‘उसूलों पर जहाँ आंच आए, टकराना ज़रूरी है,
जो ज़िन्दा हो, तो फिर, ज़िन्दा नज़र आना, ज़रूरी है.’
वसीम बरेलवी
वसीम बरेलवी के इस मकबूल शेर से मुझे एक पुराना किस्सा याद आ रहा है लेकिन इस किस्से में उसूल ज़रा मुख्तलिफ़ किस्म के हैं -
अपने बचपन में हम सबने प्रेमचन्द की कहानी ‘नमक का दरोगा’ पढ़ी होगी. क्या उसूल थे हमारे नायक के ! सेठ जी की रुपयों की थैलियाँ भी उसके उसूलों को हिला नहीं पाई थीं ! लेकिन इन उसूलों पर अडिग रहने की कीमत हमारे नायक को अपनी नौकरी से हाथ धोकर चुकानी पड़ी थी. प्रेमचंद की इस कहानी को पढ़कर हमारी इस कहानी के नायक दरोगा मकबूल हुसेन ने भी अपने उसूलों पर अडिग रहने की कसम खाई थी लेकिन उनके ये उसूल उस अव्यावहारिक और अपने पाँव पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारने वाले नमक के दरोगा के उसूलों से बिल्कुल जुदा थे.
भारत को आज़ाद हुए बहुत वक़्त नहीं गुज़रा था. दरोगा मकबूल हुसेन जिला मुबारकपुर के एक मलाईदार थाने के इंचार्ज थे. यह थाना चुंगी नाक़े के बहुत क़रीब था और इस थाने में भांति-भांति के अपराधियों के अलावा यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाने वाले ट्रक भी थोक के भाव लाए जाते थे.
मकबूल हुसेन अपने उसूलों के बड़े पक्के थे. उनके बारे में मशहूर था कि अगर उनके वालिद भी कानून को तोड़ते हुए उनके जाल में फंस जाएं तो वो जुर्म के हिसाब से रिश्वत के अपने फ़िक्स्ड रेट से एक पैसा भी कम लेकर उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होंगे. उनके बारे में यह भी मशहूर था कि वो पैसा लेकर जेबकतरे को ही क्या, चौराहे पर दिन-दहाड़े किसी का खून करने वाले को भी बाइज्ज़त और बेदाग़ छोड़ सकते हैं.
एक बार लड़की छेड़ते हुए किसी नौजवान को पुलिस ने धर दबोचा. उस नौजवान को कोतवाली लाकर लॉक-अप में बंद कर दिया गया. नौजवान के घर संदेसा भेजा गया. कोतवाली में कुछ देर बाद दरोगा मकबूल हुसेन आए और उन्होंने कोतवाल साहब को सलाम करते हुए उनके कान में बताया कि मनचला नौजवान उनका सगा भतीजा है. कोतवाल साहब ने यह सुनते ही हुक्म दिया -
'इस नौजवान को छोड़ दो. यह तो मकबूल हुसेन का भतीजा है.'
नौजवान को फ़ौरन छोड़ दिया गया. दरोगा मकबूल हुसेन ने कोतवाल को शुक्रिया कहते हुए पचास रूपये उनकी खिदमत में पेश किए.'
कोतवाल साहब ने रूपये लौटते हुए कहा -
'क्या बात करते हो मकबूल हुसेन? हम अपनों से पैसा लेंगे?'
मकबूल हुसेन ने कोतवाल साहब की जेब में ज़बरदस्ती रूपये ठूंसते हुए जवाब दिया -
हुज़ूर, ये तो उसूलों वाली बात है. लड़की छेड़ने वाले को बेदाग़ छोड़ने का रेट पचास रूपया है, उसे आप मेरी वजह से छोड़ेंगे तो कल आप किसी कातिल को छोड़ने को मुझसे कहेंगे तो उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा. आपका आज तो पचास रूपये का नुक्सान होगा और मेरा कल नुक्सान होगा पूरे एक हज़ार का. आप भी उसूल पर क़ायम रहें और मैं भी अपने उसूल पर क़ायम रहूँ, इसी में हम दोनों की भलाई है.' .
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एक बार की बात है कि चुंगी नाक़े पर एक ट्रक पकड़ा गया जिसमें कि बिना परमिट लोहे की सरिया ले जाई जा रही थी. यह ट्रक ओवर लोडेड भी था. नाक़े पर ट्रक रोके जाने पर ट्रक ड्राइवर ने अपने मालिक को वहीं बुलवा लिया था जिसने नाक़े के मुलाज़िमों के साथ बहुत बदतमीज़ी की थी.
