फ़रहाद की गिनती उन अमर प्रेमियों में होती है जो आज भी वातावरण में प्रेम रोग के कीटाणु फैला रहे हैं. इस बेमिसाल आशिक़ ने अपनी माशूक़ शीरीं के लिए पहाड़ काट कर दूध की नहर निकाल दी थी पर फिर भी वह उसे मिली नहीं. बेचारे मायूस आशिक़ का डबल नुकसान हुआ, उसे माशूक़ भी हासिल नहीं हुआ और सेंत-मेंत में जान भी गई.
इस नए ज़माने के फ़रहाद किसी शीरीं के लिए अपनी जान देने की न तो कुव्वत रखते हैं और न ऐसा करने का कोई इरादा रखते हैं. आज तो तू न सही और सही का दौर है.
अब वाजिद भाई को हम फ़रहाद क्यों कह रहे हैं?
इस राज़ का भी हम खुलासा कर देते हैं. दरअसल वाजिद भाई को जिस लड़की से बेपनाह मुहब्बत थी, उसका नाम शीरीन फ़ातिमा था.
अब शीरीन नाम की लड़की से इश्क़ करने वाला फ़रहाद नहीं कहलाएगा तो क्या लालू प्रसाद कहलाएगा?
दून की हांकने में हमारे वाजिद भाई का जवाब नहीं था. अपने नवाबी ख़ानदान का उन्होंने हम पर ऐसा रौब गांठ रक्खा था कि हम उन्हें या तो वाजिद अली शाह ‘ सानी ’ कहते थे या फिर सिर्फ़ होस्टाइल नवाब (अर्थात हॉस्टल में रहने वाला नवाब). बक़ौल वाजिद भाई चूंकि वो आला ख़ानदान के ख़ूबसूरत नौजवान थे इसलिए आशिक़ मिज़ाज होना उनका पैदायशी हक़ बनता था, इसी तरह उनको जानने वाली सभी ख़ूबसूरत लड़कियों का यह फ़र्ज़ बनता था कि वह उन पर बे-भाव मर मिटें.
अपने क़स्बे में अपने कैसिनोवाई कारनामों को अन्जाम देने के बाद जब वाजिद भाई ने लखनऊ का रुख किया तो वहां की राधाओं और लैलाओं में खलबली मचनी लाज़मी थी.
वाजिद भाई हमें कसमें खा-खा कर बताया करते थे कि उन दिनों लखनऊ की लड़कियों की आपसी लड़ाई का सबब आमतौर पर साहबे आलम (हमारे वाजिद भाई) की नज़रे-इनायत हासिल करने का मुक़ाबला हुआ करता था.
सैकड़ों गोपिकाओं को छोड़ कर हमारे कन्हैया का दिल एक राधा पर आ ही गया. यह राधा एक मेमनुमा, गिट-पिट अंग्रेज़ी झाड़ने वाली, नकचढ़ी, किसी आर्मी ऑफिसर की खूबसूरत बेटी शीरीन फ़ातिमा थी जो कि हमारे ही साथ एम०ए० कर रही थी.
कोई और लड़की होती तो हमारे साहिबे आलम के प्यार की दावत को दौड़ कर कुबूल कर लेती पर हमारी इस हीरोइन की जनरल नॉलेज शायद काफ़ी कमज़ोर थी. उसे इस बात का इल्म ही नहीं था कि साक्षात कलयुगी कन्हैया उस पर आशिक हो गए हैं. वो इस कन्हैया की राधा बनने के मूड में ही नहीं थी, उसकी नज़रों में हमारे वाजिद भाई सड़क-छाप, दिलफेंक और क्लीयरेन्स सेल किस्म के रोमियो थे जिन पर कि उसकी सिर्फ़ जूती मेहरबान हो सकती थी, ख़ुद वो नहीं.
वाजिद भाई के लिए यह तजुर्बा नए किस्म का था. बक़ौल उनके, अब तक हीरोइनें उन पर आंधी की अमियों की तरह टूट-टूट कर गिरा करती थीं पर उनका सर तोड़ने की तमन्ना रखने वाली यह पहली हीरोइन थी.
वाजिद भाई के मरदाना हुस्न पर वह कमबख्त खी-खी कर के हँसती थी तो कभी उनकी चौड़ी नाक और चुन्दी आंखों के जादुई करिश्मों से अनजान हो उनको चंगेज़ खां कहती थी.
