मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

वीर सावरकर को भारत रत्न दिए जाने के औचित्य-अनौचित्य पर बहस

समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है.
'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है' की हुंकार भरने वाले लोकमान्य तिलक, मांडले से लौटकर पहले जितने जोशीले नहीं रह जाते हैं.
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ' लिखने वाले अल्लामा इक़बाल, पाकिस्तान की मांग करने लगते हैं.
1916 के लखनऊ समझौते में हिन्दू-मुस्लिम एकता को महत्त्व देने वाले जिन्ना, मुस्लिम साप्रदायिकता का नेतृत्व करने लगते हैं और अंततः पाकिस्तान लेकर ही मानते हैं.
क्रांतिकारी अरबिंदो घोष, महर्षि हो जाते हैं.
देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गाँधी के अहिंसक आन्दोलन में भाग लेने वाले सुभाष, आज़ाद हिन्द फ़ौज के सुप्रीम कमांडर बन जाते हैं
आज़ादी की लड़ाई में बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने वाले अधिकतर नेता, देश के आज़ाद होते ही कुर्सी हथियाने की दौड़ में एक-दूसरे से होड़ लगाने लगते हैं.
वीर सावरकर ने 1857 के विद्रोह को सैनिक विद्रोह बताए जाने का विरोध करते हुए उसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में प्रतिष्ठित कर के राष्ट्रीय आन्दोलन को सशक्त किया था. काले पानी की सज़ा और अंग्रेज़ों की क़ैद से भाग निकलने की उनकी हैरतअंगेज़ कोशिश भी उनकी दिलेरी का प्रमाण है.
लेकिन अगर बाद में सावरकर उतने वीर नहीं रहे तो कांग्रेस वाले इतना शोर क्यों मचाते हैं? क्या उन्होंने अपने गिरेबान में झाँक कर देखा है?
सावरकर को गाँधी जी की हत्या की साज़िश में शामिल होने या न होने की बात पर उन्हें भारत रत्न दिया जाना या न दिया जाना तो समझ में आता है लेकिन सावरकर के माफ़ीनामे को लेकर जो शोर मचाया जाता है. उसकी पृष्ठभूमि जानना बहुत ज़रूरी है. सावरकर यह मान रहे थे कि वो जेल में पड़े-पड़े देश के लिए कुछ भी नहीं कर पाएंगे. उन्होंने अपने माफ़ीेनामे के पीछे अपना उद्देश्य यह बताया था कि वो राजनीतिक गतिविधयों से सन्यास लेकर भारत-जागरण अभियान को सफल बनाएँगे. 1924 में जेल से छूटने के बाद वो सक्रिय य राजनीति से दूर ही रहे. लेकिन उनके माफ़ीनामे को लेकर उन्हें कायर सिद्ध करना किसी को शोभा नहीं देता है. 

यह बात सबको पता नहीं है कि शिवाजी (तब तक वो छत्रपति नहीं हुए थे) ने भी आगरे के किले में क़ैद किए जाने के बाद औरंगज़ेब को माफ़ीनामा भेज कर उस से रिहाई की प्रार्थना की थी.

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (18-12-2019) को    "आओ बोयें कल के लिये आज कुछ इतिहास"   (चर्चा अंक-3553)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    1. 'आओ बोयें कल के लिए कुछ आज का इतिहास' (चर्चा अंक - 3553) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिएबहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.

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  2. इसीलिये इतिहास बोने की जरूरत की बात शुरु की गयी है। लिखने में कंजूसी नहीं की है पर क्या करें चार लाईन फिर भी नहीं हो रही हैं। असल में इतिहास में कमजोर रहे और भूगोल से शादी कर बैठे समझ रहे होंगे आप भी :)

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    1. भूगोल से शादी करना, तुम्हारी ज़िंदगी का सबसे अच्छा कारनामा है.
      तुम तो क्रान्ति के बीज बो रहे हो इसलिए तुम इतिहास में कमज़ोर होते हुए भी समकालीन इतिहास को मज़बूती प्रदान कर रहे हो.

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  3. गोपेश भाई, इसलिए ही कहा जाता हैं कि सच्चाई जाने बिना किसी भी भी दोषारोपण नही करना चाहिए!

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  4. ज्योति जी, सच्चाई तो यह है कि वीर सावरकर ने ख़ुद अपने संस्मरण में यह स्वीकार किया है कि उन्होंने अंग्रेज़ सरकार को इसलिए माफ़ीनामा भेजा था ताकि वह राजनीतिक आन्दोलन को त्याग कर जन-जागरण अभियान में अपना समय व्यतीत कर सकें. महान इतिहासकार आर. सी मजूमदार ने 1975 में दस्तावेज़ एकत्र करते समय सावरकर का माफ़ीनामा प्राप्त कर उसे प्रकाशित भी किया था.
    मेरा कहना तो सिर्फ़ यह था कि सावरकर ने अपने प्रारंभिक जीवन में जो देशभक्ति और वीरता दिखाई थी, उसे हमको उनके बाद के आचरण के साथ जोड़ने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि समय के साथ किसी की भी विचारधारा बदल सकती है, उसका व्यक्तित्व बदल सकता है, उसके लक्ष्य बदल सकते हैं.

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  5. सही कहा जैसवाल जी, कांग्रेस को कौन समझाए क‍ि जनकल्याण और 'प्रेम' स‍िखाने आए भगवान कृष्ण को भी 'महाभारत' के ल‍िए सज्ज होना पड़ा था फ‍िर ये तो सावरकर थे । जीव‍ित रह कर ही युद्ध जीता जा सकता है मरने के बाद नहीं

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    1. अलकनंदा जी, मैंने वीर सावरकर को क्लीन चिट क़तई नहीं दी है. भगत सिंह, फांसी की सज़ा मिलने के बाद याचिका देते हैं कि उन्हें फांसी न देकर गोली से मारा जाए और सावरकर अपनी याचिकाओं में यह कहते हैं कि - 'अब मैं आगे से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफ़ादार रहूँगा.'
      दो कैदियों में आपने फ़र्क देख लिया. लेकिन मेरा कहना यह है कि अपनी युवावस्था में सावरकर ने राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था इसलिए बाद में उनके द्वारा दिए गए माफ़ीनामे को हम भुला सकते हैं.
      भगवान श्री कृष्ण से सावरकर की तुलना कर के आप बिलकुल गलत कर रही हैं.

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