मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

सिर्फ़ रोएँ और कोसें कि कुछ करें भी?



सिर्फ़ रोएं और कोसें कि कुछ करें भी? - 
हैदराबाद में प्रियंका रेड्डी के साथ जो हुआ, वह किसी और लड़की के साथ न हो, इसके लिए सरकार की, पुलिस की, प्रशासन की और समाज की क्या रण-नीति है? ब्लेम-गेम तो अब तक बहुत खेला जा चुका है पर इस क्षेत्र में ठोस क़दम, क्या-क्या उठाए गए हैं? किसी भी क्षेत्र के आवारा और बदनाम लोगों की गतिविधियों पर नज़र बनाए रखने के लिए स्थानीय पुलिस क्या-क्या उपाय करती है? सचल-पुलिस दल अँधेरा होने पर कहाँ-कहाँ और कब-कब गश्त लगाते हैं? किसी लड़की के लापता होने की सूचना मिलने पर या उसके साथ किसी हादसे की सूचना मिलने पर पुलिस कितने समय में कार्रवाही करती है? अपेक्षाकृत सुनसान इलाक़ों में सुरक्षा के क्या-क्या प्रबंध किए गए हैं? सी. सी. टीवी की कहाँ-कहाँ व्यवस्था है और वो कहाँ-कहाँ चालू हालत में हैं? इन सवालों के संतोष-जनक जवाब कोई नहीं दे सकता क्योंकि इस दिशा में कोई सार्थक और ठोस क़दम कभी उठाया ही नहीं गया है. और फिर ऐसी व्यवस्था अगर की भी गयी तो वह केवल महानगरों तक ही सीमित रहेगी. छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में महिला-सुरक्षा तो तब भी राम-भरोसे रहेगी.
ऐसे हादसे फिर न हों और अगर कभी हो भी जाएं तो ऐसा अपराध करने वाला कोई भी दरिंदा कानून के शिकंजे से बच न पाए, इसके लिए स्थानीय पुलिस की और सरकार की ज़िम्मेदारी तो निश्चित हो ही जानी चाहिए.
शेरशाह केवल पांच साल दिल्ली के तख़्त पर बैठा था उसके ज़माने में वाक़ई शेर और बकरी एक ही घाट से पानी पी सकते थे. शेरशाह का शासन-प्रबंध ऐसा था कि अपराध होने की इक्का-दुक्का घटनाएँ ही हो सकती थीं और अगर कहीं कोई आपराधिक घटना हो गयी तो स्थानीय अधिकारी को इसका जवाब देना होता था कि ऐसा क्यूं और कैसे हो गया, फिर उसके बाद एक समय-सीमा में ही उस को अपराधी को पकड़ना होता था और अगर अपराधी उस समय-सीमा में पकड़ा नहीं जा सकता था तो अपराधी की सज़ा उस अधिकारी को भुगतनी पड़ती थी. शेरशाह के ज़माने का एक किस्सा है –
एक सुनसान इलाक़े में, शाम के धुंधलके में, एक बुढ़िया अपने सर पर एक खुली टोकरी में, जेवर लेकर, पैदल जा रही थी. बुढ़िया को देखकर आने-जाने वाले राहगीर उस से दूर भाग रहे थे. एक परदेसी ने यह नज़ारा देखा तो उसने बुढ़िया से दूर भागते एक आदमी से पूछा –
भाई ! ऐसे सुनसान इलाक़े में, ऐसे खुलेआम जेवर लेकर जाने में, लुटने का खतरा तो इस बुढ़िया को है, पर तुम लोग क्यों भाग रहे हो?
उस आदमी ने भागते-भागते जवाब दिया –
बुढ़िया को कोई लूटेगा या नहीं यह तो मैं नहीं जानता. लेकिन अगर उसके साथ कोई वारदात हो गयी तो बादशाह किसी भी ऐसे शख्स को नहीं छोड़ेगा जो वारदात के वक़्त बुढ़िया के आस-पास भी था.
क्या भारत के इतिहास में शेरशाह जैसा कर्मठ योग्य और समर्पित शासक में फिर होगा? क्या वह समय आएगा जब कोई आम लड़की पुलिस वालों पर भरोसा कर के सुनसान इलाक़ों में भी खुद को सुरक्षित अनुभव करेगी? आज तो हालत यह है कि लड़कियां पुलिस वालों से भी उतना ही सशंकित रहती हैं, जितना कि गुंडों से.
हमको हर क्षेत्र में अपराध को रोकने की समुचित व्यवस्था करनी होगी. जिस दिन प्रियंका के साथ हुए हादसे जैसी किसी वारदात की ज़िम्मेदारी  स्थानीय पुलिस, स्थानीय प्रशासन, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री, लेफ्टिनेंट गवेर्नर  और प्रधानमंत्री की हो जाएगी, उस दिन से ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति स्वतः रुक जाएगी.
अख़बारों में फ़ेसबुक पर, टीवी पर जन-प्रतिनिधि सभाओं में जन-सभाओं में कैंडल-मार्चों में धरनों में और आन्दोलनों में सिर्फ़ नौटंकियाँ हो रही हैं. हर कोई इस हादसे के बहाने लाइम-लाइट में आना चाहता है, सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहता है. कितने ही लोग इस हादसे को सियासती मोड़ दे रहे हैं और कितने ही लोग इसे मजहबी मोड़ दे रहे हैं. हमको अपराधियों के साथ ऐसी  रुग्ण-मानसिकता वाले अवसरवादियों को भी बे-नकाब करना होगा.
एक ज़माना था जब लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल-हादसे के बाद अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी मानते हुए रेल-मंत्री के पद से त्याग-पत्र दे दिया था. तेलंगाना में प्रियंका रेड्डी के साथ हुए हादसे की क्या किसी ने भी ज़िम्मेदारी ली है? क्या किसी ने भी त्याग-पत्र दिया है?
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो गीत सुनकर हमारी आँखें भर आती हैं पर अब हमको –
अगले जनम मोहे बिटिया कीजो तो भारत में मोहे जनम न दीजो.’
गीत सुनकर शर्मिंदा न होना पड़े. इसके लिए हमको जी-जान से जुट जाना चाहिए. कभी तो हम महाराष्ट्र की उठा-पटक, झारखंड के चुनाव, राम जन्म-भूमि, तथाकथित गो-तस्करों की मॉब-लिंचिंग, बुलेट ट्रेन और पाकिस्तान निंदा-पुराण से हटकर, अपनी माँ, बहन, बहू-बेटियों की सुरक्षा और उनके सम्मान की रक्षा के बारे में सोचें ! कभी तो हम मासूम कलियों को बेख़ौफ़ खिलने दें और महकने दें !                   