धर्मेन्द्र जैसी बॉडी वाले हमारे वाजिद भाई को वो खुलेआम गैण्डा कहती थी. उनकी लच्छेदार नवाबी उर्दू को कम्बख़्त कबाडि़यों की जुबान बताती थी. पर सबसे ज़्यादा हँसी तो वह उनकी अंग्रेज़ी की उड़ाती थी, उसके ख़याल से अंग्रेज़ों ने हिन्दुस्तान छोड़ने का फ़ैसला वाजिद भाई की अंग्रेज़ी सुन कर ही लिया था.
इस बेरहम, बे-शऊर, बे-अक्ल, संग-दिल नाज़नीन को हमारे वाजिद भाई की रूहानी मोहब्बत की कोई क़द्र ही नहीं थी. हम दोस्तों ने वाजिद भाई को समझाया कि इस टेरेटरी में उनकी दाल गलने वाली नहीं है पर वाजिद भाई ने भी जि़द पकड़ ली थी कि वो इस शीरीं का प्यार पा कर ही रहेंगे भले ही इसके लिए उन्हें फ़रहाद की तरह हज़ारों इम्तिहानों से क्यों न गुज़रना पड़े.
शीरीन को क्रिकेट का बहुत शौक था. नवाब पटौदी की तो वो बे-भाव दीवानी थी. हमारे डिपार्टमेन्ट का इंग्लिश डिपार्टमेन्ट से मैच था. वाजिद भाई ने भी टीम में अपना नाम लिखा दिया. उन्हें अपने माशूक के सामने अपनी बैटिंग और बॉलिंग के हुनर दिखाने का मौका मिल रहा था. पर पासा ज़रा सा उल्टा पड़ गया. वाजिद भाई को एक ही ओवर बॉलिंग करने को मिला जिसमें उनकी चार बॉल्स पर चौके लगे और एक सिक्सर. वो बैटिंग करने गए तो उन्होंने पहली ही बॉल पर ज़ोर से अपना बैट घुमाया, बैट तो बॉल पर लगा नहीं पर इसमें उनका बैलेन्स बिगड़ गया और वह स्टम्प्स के ऊपर ही धराशायी हो गए.
धूल में सने लंगड़ाते हुए हमारे वाजिद भाई जब पैविलियन लौट रहे थे तो उनकी माशूका ज़ोरों से ताली बजा रहे थी.
वाजिद भाई अपनी ग़ज़ल गायकी का बड़ा नक्शा मारा करते थे. ख़ुद को तलत मेहमूद और मेंहदी हसन का शागिर्द कहते थे. हमारे डिपार्टमेन्ट के एनुअल फंक्शन में उन्होंने ग़ज़ल गाने का फ़ैसला किया. बहादुरशाह की ग़ज़ल थी-
‘लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में --’
वाजिद भाई ने स्टार्ट तो बहुत अच्छा लिया पर ‘कह दो उन हसरतों से कहीं और जा बसें’ वाली लाइन में ‘ हसरतों ’ पर उनकी सूई अटक गई, और सूई ऐसी अटकी कि कि बेचारे आगे के बोलों तक पहुंच ही नहीं पाए, वहीं स्टेज पर उनका गला पूरी तरह से बैठ गया. शीरीनजी की तालियां उनके टूटे दिल पर लगातार हथौड़े चलाने का काम कर रही थीं.
हॉस्टल में हम दोस्तों की मीटिंग हुई, उसमें तय किया गया कि वाजिद भाई को मिन्नत कर के, जिरह कर के, उनसे दोस्ती तोड़ने की धमकियां दे कर और आखि़र में किसी और लड़की को उनकी मेहबूबा बनवाने का लालच दे कर उन्हें इस वन-वे ट्रैफि़क इश्किया ओखली में सर डालने से रोका जाय मगर वाजिद भाई थे कि अपने इरादे से टस से मस नहीं हो रहे थे. हॉस्टल में सवेरे-सवेरे चाय की चुस्कियां लेते समय हमें वाजिद भाई की हिचकियां सुननी पड़ती थीं. बेचारे इश्क के मारे मॉडर्न फ़रहाद अपनी शीरीं से रोज़ाना कोई न कोई नई ठोकर खा कर आते थे और फिर सुबह से ही दर्द भरे लेकिन बेसुरे नग़में गा-गा कर हमारे कान फाड़ा करते थे.
