(1970 के दशक के मेरे छात्र-जीवन की खट्टी-मीठी यादों में वाजिद भाई सबसे ऊंचा और सबसे अहम मक़ाम रखते हैं.
वाजिद भाई के किस्से तो बेशुमार हैं पर उनकी क़ाबिलियत के किस्सों पर मैं सुकरात, अफ़लातून और अरस्तू तीनों की, कंबाइंड अक्ल को क़ुर्बान कर सकता हूँ.
मुझे यकीन है कि मेरे इस किस्से को पढ़ कर आप पाठकगण भी हमारे इस भूतो न भविष्यत् स्कॉलर के मुरीद बन जाएंगे.)
वाजिद भाई उर्फ़ हमारे होस्टाइल नवाब की अक़्लमन्दी के किस्से इतिहास की किताबों में दर्ज होने लायक हैं.
इतिहास की बारीकियों पर वाजिद भाई की पैनी पकड़ और हिन्दी, उर्दू के अलावा अंग्रेज़ी भाषा पर उनकी ज़बरदस्त महारत उनके नाम से पहले ‘स्कॉलर’ शब्द जोड़े जाने का सबब है.
वाजिद भाई के इल्मी सफ़र की शुरूआती दास्तान बहुत ट्रैजिक किस्म की है.
अपने कस्बे के स्कूल में नवीं जमात तक पास होने में उन्हें ख़ास वर्जिश नहीं करनी पड़ी क्योंकि उनके वालिद साहब उन्हीं के स्कूल में पी० टी० मास्टर थे पर हाईस्कूल में उनका रहनुमा कोई नहीं था.
नकल करने की हमारे वाजिद भाई में तब ख़ास अक़्ल नहीं थी इसलिए दो साल तो नक़ल में पकड़े जाने पर उन्होंने रैस्टीकेट हो कर आराम से घर में ही बिता दिए पर इसी दौरान उन्होंने नकल करने का हुनर सीख लिया और फिर हमारे चौहान का निशाना कभी चूका नहीं.
वैसे वाजिद भाई का रोल नम्बर होना तो चाहिए था फ़र्स्ट डिवीज़न वालों की लिस्ट में पर शायद प्रिन्टिंग मिस्टेक की वजह से वह आ गया था रॉयल क्लास में.
इन्टरमीडियेट की परीक्षा को पास करने में वाजिद भाई को ख़ास दिक़्कत नहीं हुई क्योंकि ख़ुशकिस्मती से कापियां डिस्पैच करने वाले बाबू उनकी जान-पहचान के थे.
एक बार परीक्षकों के घरों के पते जो उन्हें पता चल गए तो फिर मुश्किल कहां थी?
वाजिद भाई ने अपनी हट्टी-कट्टी अम्मी जान को बैठे-बिठाए कैंसर की मरीज़ बना दिया. कैंसर पीडि़त अम्मीजान की सेवा करने में अपना जी-जान एक करने वाले मासूम बच्चे की दुःखभरी दास्तान सुन कर अधिकांश एक्ज़ामिनर्स पिघल गए, जो दो-चार नहीं पिघले उनकी लताड़ भी खानी पड़ी पर कुल मिला कर ये सारी कसरत कामयाब रही.
हमारे वाजिद भाई इम्तहान में तीन डन्डे पा कर भी ख़ुश थे पर झूठ-मूठ में अपनी अम्मी जान को मृत्युशैया पर लिटाने की जुर्रत करने पर उन्हें अपने अब्बा जान से जितने डंडे खाने पड़े, उसकी शुमार करने के लिए उन्हें हर बार कैलकुलेटर की मदद लेनी पड़ती थी.
वाजिद भाई की बी० ए० करने की दास्तान भी कम दिलचस्प नहीं है. अंग्रेज़ी से उनको दीवानगी की हद तक इश्क था.
अपने अगले जनम में वो इंग्लैण्ड में ही पैदा होने की दुआ करते थे, भले ही अल्लाताला उन्हें वहां खानसामा बना दें.
कम से कम वो फ़र्राटे से अंग्रेज़ी तो बोल सकेंगे.
