श्री भगवतीचरण वर्मा जी की एक कहानी पढ़ी थी.
दो मित्र एक
अर्से के बाद एक-दूसरे से मिलते हैं. एक मित्र एक आम किशोर से एक आम बुज़ुर्ग में
तब्दील हो जाता है जब कि दूसरा मित्र राजनीति के अखाड़े में छलांग लगाने के बाद उसी
अवधि में एक आम किशोर से सर्वशक्तिमान मंत्री हो जाता है.
मंत्री जी के
एक साहबज़ादे उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, एक सफल व्यापारी हैं और एक देश के उभरते हुए
उद्योगपति हैं. लेकिन सबसे छोटे साहबज़ादे आवारा और ऐयाश हैं जो कि अपने पिताश्री
को ब्लैकमेल कर के उन से जब-तब मोटी-मोटी रकमें ऐंठते रहते हैं.
पहले मित्र
अपने दूसरे मित्र के इस असफल, आवारा, ऐयाश और ब्लैकमेलर पुत्र को जब नाकारा खोटा
सिक्का कह कर पुकारते हैं तो उनके मंत्री-मित्र रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं कि
उनके घर का खोटा सिक्का घर के हर सदस्य के काले कारनामे का दायित्व अपने सर पर ले
लेता है और इसके लिए उसे पुलिस वालों की मार खानी पड़े या फिर जेल की हवा भी खानी
पड़े तो वो खा लेता है.
मंत्री जी
मुस्कुराते हुए अपने दोस्त से कहते हैं –
‘हमारे समस्त परिवार को बेदाग रखने की ज़िम्मेदारी सँभालने वाला यह खोटा सिक्का
बड़े काम का है.’
इस कहानी के
सन्दर्भ में अब पिताजी की और उनके चार पुत्रों की बात कर ली जाए.
हम चार भाई
हैं.
सबसे बड़े भाई
साहब भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहे हैं.
उन से छोटे
भाई केन्द्रीय हिंदी संस्थान में गुरु जी रहे हैं.
मेरे तीसरे
भाई साहब स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में अधिकारी रहे हैं और मैंने पहले लखनऊ
यूनिवर्सिटी में, फिर कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में, मुदर्रिसी की है.
अवकाश-प्राप्ति
के बाद पिताजी जब लखनऊ आ कर सेटल हुए तब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहा था और
शेष तीनों भाई बाहर कार्यरत थे.
पिताजी के
लखनऊ सेटल होने के डेड़ साल बाद मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी की नौकरी छूट गयी और मुझे
रोज़ी-रोटी की तलाश में अल्मोड़ा जाना पड़ा.
इस तरह चार
लायक बेटों के बावजूद माँ-पिताजी को अपने बुढ़ापे में अपने बल पर ही ज़िन्दगी
गुज़ारने के लिए मजबूर होना पड़ा.
लखनऊ में
हमारी अलीगंज कॉलोनी में पिता जी के एक मित्र अवकाश-प्राप्त एग्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर
थे जिनके एक साहबज़ादे थे तो बीबी-बच्चे वाले लेकिन कमाते-धमाते कुछ नहीं थे.
इन साहबज़ादे
का काम घर का सौदा-सुल्फ़ा लाना, घर की ख़ुद सफ़ाई करना ही नहीं था, ज़रुरत पड़ने
पर ये राज-मिस्त्री ही क्या, पेंटर और कार्पेंटर का काम भी संभाल लेते थे.
अपने
मम्मी-पापा को स्कूटर पर या फिर कार पर लाना-ले जाना भी इन्हीं के ज़िम्मे हुआ करता
था.
पिताजी के एक
न्यायधीश मित्र थे जो कि अवकाश-प्राप्ति के बाद वक़ालत करते थे. इनके तो दो गंजेड़ी
साहबज़ादे नितांत ठलुआ थे.
ये दोनों, ख़ुद
ड्राइविंग करने में असमर्थ अपने पापा के सारथी भी थे, साथ में उनके घरेलू नौकर
की और कचहरी में उनके मुंशी की भूमिका भी निभाते थे.
पिताजी के एक
और मित्र अवकाश-प्राप्त हेडमास्टर थे.
मास्साब के
छोटे बेटे बेरोज़गार थे जो कि अपने माता-पिता के ही काम नहीं आते थे बल्कि हमारी
माँ के कहने पर थोड़ा कमीशन लेकर उनके लिए सब्ज़ी-फल ही क्या, राशन तक ला
देते थे.
अपने तीन
मित्रों के इन खोटे लेकिन बड़े काम के सिक्के देख कर पिताजी आहें भरा करते थे. एक
बार उन्होंने मुझ से कहा था –
‘काश कि हमारे चारो बेटे में से कोई एक तो खोटा सिक्का निकलता जो कि भले ही
हमारी छाती पर मूंग दलता लेकिन साथ में घर के सारे अल्लम-गल्लम काम तो करता.’
