन-चालक भी करते हैं और गौ-माताएं भी.
हमारे यहाँ ज़ेबरा क्रासिंग पर वाहन चालक अपनी गाड़ी की गति धीमी करने के बजाय उसे और ज़्यादा तेज़ कर देते हैं.
अब यह किसी पद-यात्री के भाग्य पर निर्भर करता है कि वह इस अप्रत्याशित आक्रमण से बच पाता है या नहीं.
यहाँ के बाज़ारों में गाड़ियाँ पार्क करने की और चौराहों पर ऑटो पार्क करने की, स्वच्छंद व्यवस्था हमको काल्पनिक अंधेर नगरी के यातायात नियमों को साकार करती हुई दिखाई पड़ती है.
पिछले पांच सालों से हम सुनते आ रहे हैं कि यहाँ वाहन-चालकों को ट्रैफ़िक नियमों का पालन कराने के लिए महत्वपूर्ण चौराहों पर ट्रैफ़िक लाइट्स और क्लोज़ सर्किट कैमरा लगाए जाने की व्यवस्था होने जा रही है. लेकिन अब तक हम ऐसी घोषणाओं के क्रियान्वयन की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं.
जानकार कहते हैं कि हमारी ज़िंदगी के बाक़ी दिन भी ऐसी प्रतीक्षा में ही बीत जाएंगे और भारत का होने वाला यह सिंगापुर, भेड़ियाधसान ही बना रहेगा.
फिर भी उम्मीद पे दुनिया क़ायम है.
हमको उम्मीद है कि ग्रेटर नॉएडा की सड़कों पर व्यवस्था क़ायम होने की हमारी दिली आरज़ू एक न एक दिन ज़रूर पूरी होगी.
हम यहाँ के हालात सुधर जाने का इंतज़ार कर रहे हैं और हमको यकीन है कि कभी ना-उम्मीद हो कर हमको यह शेर नहीं गुनगुनाना पड़ेगा –
उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में

4 टिप्‍पणियां:

  1. महसूस हुआ आपकी व्यथा से कि वाकई ये देश है वीर जवानो का ...

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    1. सुनते हैं कि ग्रेटर नॉएडा की तरह अब अल्मोड़ा में भी ट्रैफ़िक को सिर्फ़ वीर जवान ही वन-पीस पार कर सकते हैं.

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  2. हालात ऐसे बयां किये कि पढ़ते पढ़ते ,फँस गये ट्रैफिक में वो भी ग्रेटर नोएडा के । क्या कहें यही हालात क ई जगह हैं ।

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