पर दो साल तक लाख सर पटकने पर भी कम्बख़्त अंग्रेज़ी ने उन्हें ऐसी-ऐसी पटकनियां दीं कि हार कर उन्होंने उससे तौबा कर ही ली.
नकल की पुर्चियां भी उनका कल्याण नहीं कर पाईं.
अब उन्होंने इतिहास, समाज शास्त्र तथा राजनीति शास्त्र जैसे अहिंसक विषय लिए और फिर बी० ए० पास कर ही डाला.
एम० ए० करने के लिए उन्होंने हिस्ट्री को क्यों चुना इसकी वजह बस ये समझ लीजिए कि इतिहास विषय की, लखनऊ विश्वविद्यालय की और मेरी किस्मत खराब थी.
वाजिद भाई और मैं दोनों ही लालबहादुर शास्त्री हॉस्टल में रहते थे
सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक वाजिद भाई मुझे हिस्ट्री की बारीकियां समझाते रहते थे पर मैं ऐसा कूढ़मगज था कि उनकी सार-गर्भित बातों की गहराई जाने बग़ैर उन पर टीका टिप्पणी करता रहता था.
वाजिद भाई को खुद को स्कॉलर कहलाने का बहुत शौक़ था. अपने इतिहास ज्ञान के झण्डे गाड़ने की चाहत में उन्होंने अपनी खोजों का प्रचार करना शुरू कर दिया.
उनकी इतिहास विषयक खोजों का मुख्य स्रोत ऐतिहासिक फि़ल्में हुआ करती थीं.
पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को सात बार हराया था, जिसे भी शक था वो पृथ्वीराज चौहान पर बनी फि़ल्म देख सकता था.
बादशाह अकबर के खि़लाफ़ सलीम की बग़ावत सिर्फ़ अनारकली को उसकी बेग़म न बनाए जाने की वजह से हुई थी. अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो फि़ल्म ‘अनारकली’ और फ़िल्म ‘मुग़ले आज़म’ क्या इतनी हिट हो सकती थीं?
हमारे वाजिद भाई के लिए ‘शमा’, ‘सुषमा’ और ‘फि़ल्म फ़ेयर’ जैसे फ़िल्मी मैग्ज़ीनों का महत्व ‘अकबरनामा’ या ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया’ से कम नहीं होता था.
यूं तो वाजिद भाई ख़ुद को लखनऊ के नवाबों का ख़ानदानी बताते थे पर उनकी जुबान में बम्बैया बोली की मिठास सबका मन मोह लेती थी. वाजिद भाई के लाख मना करने पर भी मैंने उनके इतिहास के क्लास लेने शुरू कर दिए थे.
एक हफ़्ते तक सर खपाने के बाद मैंने उन्हें औरंगज़ेब-शिवाजी सम्बन्ध वाला टॉपिक तैयार करा ही दिया.
वाजिद भाई अपनी लियाक़त का टैस्ट देने के लिए ख़ुद बहुत बेचैन थे. इस विषय पर दिया गया उनका सार-गर्भित भाषण मुझे आज भी याद है -
‘दक्षिण में बवाल मचा हुआ था. मौका पा कर शिवाजी ने वहां बमचिक मचा दी.
बीजापुर के अफ़ज़ल खां की तो उन्होंने ऐसी की तैसी कर दी.
औरंगज़ेब के मामू शाइस्ता खां की भी उन्होंने हचक के तुड़ाई की पर राजा जयसिंह उन्हें पकड़ कर मुगल दरबार ले आया.
दरबार में उनकी औरंगज़ेब से खाली-मूली में पसड़ हो गई.
औरंगज़ेब ने उन्हें अन्दर कर दिया पर शिवाजी उसे झांसा देकर खिसक लिए.
बेचारा औरंगज़ेब तो बस टापता ही रह गया.‘
वाजिद भाई के भाषण के समाप्त हो जाने के बाद का दृश्य कुछ इस प्रकार था -
मैं वाजिद भाई की छाती पर चढ़ कर उनकी धुनाई कर रहा था और बीच-बीच में रोते-रोते अपने सर के बाल भी नोंचता जा रहा था.
हमारे स्कॉलर के इतिहास ज्ञान से ज़्यादा मक़बूल उनकी अंग्रेज़ी थी.