अल्मोड़ा में
मुदर्रिसी करते हुए भी लंबी-लम्बी वेकेशंस, प्रिविलेज लीव, जब-तब
स्ट्राइक और पढ़ाई न होने के काल में फ़्रेंच लीव आदि का भरपूर सदुपयोग कर, लखनऊ में साल
में औसतन 100 दिन गुज़ारने वाले छोटे सुपुत्र श्री गोपेश मोहन जैसवाल ने हाथ जोड़ कर
अपने पिताश्री को करेक्ट करते हुए उन से कहा –
‘पिताजी, खोटा सिक्का न सही लेकिन आपको एक सेमी-खोटा किन्तु बड़े काम का सिक्का तो मिला
हुआ है जो कि साल के 365 दिनों में आपके पास 100 दिन रह कर आपके अधिकतर अल्लम-गल्लम
काम तो कर ही देता है.’
पूज्य पिताजी
इस संशोधन करने वाले संबोधन से संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने निराशा भरे स्वर में
कहा –
‘बर्खुरदार, साल के 100 दिन तो तुम्हारे लखनऊ में रहने से संभल गए लेकिन बाक़ी बचे हमारे
265 दिनों का क्या सोल्यूशन हुआ? तुम्हारे भाई लोग एक तो लखनऊ आते ही बहुत कम
हैं और अगर आते भी हैं तो तब आते हैं जब तुम भी
लखनऊ में होते हो. इस तरह से बच्चों के साथ तो साल में हमारे सिर्फ़ 100 दिन
ही बीतते हैं.
हाँ, अगर हमारा एक
नहीं, बल्कि हमारे चारो बेटे सेमी-खोटा सिक्का होते तो हमारे ख़ालिस खोटे सिक्के
वाले दोस्तों की तरह हमारी ज़िंदगी भी आराम से गुज़रती.’
चलिए, सेमी के रोल का भी तो सौभाग्य मिला। आगे की पीढ़ी में तो अब डम्मी ही मिलेंगे सुसंस्कृत और शिक्षित घरों में। हां, यदि नेता, अपराधी, दलाल टाइप की संततियां हों तो आनेवाले दिनों में अब यही खांटी सिक्के होंगे, बाकी सभी खोटे!😄😄🙏
जवाब देंहटाएंमित्र, लखनऊ विश्वविद्यालय और कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हमारे दो-दो नक़लची छात्र आगे चल कर मंत्री हो गए यानी कि खांटी सिक्के हो गए जब कि उनके गुरु जी बेचारे पहले भी सेमी खोटे सिक्के थे और आगे चल कर भी सेमी खोटे सिक्के ही रहे आए.
हटाएंनेताओं के खोते सिक्के तो सोने के सिक्के के समान हैं जो हर समय मूल्यवान रहते हैं । रोचक संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता जी.
हटाएंसोने का मुलम्मा चढ़े इन नेतारूपी सिक्कों के भीतर तो लोहा-गिलट ही होता है फिर भी ये सियासत के बाज़ार में धड़ल्ले से चलते हैं.
माता पिता के लिए खोटे सिक्के या सेमी खोटे सीक्के ही ज्यादा काम आते है। सुंदर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति !
हटाएंवैसे हमारे परिवार के सबसे खरे सिक्के, हमारे बड़े भाई साहब की जब साढ़े पांच साल लखनऊ में ही नियुक्ति रही तब वो माता-पिता के ख़ूब काम आए.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार 4 सितम्बर, 2022 को "चमन में घुट रही साँसें" (चर्चा अंक-4542) (चर्चा अंक-4525)
जवाब देंहटाएंपर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चमन में घुट रही साँसे' (चर्चा अंक - 4542, 4 सितम्बर, 2022) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत रोचक आलेख
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनिता जी.
हटाएंखोटा सिक्का भी इतना मजेदार हो सकता है कौन जानता था ?
जवाब देंहटाएंआज भी ऐसे बहुत से खोटे सिक्के हैं, बच्चों के साथ को तरसते कुछ लोग आज भी ये कहते हुए मिल जाते हैं, कि काश मेरे भी कोई खोटा सिक्का होता ।
बहुत बढ़िया लिखा है 😀👏
मेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
हटाएंवैसे खोटे सिक्के अक्सर भारी सर-दर्द भी सिद्ध होते हैं.
सुंदर संस्मरण
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की प्रशंसा के लिए धन्यवाद रंजू भाटिया जी.
हटाएंउम्र के संध्या काल में खोटे सिक्के कितने महत्वपूर्ण होते हैं ये बस भुक्त होगी ही जान सकता है।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और दिल को छूने वाला संस्मरण।
कुसुम जी, खोटे सिक्के की चाहत रखने वाले हमारे पिताजी अपने खरे सिक्कों पर और मेरे जैसे सेमी-खोटे सिक्के पर भी नाज़ किया करते थे.
हटाएंपिताजी ने 1941 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में एलएल० बी० में टॉप किया था.
हमारे बड़े भाई साहब आई० ए० एस० तो हो गए लेकिन उन्होंने लखनऊ यूनिवर्सिटी में 68% अंक लाने पर भी एम० एससी० जियोलॉजी में टॉप नहीं किया. बाक़ी हम तीनों भाइयों ने क्रमशः भाषाशास्त्र, गणित और मध्यकालीन एवं भारतीय इतिहास में टॉप किया था.