शीरीन की भूरी आंखों में अपनी तसवीर देखने की उनकी हसरत पता नहीं कब पूरी होने वाली थी. ठोकरें खाते-खाते वाजिद भाई ठोकर-प्रूफ़ हो गए थे. उनके दीवानेपन के साथ उनकी हिम्मत भी बढ़ती जा रही थी. एक दिन उन्होंने शीरीन का रास्ता रोक कर उसे एक स्वरचित शेर सुना ही डाला -
'प्यार ग़र हमसे करोगी, तुम्हारा जीवन सुधर जाएगा,
ख़ुश किस्मत हो कि नवाब दूल्हा बन कर, ख़ुद तुम्हारे घर आएगा.'
हम लोग इस लूले-लंगड़े शेर को सुन कर शायर की हिम्मत पर दाद देने ही वाले थे कि ‘तड़ाक-तड़ाक’ की दो ज़ोरदार आवाज़ें सुन कर हमारा दिल दहल गया. शीरीन की गोरी-गोरी बाहों का जादू वाजिद भाई कबसे अपने गले के इर्द-गिर्द महसूस करना चाहते थे पर उससे पहले ही उनका जादू उनके दोनों गालों ने महसूस कर लिया था.
वाजिद भाई चुपचाप आंखें नीची किए हुए गाल सहला रहे थे पर वह जल्लाद परी अंग्रेज़ी में उन्हें चुन-चुन कर गाली दिए जा रही थी.
हम लोगों ने शहीद-ए-मुहब्बत वाजिद भाई को मैदान-ए-इश्क से गायब कर उनकी जान बचा ली. पर अब दूसरी मुश्किल आन पड़ी थी. वाजिद भाई ने नाकाम आशिक की इज़्ज़त रखने के लिए गले में पत्थर बांध कर, हनुमान सेतु से गोमती में छलांग लगा कर जान देने का फ़ैसला कर लिया था.
हम दोस्तों ने वाजिद भाई की लाख खुशामदें की कि वो अपना फ़ैसला बदल लें, उनके द्वारा लिया गया सैकड़ों रुपया उधार भी एक झटके में माफ़ कर दिया पर सच्चे आशिक ने अपना इरादा बदला नहीं. वाजिद भाई की शहादत करीब ही थी कि मेरे दिमाग में एक तरकीब सूझी, मैंने मैंने अपना प्रस्ताव वाजिद भाई के सामने रक्खा. प्रस्ताव था कि वाजिद भाई को कस्बई नवाब से मैट्रोपोलिटन जैण्टिलमैन बनाकर मोहतरमा शीरीन के सामने पेश किया जाए. हम सबको भरोसा था कि स्मार्ट, फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाले हमारे हीरो पर हीरोइन फि़दा हो कर ही रहेगी. हमारे प्रस्ताव पर पहले तो वाजिद भाई बिदके पर बाद में उसकी गहराई उनके समझ में आ गई. उन्हें खुद को थोड़ा और स्मार्ट बनाने में कोई ऐतराज़ नहीं था. अंग्रेज़ी में ख़ुद के पैदल होने का थोड़ा-थोड़ा इल्म अब उन्हें भी होने लगा था. ‘थैंक्यू’, ‘यस’, ‘ नो’, ‘वैरी गुड’ की चौकड़ी के अलावा उन्हें सौ-पचास अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ और सिखाने पड़े. हज़रत गंज के टॉपमोस्ट टेलर से उनके लिए लेटेस्ट फ़ैशन के कपड़े सिलवाए गए. नाक फुला कर और आंखें मींच कर बात करने के उनके अन्दाज़ पर भी रोक लगा दी गई.
वाजिद भाई के कायाकल्प में उनकी साइकिल, फिर उनका ट्रांजिस्टर और फिर उनका खानदानी कैमरा, सभी को बिकते हुए देखा गया पर वो अब स्मार्ट हो गए थे. उनके पैसों से ही उन्हें क्वालिटी रैस्त्रां में टेबिल मैनर्स भी सिखाए गए थे. हाथों से दाल-चावल खाने वाले वाजिद भाई अब खाते वक़्त कांटे-छुरी का बख़ूबी इस्तेमाल करते हुए देखे जा सकते थे.
मौसम ख़ुशगवार था पर हीरो की हीरोइन से बात कैसे हो, यह प्रॉब्लम अब भी हमारे सामने खड़ी थी. पर उसका हल भी मेरे पास था. शीरीन फ़ातिमा पढ़ाई में ज़रा कुन्द थीं इसलिए उन्हें पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में अक्सर मेरी शरण में आना पड़ता था. वो आये दिन मुझसे मेरे नोट्स प्राप्त करती रहती थीं. इस बार मैंने नोट्स देने की बड़ी तगड़ी फ़ीस मांग ली. फ़ीस यह थी कि शीरीनजी हमारे वाजिद भाई के साथ दोस्ती कर लें.