बी० ए० में रिसर्च करने के दौरान अंग्रेज़ी में उन्हें दो साल पटकनी खानी पड़ी थी पर उनका अंग्रेज़ी का किला फ़तेह करने का हौसला एम० ए० करते वक़्त भी बुलन्द था.
उनकी अंग्रेज़ी में हॉस्टल में रहने वाला हर शख़्स होस्टाइल था और हॉस्टल की बातें होस्टेलिटी की बाते थीं.
रजिस्टर में से हिस्ट्री के नोट्स लिखने वाला और नोट्स लिखाने वाला, दोनों ही, उनकी जुबान में हिस्ट्री शीटर थे.
एक बार शाम को हॉस्टल के मित्रों ने पिक्चर देखने का प्लान बनाया. वाजिद भाई को भी इसमें शामिल करने का प्रस्ताव रक्खा गया पर उन्होंने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा -
‘यार मैं तो ज़रूर चलता पर क्या करूं बिलग्राम से मेरी खाला आ रहीं हैं. शाम को उनके साथ मेरा इंगेजमेन्ट है.‘
अब अपनी खाला जान के साथ उनके इंगेजमेंट की खबर सुनकर हम हा हा! ही ही! करें, ये कहां की तमीज़ थी?
वाजिद भाई ने नाराज़ हो कर हमसे एक हफ़्ते तक बात भी नहीं की.
स्कॉलर वाजिद भाई का ज्ञान अपनी जगह क़ायम पर था पर इम्तहान में उन्हें अपनी पुर्चियों पर ही भरोसा था.
अव्वल तो उनकी लहीम-शहीम पर्सनैलिटी को देख कर आमतौर पर इनविजलेटर्स ख़ुद ही उनके पास फटकते नहीं थे और अगर कोई हिमाक़ती इन्विजिलेटर उनसे नकल की सामग्री बरामद भी कर लेता था तो वो सारे सबूतों को निगलने से भी नहीं हिचकते थे.
वाजिद भाई की हिम्मत, दिलेरी और हेकड़ी का ही कमाल था कि एम० ए० में न सिर्फ़ वो पास हुए बल्कि उन्हें ज़िंदगी में पहली बार सैकिण्ड डिवीज़न का दीदार भी हो गया.
वाजिद भाई चाहते तो इतिहासकार बन कर इतिहास को एक नई दिशा दे सकते थे पर कुछ मेरे जैसे मित्रों की सलाह मान कर उन्होंने इतिहास की खि़दमत करने के मुबारक काम से किनारा कर लिया और एलएल० बी० में दाखि़ला ले लिया.
इस बार वाजिद भाई ने तो कमाल ही कर दिया.
उन दिनों इम्तहान देने में बड़ी सुविधा थी.
लोगबाग किताबें कन्सल्ट कर के कापियां भर कर उन्हें तीन घंटे के बजाय चार घंटों में जमा कर सकते थे.
वाजिद भाई ने एलएल० बी० की परीक्षा में बाकायदा फ़र्स्ट डिवीज़न हासिल की थी.
बक़ौल वाजिद भाई, उनकी क़ाबिलियत की हँसी उड़ाने वाले हम सभी होस्टाइलों का मुंह काला हो गया था.
इतिहास में सैकिण्ड डिवीज़न एम० ए० और एलएल० बी० की फ़र्स्ट डिवीज़न में डिग्री हासिल करने के बाद वाजिद भाई ने आई० पी० एस० . बनने की ठानी.
उनका निशाना तो पहले से ही ठीक था और पर्सनैलिटी के तो कहने ही क्या !
धर्मेन्द्र तो बेकार में ‘ ही मैन ’ कहलाते थे, दर असल ये खि़ताब तो वाजिद भाई को मिलना चाहिए था.
वाजिद भाई की पुर्चियों का जादू यू० पी० एस० सी० वालों पर नहीं चल
पाया फिर भी वो बस एक नम्बर कम होने की वजह से इन्टरव्यू में नहीं आ पाए.
हमको बाद में पता चला कि परीक्षा में एक नम्बर कम होने से उनका मतलब ये था कि उनसे एक रोल नम्बर आगे वाला लड़का रिटेन टैस्ट के लिए क्वालीफ़ाई कर गया था.
