दीर्घ काल से विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाना भारतीय इतिहास का एक कलंकपूर्ण अध्याय है. सती प्रथा को एक विधवा का धार्मिक कर्तव्य माना जाना तो पुरुष-प्रधान समाज की पाशविकता का सबसे बड़ा प्रमाण है.
ब्रिटिश शासन में स्त्री-जीवन से जुड़ी हमारी सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के उन्मूलन के अनेक प्रयास किए गए.
1829 में राजा राममोहन रॉय और उदार ब्रिटिश अधिकारियों के प्रयास से सती प्रथा का उन्मूलन हुआ और 1856 में मुख्यतः ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से विडो रिेमैरिज एक्ट पारित हुआ किन्तु समाज में विधवाएं अभी भी अभिशप्त जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य की जाती रहीं.
एक विधवा का उल्लेख - मनहूस, अभागी. पापन, 'खसमा नूं खानी' जैसी पीड़ादायक गालियों के साथ किया जाता रहा और अभाव, अपमान के साथ एकाकी जीवन बिताने के लिए उसे विवश किया जाता रहा.
घुटन भरी ज़िंदगी बिताने के अलावा एक विधवा के कोई अधिकार नहीं थे.
विधवाओं के साथ किया जाने वाला अमानुषिक व्यवहार किसी भी सहृदय और संवेदनशील व्यक्ति को व्यथित कर सकता था और साथ ही ऐसी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए उसे प्रेरित कर सकता था.
‘मुनाजात-ए-बेवा’ (एक विधवा की विनती) विधवाओं के प्रति मानवीय व्यवहार किए जाने की आवश्यकता पर बल देती है.
1884 में अल्ताफ़ हुसेन हाली द्वारा कही गयी इस नज़्म का नारी उत्थान के क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्व है.
इस नज़्म की उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें शायर ने हिन्दू समाज की सबसे दुखियारी, विपदा की मारी, बाल-विधवाओं की दुर्दशा का ऐसा जीवंत और मार्मिक चित्रण किया है कि किसी भी संवेदनशील-सहृदय पाठक की आँखों से बर्बस ही आंसुओं की बरसात होने लगती है.
हाली अपनी इस नज़्म में विधवाओं के पुनर्वास की या विधवा-विवाह की कोई बात नहीं करते हैं किन्तु समाज से वो यह प्रार्थना अवश्य करते हैं कि उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए, उन्हें अपनी सभी इच्छाओं, कामनाओं को कुचलने लिए विवश न किया जाए, उन्हें दुनिया भर के सुखों से सर्वथा वंचित न रखा जाए, उनके अपने सगे एकदम से उनके पराए न हो जाएं, उन्हें दाने-दाने के लिए किसी दूसरे का मोहताज न बनाया जाए और उन्हें मनहूस अथवा अभागी कह कर एक निर्वासिनी का जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य न किया जाए.
इस नज़्म में हाली बाल-विवाह की प्रथा से उत्पन्न होने वाली अनेक बुराइयों पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं.
हाली की यह नज़्म अपने अंतिम चरण में मैके और ससुराल, दोनों से ही ठुकराई हुई विधवाओं की स्थिति को नैराश्यपूर्ण और दुखद बताते हुए विधवाओं के एकमात्र सहारे के रूप में ईश्वर-भक्ति की महत्ता दर्शाती है.
मुनाजात-ए-बेवा (एक विधवा की विनती)
ऐ मेरे ज़ोर और क़ुदरत वाले ( हे शक्तिदाता ! हे सृष्टिकर्ता !)
हिक़मत और हुकूमत वाले (हे ज्ञानी ! हे हम पर शासन करने वाले !)
रो नहीं सकती तंग हूँ यां तक (मैं यहाँ तक परेशान हूँ कि रो भी नहीं सकतीँ)
पायंते कल हैं और न सिरहाने
गोर (कब्र) है सूनी सेज से बेहतर
थक गयी मैं दुःख सहते-सहते
किस से कहूं किस तौर से काटीं
जिसको हो मेरी जान की परवा
इसमें शिकायत क्या है पराई
चैन गर अपने बांटे में आता
क्यूं पड़ते हम गैर के पाले
मैं ही अकेली नहीं हूँ दुखिया
पद्मों फुकीं इसी मरघट में
बालियाँ इक इक जात की लाखों
ब्याहियाँ इक इक रात की लाखों
ब्याह से अंजान और मंगनी से
बने से वाकिफ़ और न बनी से (दूल्हा-दुल्हन, दोनों, एक-दूसरे से अनभिज्ञ)
घुड़क घुड़क कर जिनको रुलाते
जिनको न थी शादी की तमन्ना
जिनको न आपे की थी खबर कुछ
और न रंडापे की थी खबर कुछ
भली से वाकिफ़ थीं न बुरी से
होश जिन्हें था रात न दिन का
गुड़ियों का सा ब्याह था जिनका
दो दो दिन रह कर के सुहागन
दूल्हा ने जाना न दुल्हन को
दुल्हन ने न पहचाना सजन को
मुफ़्त लगा ली ब्याह की तोहमत
खर (धूल-मिट्टी) सा बचपन का ये रंडापा
चोट न जिनके दिल को लगी हो
वो क्या जानें दिल की लगी को
अब न मुझे कुछ रंज की परवा
और न आसाइश (सुख) की तमन्ना
चाहती हूँ इक तेरी मुहब्बत
और न रखती कोई हाजत (अभिलाषा)
घूँट इक ऐसा मुझको पिला दे
तेरे सिवा जो सबको भुला दे
फ़िक़र नहीं कुछ अच्छे बुरे की
तेरे सिवा धुन हो न किसी की
वां (वहां) से अकेली आई हूँ जैसे
वैसे ही यां (यहाँ) से जाऊं अकेली
जी से निशाँ प्यारों का मिटा दूं
प्यार के मुंह को आग लगा दूं
तू ही हो दिल में तू ही ज़ुबां पर