”छी-छी“, ”हाय-हाय“ और ”वो मोटा गैण्डा?,“ के जुमलों के बाद भी जब मैं नहीं पिघला तो उन्हें मेरे नोट्स की खातिर वाजिद भाई की दोस्ती की शर्त मन्ज़ूर करनी ही पड़ी.
पहली बार हीरो की हीरोइन से बात हुई. हीरोइन बातचीत में कुछ ज़्यादा ही चाशनी घोल रही थी.
”हैलो हाय“, कैसी हैं आप ?“, ”कैसे हैं आप?“ और शेक हैण्ड की फ़ौर्मेलिटीज़ पूरी होने के बाद हम इस नए जोड़े के साथ, दोस्ती का जश्न मनाने के लिए वाजिद भाई के खर्चे पर क्वालिटी रैस्त्रां गए. आइसक्रीम का आर्डर दिया गया. वाजिद भाई अपने टेबिल मैनर्स का मुज़ाहिरा करने को बेताब थे. आइसक्रीम आई तो वाजिद भाई ने बैरे को डांट कर कहा -
”कांटा छुरी तो लाओ.“
वाजिद भाई के लिए हमने क्या-क्या कोशिशें नहीं कीं. एक अच्छे म्यूजि़क मास्टर से उन्हें ग़ज़लें तैयार करवाई गईं. उन्हें स्टेडियम में क्रिकेट कोचिंग के लेसन्स भी दिलवाए पर वाजिद भाई की बेवकूफि़यां परमानेन्ट किस्म की थीं, एक जनम में उनका सफ़ाया नहीं हो सकता था. इधर शीरीन फ़ातिमा भी बड़ी घाघ चीज़ थीं. उन्हें वाजिद भाई को चूना लगाने में बड़ा मज़ा आता था. वाजिद भाई की गज़ल सुनने की फ़ीस उनसे पिक्चर दिखाने की शक्ल में और उनकी नवाबी की डींगे सुनने की फ़ीस सहेलियों की चाण्डाल चौकड़ी के साथ पिकनिक की शक्ल में ली जाया करती थी. इस मुहब्बत को आखि़री अन्जाम तक पहुंचाने से पहले ही वाजिद भाई का दिवाला निकल गया था. उनको उधार मिलना भी बन्द हो गया था. हमारी दिलचस्पी भी इस कहानी में खत्म हो रही थी. सबसे ज़्यादा ख़तरनाक बात तो ये थी कि अब शीरीं भी अपने मॉडर्न फ़रहाद से पीछा छुड़ाना चाहती थीं. फ़रहाद की दूध की नहर सूख चुकी थी. कड़की की हालत में एक दिन वाजिद भाई अपनी मेहबूबा से ही उधार मांग बैठे. जवाब बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. वाजिद भाई को उस दिन मालूम पड़ा कि लड़कियों के शब्दकोश में कैसी-कैसी गालियां हो सकती हैं. वाजिद भाई को भी गुस्सा आ गया. उन्होंने भी –
” बेवफ़ा ये तेरा मुस्कुराना, याद आने के क़ाबिल नहीं है.“
टाइप दो-चार फि़करे कस ही डाले. कहानी का अन्त संगीत से ही हुआ, पहले हीरोइन ने अपने रुदन की सारंगी बजाई फिर हीरो के गाल पर चटाक-तड़ाक तबला बजाना शुरू कर दिया. इस बार बीच-बचाव करने में हमने भी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई.
इस हादसे के कुछ दिनों बाद शीरीन फ़ातिमा ख़ुद आ कर मुझे अपनी शादी का कार्ड देने आई. उसने मुझसे इसरार किया कि मैं अपने साथ उसके फ़रहाद को भी ज़रूर लाऊं.
वो कमबख़्त वाजिद भाई से न जाने कितने जन्मों का बैर इसी जन्म में निकालना चाहती थी.
मैंने फ़रहाद तक जब उसकी शीरीं की इल्तिजा पहुंचाई तो एक बार फिर से इस आशिके-नाकाम से मुझे अपनी जान का खतरा हो गया.
