फैज़ अहमद फैज़ की अमर रचना –
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
(हिंदी अनुवाद)
हम देखेंगे
निश्चित है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वचन मिला है
जो वेदों में लिख रखा है
जब अत्याचार का हिमालय भी
रुई की तरह उड़ जाएगा
हम प्रजाजनों के कदमों तले
जब पृथ्वी धड़ धड़ धड़केगी
और शासक के सर के ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
जब स्वर्गलोक सी पृथ्वी से
सब असुर संहारे जाएँगे
हम दिल के सच्चे और वंचित
गद्दी पर बिठाए जाएँगे
सब मुकुट उछाले जाएँगे
सिंहासन तोड़े जाएँगे
बस नाम रहेगा ईश्वर का
जो सगुण भी है और निर्गुण भी
जो कर्ता भी है साक्षी भी
उठेगा “शिवोऽहम्” का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगा ब्रह्म-पुरुष
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे!
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से कुछ हट कर मेरी अपनी गुस्ताख़ी –
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -
जो झूठे ज़ालिम अहमक हैं
मसनद पे बिठाए जाते हैं
मंसूर कबीर सरीखे सब
सूली पे चढ़ाए जाते हैं
क्यूं दीन-धरम की खिदमत में
नित लाश बिछाई जाती हैं
नफ़रत वहशीपन खूंरेज़ी
घुट्टी में पिलाई जाती हैं
बोली औरत की अस्मत की
हाटों में लगाई जाती है
नारी-पूजन की क़व्वाली
हर रोज़ सुनाई जाती है
बिकता हर दिन ईमान यहाँ
गिरवी ज़मीर हो जाता है
कुर्सी पर जैसे ही बैठे
फिर फ़र्ज़ कहीं सो जाता है
आहें सुनता है कौन यहाँ
फ़रियादों से न पिघलता है
नगरी-अंधेर में सिक्का तो
धोखे-फ़रेब का चलता है
बनवास राम का देखा था
अब राम-राज्य का देखेंगे
दोज़ख की आग में जलते हुए
हम ख़ुद को निस-दिन देखेंगे
घुट-घुट कर जी कर देखेंगे
तिल-तिल कर मर कर देखेंगे
फिर अगले जनम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
लाजवाब है |
जवाब देंहटाएंलेकिन उन्होंने पढ़ दिया तो वो भी तुमको देखेंगे | :)
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने बरसों तक पाकिस्तान की जेल की रोटियां खाई थीं. उनके अंदाज़ में कुछ कहने पर अगर उनके जैसा ही कुछ हमारा भी हशर हो तो क्या बुरा है?
हटाएंवाह !
जवाब देंहटाएं'वाह' के लिए शुक्रिया अनिता जी.
हटाएंफ़ैज जी को स्मृति नमन
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति
ज्योति जी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तो लाजवाब हैं और उनकी यह नज़्म ऐतिहासिक महत्त्व रखती है.
हटाएंमैंने तो उन्हीं के अंदाज़ में आज के भारत के हालात की तस्वीर उतारने की एक अदना सी कोशिश की है.