9 टिप्‍पणियां:

  1. "फिर इस देश ना आना लाडो।"
    शेरशाह जैसे शाशक होना आज कोरी कल्पना है इस देश में।
    सब राजनीति करना चाहते हैं
    जैसे गिद्ध लाश पर बैठ कर पार्टी उड़ाते हैं।

    स्त्री की फिक्र हमें कभी थी ही नहीं
    हमें मंदिर मस्जिद के पत्थरों की फिक्र थी।
    हमने हमारी संवेदना पत्थरों के गर्भगृह से पैदा की है
    और जिसने ये पत्थर बनाये थे उसकी कृति का अपमान है
    उसकी सम्वेदना को ठेस मात्र पहुंचाई है।
    सटीक तंज ठोका है
    सही सवालिया निशान घोंप दिए है कलेजे में।

    पधारें- 👉👉 मेरा शुरुआती इतिहास

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    1. सही कहा तुमने रोहितास घोरेला. हमारे हुक्मरान 'फ़र्ज़' लब्ज़ से नावाकिफ़ हैं लेकिन अपने हुकूक़ की उन्हें ज़रुरत से ज़्यादा जानकारी है. हमारे समाज में स्त्री को या तो उपभोग की वस्तु माना जाता है या फिर उसे पूजने का ढोंग किया जाता है.
      मैंने इस आलेख में कोई तंज़ नहीं किया है सिर्फ़ कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं और कुछ व्यावहारिक उपाय सुझाए हैं.
      तुम्हारे ब्लॉग पर जल्द जाऊंगा.

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  2. 'आप अच्छा-बुरा कर्म तो जान लो' (चर्चा अंक - 3539) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.

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  3. इस खेल में वोट और कुर्सी नहीं है इसलिये कुछ नहीं होना है।

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  4. सुशील बाबू, इस खेल को वोट के लिए तो मोड़ दिया गया है. अब नेताओं द्वारा धरने का नाटक हो रहा है. किसी ऊंची कुर्सी वाले को ऐसे हादसे की वजह से अपनी कुर्सी छोडनी पड़े तो फिर इसे कुर्सी से भी जोड़ा जा सकेगा. पर दरिंदों को फिक्र करने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि यह शेरशाह का दौर नहीं है बल्कि किसी और शाह का दौर है.

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  5. स्त्री विमर्श से क्या फायदा होगा?
    स्त्री जब तक वस्तु और भोग्या के दृष्टिकोण से देखी जायेगी
    तब तक सिर्फ़ उसे अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल किया जायेगा।
    सर आपका लेखन सदैव चिंतन दे जाता है।
    प्रणाम सर।

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    1. श्वेता, स्त्री को इस 'भोग्या' की छवि से उबरने के लिए स्वयं त्रिशूल धारण करना होगा. रोज़-रोज़ राममोहन रॉय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महर्षि कर्वे पैदा नहीं होते. हाँ, कुलदीप सेंगर, साक्षी महाराज, राम-रहीम, आसाराम और चिन्मयानन्द रोज़ जनम लेते हैं.

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  6. चिंतनपरक लेख सर ,ये घटनाएं बार बार होती हैं और अपने पीछे ढेरों सवाल छोड़ जाती हैं पर जबाब कही से नहीं मिलता और ना ही समाधान ,सादर नमन आपको

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    1. धन्यवाद कामिनी जी ! ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए हमको बलात्कार को सिर्फ़ एक लड़की के साथ हुआ हादसा नहीं, बल्कि समाज के साथ हुआ, हमारी संस्कृति के साथ हुआ और हमारी राष्ट्रीय छवि के साथ हुआ हादसा मानना चाहिए. तभी हमारा सोया हुआ ज़मीर, हमारे सोए हुए शासक, हमारी सोई हुई पुलिस, हमारी ऊंघती हुई न्याय-व्यवस्था, ये सब जाग जाएंगे और मिलकर इसका समाधान निकालेंगे.

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