वाजिद भाई ने मुहब्बत में पिट जाने का और मिट जाने का गुस्सा हम दोस्तों पर निकाला. हमको एक हज़ार गालियां देने के बाद उन्होंने यह घोषणा की कि वो छतर मन्जि़ल से कूदकर अपनी जान दे देंगे.
इस बार हमको भी यह सौदा मन्ज़ूर था.
मैंने तो उनकी सम्भावित शहादत के लिए एक मर्सिया भी तैयार कर लिया था पर वाजिद भाई ने हम लोगों को मर कर औब्लाइज नहीं किया. वो बस हॉस्टल में अपना कमरा बन्द कर के बैठ गए.
चार-पांच दिन यूं ही मातम में गुज़र गए.
एक दिन हॉस्टल का चपरासी एक नौजवान, सूरत-कुबूल मोहतरमा और उनके साथ एक पांच-छह साल के प्यारे से बच्चे को लेकर आ गया.
मोहतरता किसी वाजिद अली शाह का पता पूछ रही थीं. हमने उन्हें बताया कि हम वाजिद भाई के ख़ासमख़ास हैं तो उन्होंने हाय-हाय करके रोना शुरू कर दिया. बच्चे को हमारे सामने कर के उन्होंने कहा -
”भैया, इस मासूम की क्या ख़ता है जो तुम इसे यतीम बनाना चाहते हो?“
हमने मोहतरमा की इस बात का मतलब जानना चाहा तो पता लगा कि मोहतरमा वाजिद भाई की बेगम हैं और ये प्यारा सा बच्चा वाजिद भाई का ही है. भाभीजान ने बताया कि वाजिद भाई उनसे तलाक लेना चाहते थे ताकि वो किसी शीरीन फ़ातिमा से शादी करके लखनऊ में ही बस जाएं.
इस ख़बर को सुन कर हम पहले खूब हँसे फिर बाकायदा आगबबूला हो गए.
हमने शीरीन फ़ातिमा के तमाचों की बात गोल कर के बाकी सारी दास्तान भाभीजी को सुना डाली. भाभीजान अपने शौहर की नाकाम मोहब्बत की दास्तान सुन कर बेसाख्ता हँस पड़ीं पर हम सब दोस्त वाजिद भाई की टांगे तोड़ने के लिए बेकरार थे. कम्बख़्त इतनी अच्छी-ख़ासी बीबी और इतने प्यारे बच्चे को छोड़ कर अपनी दौलत लुटवाने के साथ-साथ उस गोरी मेम के तमाचे खा रहा था.
हमने जब वाजिद भाई से भाभीजान और मुन्ने मियां को मिलवाया तो नज़ारा देखने लायक था. बिना किसी सफ़ाई पेश किए, हम लोगों की मौजूदगी की परवाह किए बग़ैर वाजिद भाई अपनी बेगम से और बच्चे से गले मिल कर खूब रोए.
भाभीजान ने वाजिद भाई को माफ़ कर दिया.
इस दास्तान में मेरा सबसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ क्योंकि भाभीजान ने अपने देवरों में सबसे ज़्यादा मुझे ही पसन्द किया,
मुन्ने मियां से भी मेरी पक्की दोस्ती हो गई.
वाजिद भाई ने भी खुश हो कर हम लोगों को फिर से अपने दरबारियों में शामिल कर लिया.
अन्त भला तो सब भला. भाभीजान की लाई हुई मिठाइयों को नेस्तनाबूद कर हम सब ने कि़स्सए-शीरीं-फ़रहाद को हमेशा-हमेशा के लिए दफ़ना दिया.
दून की हांकना? नया मुहावरा है क्या? बाकी वाह वाह :)
जवाब देंहटाएंवाह, वाह के लिए शुक्रिया दोस्त ! वैसे 'दून की हांकना' तो बहुत पुराना मुहावरा है.
हटाएंबहुत बढ़िया किस्सा।
जवाब देंहटाएंमेरे किस्से की तारीफ़ के लिए शुक्रिया ज्योति !
हटाएंकमाल का संस्मरण !!!
जवाब देंहटाएंनिःशब्द ! लाजवाब....
पढते पढ़ते दंग रह गई और अंत तो और भी आश्चर्य से भरा हुआ ।
सर ! आपके पास तो पिटारा है और आपकी लेखनी को तो क्या ही कहने !
बस सादर नमन 🙏🙏
प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी.
हटाएंवैसे इस संस्मरणरूपी दाल में मैंने अपनी कल्पना का तड़का भी लगाया है.