सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

मुनाजात-ए-बेवा (एक विधवा की विनती)

दीर्घ काल से विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाना भारतीय इतिहास का एक कलंकपूर्ण अध्याय है. सती प्रथा को एक विधवा का धार्मिक कर्तव्य माना जाना तो पुरुष-प्रधान समाज की पाशविकता का सबसे बड़ा प्रमाण है.
ब्रिटिश शासन में स्त्री-जीवन से जुड़ी हमारी सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के उन्मूलन के अनेक प्रयास किए गए.
1829 में राजा राममोहन रॉय और उदार ब्रिटिश अधिकारियों के प्रयास से सती प्रथा का उन्मूलन हुआ और 1856 में मुख्यतः ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से विडो रिेमैरिज एक्ट पारित हुआ किन्तु समाज में विधवाएं अभी भी अभिशप्त जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य की जाती रहीं.
एक विधवा का उल्लेख - मनहूस, अभागी. पापन, 'खसमा नूं खानी' जैसी पीड़ादायक गालियों के साथ किया जाता रहा और अभाव, अपमान के साथ एकाकी जीवन बिताने के लिए उसे विवश किया जाता रहा.
घुटन भरी ज़िंदगी बिताने के अलावा एक विधवा के कोई अधिकार नहीं थे.
विधवाओं के साथ किया जाने वाला अमानुषिक व्यवहार किसी भी सहृदय और संवेदनशील व्यक्ति को व्यथित कर सकता था और साथ ही ऐसी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए उसे प्रेरित कर सकता था.
‘मुनाजात-ए-बेवा’ (एक विधवा की विनती) विधवाओं के प्रति मानवीय व्यवहार किए जाने की आवश्यकता पर बल देती है.
1884 में अल्ताफ़ हुसेन हाली द्वारा कही गयी इस नज़्म का नारी उत्थान के क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्व है.
इस नज़्म की उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें शायर ने हिन्दू समाज की सबसे दुखियारी, विपदा की मारी, बाल-विधवाओं की दुर्दशा का ऐसा जीवंत और मार्मिक चित्रण किया है कि किसी भी संवेदनशील-सहृदय पाठक की आँखों से बर्बस ही आंसुओं की बरसात होने लगती है.
हाली अपनी इस नज़्म में विधवाओं के पुनर्वास की या विधवा-विवाह की कोई बात नहीं करते हैं किन्तु समाज से वो यह प्रार्थना अवश्य करते हैं कि उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए, उन्हें अपनी सभी इच्छाओं, कामनाओं को कुचलने लिए विवश न किया जाए, उन्हें दुनिया भर के सुखों से सर्वथा वंचित न रखा जाए, उनके अपने सगे एकदम से उनके पराए न हो जाएं, उन्हें दाने-दाने के लिए किसी दूसरे का मोहताज न बनाया जाए और उन्हें मनहूस अथवा अभागी कह कर एक निर्वासिनी का जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य न किया जाए.
इस नज़्म में हाली बाल-विवाह की प्रथा से उत्पन्न होने वाली अनेक बुराइयों पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं.
हाली की यह नज़्म अपने अंतिम चरण में मैके और ससुराल, दोनों से ही ठुकराई हुई विधवाओं की स्थिति को नैराश्यपूर्ण और दुखद बताते हुए विधवाओं के एकमात्र सहारे के रूप में ईश्वर-भक्ति की महत्ता दर्शाती है.
मुनाजात-ए-बेवा (एक विधवा की विनती)
ऐ मेरे ज़ोर और क़ुदरत वाले ( हे शक्तिदाता ! हे सृष्टिकर्ता !)
हिक़मत और हुकूमत वाले (हे ज्ञानी ! हे हम पर शासन करने वाले !)
मैं लौंडी तेरी दुखियारी
दरवाज़े की तेरी भिखारी
अपने-पराए की दुतकारी
मैके और ससुराल की मारी
रो नहीं सकती तंग हूँ यां तक (मैं यहाँ तक परेशान हूँ कि रो भी नहीं सकतीँ)
और रोऊं तो रोऊं कहाँ तक
लेटिये गर सोने के बहाने
पायंते कल हैं और न सिरहाने
अब कल हमको पड़ेगी भरकर
गोर (कब्र) है सूनी सेज से बेहतर
आबादी जंगल का नमूना
दुनिया सूनी और घर सूना
आठ पहर का है ये जलापा
काटूँगी किस तरह रंडापा
थक गयी मैं दुःख सहते-सहते
आंसू थम गए बहते-बहते
दबी थी भूमी में चिंगारी
ली न किसी ने खबर हमारी
वो चैत और फागुन की हवाएं
वो गर्मी की चांदनी रातें
वो अरमान भरी बरसातें
किस से कहूं किस तौर से काटीं
रही अकेली भरी सभा में
प्यासी रही भरी गंगा में
खाया तो कुछ मज़ा न आया
सोई तो कुछ चैन न पाया
बाप और भाई चचा भतीजे
सब रखती हूँ तेरे करम से
पर नहीं पाती एक भी ऐसा
जिसको हो मेरी जान की परवा
घर का इक हैरत का नमूना
सौ घर वाले और घर सूना
इसमें शिकायत क्या है पराई
अपनी क़िस्मत की है बुराई
चैन गर अपने बांटे में आता
क्यूं तू औरत जात बनाता
क्यूं पड़ते हम गैर के पाले
होते क्यूं औरों के हवाले
मैं ही अकेली नहीं हूँ दुखिया
पड़ी है लाखों पर यह बिपदा
जली करोड़ों इसी लपट में
पद्मों फुकीं इसी मरघट में
बालियाँ इक इक जात की लाखों
ब्याहियाँ इक इक रात की लाखों
ब्याह से अंजान और मंगनी से
बने से वाकिफ़ और न बनी से (दूल्हा-दुल्हन, दोनों, एक-दूसरे से अनभिज्ञ)
माओं से मुंह धुलवाती थी
रो रो मांग के जो खाती थी
थपक थपक के जिमको सुलाते
घुड़क घुड़क कर जिनको रुलाते
जिनको न थी शादी की तमन्ना
और न मंगनी का था तक़ाज़ा
जिनको न आपे की थी खबर कुछ
और न रंडापे की थी खबर कुछ
भली से वाकिफ़ थीं न बुरी से
बद से मतलब और न बदी से
रुखसत पा ले और चौथी को
खेल तमाशा जानती थीं जो
होश जिन्हें था रात न दिन का
गुड़ियों का सा ब्याह था जिनका
दो दो दिन रह कर के सुहागन
जनम जनम को हुई बैरागन
दूल्हा ने जाना न दुल्हन को
दुल्हन ने न पहचाना सजन को
दिल न तबीयत शौक़ न चाहत
मुफ़्त लगा ली ब्याह की तोहमत
शर्त से पहले बाज़ी हारी
ब्याह हुआ और रही कुंवारी
होश से पहले हुई हैं बेवा
कब पहुंचेगा पार ये खेवा
खर (धूल-मिट्टी) सा बचपन का ये रंडापा
दूर पड़ा है अभी बुढ़ापा
उमर है मंजिल तक पहुंचानी
काटनी है भरपूर जवानी
शाम के मुर्दे का यह रोना
सारी रात नहीं अब सोना
आयी बिलखती गयी सिसकती
रही तरसती और फड़कती
कोई नहीं जो गौर करे अब
नब्ज़ पे उनकी हाथ धरे अब
दुःख उनका आए और पूछे
रोग उनका समझे और बूझे
चोट न जिनके दिल को लगी हो
वो क्या जानें दिल की लगी को
तेरे सिवा यां मेरे मौला
कोई रहा है और न रहेगा
अब न मुझे कुछ रंज की परवा
और न आसाइश (सुख) की तमन्ना
चाहती हूँ इक तेरी मुहब्बत
और न रखती कोई हाजत (अभिलाषा)
घूँट इक ऐसा मुझको पिला दे
तेरे सिवा जो सबको भुला दे
आए किसी ध्यान न जी में
फ़िक़र नहीं कुछ अच्छे बुरे की
तेरे सिवा धुन हो न किसी की
वां (वहां) से अकेली आई हूँ जैसे
वैसे ही यां (यहाँ) से जाऊं अकेली
जी से निशाँ प्यारों का मिटा दूं
प्यार के मुंह को आग लगा दूं
तू ही हो दिल में तू ही ज़ुबां पर
मार के जाऊं लात जहाँ पर

