1.
ख़्वाब में भाषण तेरा सुन कर मुझे गश आ गया
दिन में भाषण कम रहे क्या रात
भी जो, खा गया
2.
त्याग और बलिदान हमेशा भाषण
में जपना होता है
कुर्सी पर दम तोड़ सकूं मैं एक
यही सपना होता है
3.
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ
होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
दुष्यंत कुमार
हद के पार ग़लतफ़हमी -
वो भाषण सुन के पत्थर को उठाने झुक गया होगा
वो सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
4.
उनको देखे से
जो आ जाती है मुंह पे रौनक
वो समझते हैं
कि बीमार का हाल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
बहरे ही
ख़ुशकिस्मत –
उनके भाषण से चली जाती है मुंह की रौनक
जो भी बहरा है यहाँ उसका ही हाल अच्छा है
बहुत खूब
जवाब देंहटाएं'बहुत ख़ूब' के लिए शुक्रिया दोस्त !
हटाएंवो भाषण सुन के पत्थर को उठाने झुक गया होगा
जवाब देंहटाएंवो सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
बहुत खूब।
मेरी गुस्ताख़ी की तारीफ़ के लिए शुक्रिया ज्योति !
जवाब देंहटाएंभाषणबाज़ी पर चुटीले व्यंग्य ।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद संगीता जी.
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(३०-०९ -२०२२ ) को 'साथ तुम मझधार में मत छोड़ देना' (चर्चा-अंक -४५६८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
'साथ तुम मझधार में मत छोड़ देना' (चर्चा अंक - 4568) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता.
हटाएंवो भाषण सुन के पत्थर को उठाने झुक गया होगा
जवाब देंहटाएंवाह!!!
क्या बात...बहुत ही धारदार लाजवाब सृजन।
सुधा जी, मैं जनसभा में तो जाता नहीं पर कभी-कभी टीवी पर लम्बे और उबाऊ भाषण सुन कर टीवी फोड़ने को पत्थर उठाने के लिए झुकने का मन करता है पर चूंकि नया टीवी खरीदना हमारे बजट के बाहर होता है इसलिए ऐसा हो नहीं पाता.
हटाएंक्या खूब लिखा है ।व्यंग भी कटाक्ष भी ।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा. ऐसी खतरनाक रचनाओं के कारण मेरी जान को ख़तरा ज़रूर रहता है पर क्या करूं, मेरी कलम को ऐसी ही गुस्ताखियाँ पसंद हैं.
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