ऐसी परीक्षाओं में दो-तीन बार झक मारने के बाद वाजिद भाई ओवरएज हो गए. अब तो उन्हें अगर कोई कप्तान बना सकता थीं तो सिर्फ़ हमारी प्रधानमन्त्री.
श्रीमती इन्दिरा गांधी को उन्होंने ये ख़त लिखा -
‘मोहतरमा प्रधानमन्त्री आदाब !
आप से गुज़ारिश है कि आप कप्तानी के ओहदे के लिए रिटेन टैस्ट और उम्र की बन्दिश हटा दें क्योंकि इस काम के लिए बहादुरी की और निशानेबाज़ी में माहिर होने की ज़रूरत है न कि किताबी कीड़ा होने की और कमसिनी की.
मैं कप्तानी के ओहदे के लिए हर सूरत से क़ाबिल हूं. मैं अपनी फ़ोटो, बॉक्सिंग और निशानेबाज़ी में मिले सर्टिफि़केट्स की कॉपी भेज रहा हूँ.
सिर्फ़ इन्टरव्यू होना हो तो मेरा सेलेक्शन पक्का ही समझिए, मेरा मशवरा कुबूल हो तो मुझे इत्तिला ज़रूर कीजिएगा.
अपने पते का स्टैम्प लगा लिफ़ाफ़ा इस ख़त के साथ नत्थी कर रहा हूँ.
राजीव भाई, सोनिया भाभी, संजय भाई और मेनका भाभी को मेरा सलाम कहिएगा, बच्चों को मेरी तरफ़ से प्यार दीजिएगा.
ख़त का जवाब ज़रूर दीजिएगा । और हाँ,बिलग्राम या हरदोई घूमने का मन हो तो मुझे इत्तिला कीजियेगा.
आपका वाजिद अली शाह’
सरकारी दफ़्तरों में जहां बड़ी-बड़ी फ़ाइलें गायब हो जाती हैं वहां वाजिद भाई की पाती भी अंतर्ध्यान हो गई पर सारे लखनऊ में उसकी बड़ी चर्चा रही.
हम सब दोस्तों ने वाजिद भाई का दिल रखने के लिए उनको नक्खास के बाज़ार से कप्तान की पोशाक खरीद कर भेंट भी कर दी थी पर वो पता नहीं क्यों बरसों तक प्रधानमन्त्री के जवाब का ही इन्तज़ार करते रहे.
हमारे स्कॉलर वाजिद भाई न तो इतिहासकार बने और न ही कप्तान बन पाए. इसको हम तक़दीर का खेल ही कह सकते हैं.
इसे हम बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के भारत की बदकिस्मती ही कहेंगे कि वो इस आला दिमाग़, बा कमाल, बा हुनर, शखि़्सयत की क़द्र नहीं कर पाया.
शायद इसी वजह से ये मुल्क अब तक पूरी तरह से तरक्की भी नहीं कर पाया है.
काश कि अल्ला मियां का दिल पिघल जाए और वो इस मुल्क की किस्मत संवारने के लिए अपने रूठे हुए क़ाबिल बेटे को उसकी पसंद का कोई ऊंचा ओहदा अता करें.
आमीन, सुम्मा आमीन !
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही मजेदार संस्मरण हमेशा की तरह
सही कहा सर ! शायद इसी वजह से ये मुल्क अब तक पूरी तरह से तरक्की भी नहीं कर पाया है. परन्तु अब तो बहुत से वाजिब भाई बड़ी बड़ी कुर्सियों पर विराजमान हैं...
और मुल्क तरक्की की तरफ भागा जा रहा है 😂🤣
मेरे किस्से की तारीफ़ के लिए शुक्रिया सुधा जी.
हटाएंआपने सही कहा कि इन दिनों वाजिद भाई के बिरादरान ही ऊंची-ऊंची कुर्सियों पर क़ब्ज़ा किए बैठे हैं.
रही तरक्की की बात तो यह तो सही है कि मुल्क आगे बढ़ रहा है पर यह नहीं पता कि किस तरफ़ -
अंधे कुएँ की तरफ़?
या फिर
गहरी खाई की तरफ़?