जब यह मामला दरोगा मकबूल हुसेन सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे पहले ट्रक ड्राइवर के चार डंडे रसीद किए फिर हिसाब लगाकर उस ट्रक के मालिक से कहा –
‘जनाब, आपने तीन जगह कानून तोड़ा है. सबसे पहले आप का ट्रक बिना परमिट लोहे की सरिया ले जा रहा था. उसका फ़ाइन होता है दो सौ रुपया लेकिन हम इस जुर्म का आप से सिर्फ़ पचास रुपया लेंगे.
दूसरा जुर्म आपका यह है कि आपका ट्रक ओवर-लोडेड पाया गया. इसका जुर्माना भी होता है दो सौ रुपया लेकिन इसके लिए भी हम आपसे पचास रुपया ही वसूलेंगे.
अब रहा आपका तीसरा जुर्म. आपके ड्राइवर ने और आपने, चुंगी-नाक़े के मुलाज़िमों को उनकी ड्यूटी करने से रोका और उनके साथ बदतमीज़ी की. इसके लिए तो आपके ड्राइवर को और आपको फ़ौरन गिरफ़्तार करना होगा. अगर आप इस गुनाहे-अज़ीम से साफ़ बचना चाहते हैं तो इसके बदले में आपको सौ रूपये और ढीले करने होंगे.
तो कुल मिलाकर आप हमको दो सौ रूपये नज़र कीजिए और इस ट्रक को जहाँ चाहें, वहां आराम से ले जाइए.’
आज से सत्तर साल पहले दो सौ रूपये की रकम बहुत बड़ी मानी जाती थी. लेकिन इस डिमांड को सुनकर भी ट्रक मालिक की पेशानी पर एक बल भी नहीं पड़ा. उसने हिक़ारत के साथ दरोगा मकबूल हुसेन को देखा और फिर उन से पूछा –
‘दरोगा जी, आप अपनी औक़ात में ही रहिए. आप नहीं जानते कि मैं कौन हूँ.
दरोगा जी ने ताना मारते हुए कहा –
‘मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि आप पंडित नेहरु तो नहीं हैं.’
ट्रक मालिक ने अपनी रौबीली आवाज़ में दरोगा जी से पूछा –
‘आपने रफ़ीक़ कुरैशी साहब का नाम सुना है?’
(मुबारकपुर के निवासी रफ़ीक़ कुरैशी साहब प्रदेश के गृह-मंत्री थे)
दरोगा मकबूल हुसेन ने फिर अपने पुराने स्टाइल में जवाब दिया –
‘जनाब, आप रफ़ीक़ कुरैशी साहब भी नहीं हैं. मैंने कुरैशी साहब को कई बार देखा है.’
इस बार ट्रक के मालिक ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए घोषणा की –
‘मैं रफ़ीक़ कुरैशी साहब का दामाद हूँ. अब बताइए कि मुझे कुल कितना जुर्माना भरना है?’
दरोगा मकबूल हुसेन यह घोषणा सुनते ही अपनी कुर्सी से उठकर एकदम सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए.
उन्होंने अपनी ज़ुबान में चाशनी घोलते हुए कहा –
‘अपनी गुस्ताख़ी के लिए मैं आप से माफ़ी चाहता हूँ. आप तो वीआईपी हैं और वीआईपी लोगों से हमारा रेट आम लोगों से अलग होता है. आपने चुंगी नाके के मुलाज़िमों के अलावा थाना-इंचार्ज को भी उसकी ड्यूटी करने से रोका है. अब या तो इन सबका एक हज़ार रुपया जुर्माना भरिए या फिर हमको पांच सौ रूपये नज़र कीजिए.’
ट्रक के मालिक की आँखों से चिंगारियां फूटने लगीं. उसने चिल्लाते हुए दरोगा मकबूल हुसेन से कहा –
‘दरोगा जी मैं या तो तुम्हें सस्पेंड करवा दूंगा या तुम्हारी अगली पोस्टिंग काला पानी करवा दूंगा.’
दरोगा मकबूल हुसेन ने कुर्सी पर दुबारा बैठते हुए जवाब दिया –
‘हुज़ूर, अगर एक बार मैंने प्रेस वालों को बुलवा लिया तो आपको यह मामला संभालना बहुत मुश्किल हो जाएगा और कुरैशी साहब की खामख्वाह बदनामी होगी वो अलग !’
ट्रक के मालिक ने अपने ससुर कुरैशी साहब को फ़ोन लगवाया लेकिन वहां से उन्हें यही हुक्म मिला कि वो जैसे भी हो सके, इस मामले को बिना तूल दिए फ़ौरन रफ़ा-दफ़ा करें.
कुरैशी साहब के दामाद समझ गए थे कि रिश्वत के मामले में इस उसूलों वाले दरोगा से जीतना बहुत मुश्किल है. उन्होंने पलक झपकते ही पांच सौ रूपये दरोगा जी को नज़र किए और अपना ट्रक बिना किसी लिखा-पढ़ी के छुड़वा लिया.