8 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. इस ऐतिहासिक महत्त्व की नज़्म को और मेरे द्वारा उसकी व्याख्या को, सराहने के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.

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  2. 'अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर एक माँ की हुंकार' (चर्चा अंक - 3853) में अल्ताफ़ हुसेन हाली की इस कालजयी नज़्म और उस पर मेरी टिप्पणी को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद कामिनी जी.

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  3. मैं लौंडी तेरी दुखियारी
    दरवाज़े की तेरी भिखारी
    अपने-पराए की दुतकारी
    मैके और ससुराल की मारी
    सचमुच विधवाओं की यही हालत है। अभी थोड़े थोड़े बदलाव आ रहे है लेकिन फिर भी समाज उतना जागरूक नही हुआ है।

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    1. सुधा जी, हालात बदल रहे हैं लेकिन कछुए की चाल से.
      विधवाएं आज भी मनहूस और अभागी मानी जाती हैं और आज भी अधिकांश विधवाएं अपने जीवन-यापन के लिए दूसरों की कृपा पर रहने को विवश हैं.
      जागरूक समाज में युवा विधवाओं के पुनर्विवाह होने लगे हैं किन्तु उनकी संख्या अभी भी बहुत कम है.
      दूसरी तरफ़ युवा विधुर की बात तो छोड़ ही दें, विधुर हुए अधेड़ व्यक्ति के रिश्ते भी पत्नी के अंतिम संस्कार होने से पहले ही आने लगते हैं.

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  4. हिन्दू समाज में विधवा जीवन नर्क से भी बदतर रहा है और दीर्घ काल से कहीं सुनवाई नहीं थी औरत की इस नारकीय स्थिति की। वर्तमान अलबत्ता पहले से बहुत बेहतर है, लेकिन हमारी महान संस्कृति के दामन पर लगा यह बदनुमा दाग कभी धुल नहीं सकेगा! बेहतरीन नज़्म है यह हाली साहब की और हम शुक्रगुज़ार हैं आपके कि आपने इसे हमारे सामने पेश किया।

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  5. हृदयेश जी, हमारे हिंदी प्रेमियों में यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि नव-जागरणकालीन हिंदी साहित्य, समकालीन अंग्रेज़ी और बांगला साहित्य के साथ-साथ समकालीन उर्दू साहित्य का भी ऋणी रहा है.
    अल्ताफ़ हुसेन हाली जैसा तरक्कीपसंद शायर और विचारक अपने ज़माने से बहुत आगे था.

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