लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. में एडमिशन लेते ही मैं लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल में शिफ्ट हो गया. मेरे साथ ही एक एमएस. सी (विषय नहीं बताऊँगा) के छात्र को हॉस्टल के उसी विंग में कमरा मिला था. हमारे संकाय एक-दूसरे से अलग ज़रूर थे लेकिन हम दोनों हम-उम्र थे, दोनों फ़िल्में देखने के और क्रिकेट के शौकीन थे, दोनों ही चाट के शौकीन थे और दोनों ही शाकाहारी भी थे. अब मेरा और उनका मेल होना तो बनता था. हम दोनों तुरंत मित्र बन गए और फिर धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गाढ़ी भी होती चली गयी.
मेरे नए मित्र ज़हीन थे, शरीर से महीन थे लेकिन पेटूपने में नामचीन थे, गुणों की खान थे और एक नहीं, बल्कि कई मामलों में भूतो न भविष्यत् थे.
इस कहानी में आत्मरक्षा के मद्दे-नज़र मैं अपने मित्र के नाम का खुलासा नहीं कर सकता हूँ. उनके वाराणसी का वासी होने के कारण मैं इस कहानी में उनका नाम बनारसी बाबू रख देता हूँ.
हमारे बनारसी बाबू ‘चमड़ी जाए लेकिन दमड़ी न जाए’ के सिद्धांत में विश्वास रखते थे और – ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’ मन्त्र में भी उनकी गहरी आस्था थी. अपने रईस लेकिन कंजूस बाप से उन्हें ऐसे ही संस्कार मिले थे.
बनारसी बाबू हमारे हॉस्टल के उन पैदल सैनिकों में से थे जिन्हें कि अपने साइकिल रखने वाले मित्रों की कृपा पर निर्भर रहने में कभी कोई तकल्लुफ़ नहीं होता था. मेरी साइकिल पर मेरे साथ वो पिलियन राइडर की हैसियत से सैकड़ों बार बैठे होंगे और इन से क़रीब आधी बार वो मुझ से उधार मांग कर उसे ले गए होगे. मेरे यह समझ में नहीं आता था कि खुद हॉस्टल में रहते हुए बैंक में अपने नाम से मोटी-मोटी रकमों के फिक्स्ड डिपाज़िट्स करने वाला 400-500 रुपयों की मामूली साइकिल खुद अपने लिए खरीद क्यों नहीं सकता था.
बनारसी बाबू का मेरी साइकिल से जुड़ा एक किस्सा है –
आदतन बनारसी बाबू एक बार मेरी साइकिल मांग कर ले गए. जब वो लौटे तो साइकिल के पिछले पहिये में पंचर था. मैंने जब नए टायर-ट्यूब वाली अपनी साइकिल की यह हालत देखी तो मैं आगबबूला हो गया. बनारसी बाबू का कहना था कि साइकिल में पंचर ठीक कराने का उनका कोई दायित्व नहीं था क्योंकि मेरे और उनके बीच ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ था. इधर मैं था कि इस मामले में अपने हक़ पर अड़ा हुआ था. अंततः दोस्ती तोड़ने और जीवन में फिर कभी उन्हें साइकिल न देने की धमकी काम कर गयी. बनारसी बाबू को मेरे साथ साइकिल का पंचर ठीक करवाने के लिए जाना पड़ा. पंचर बनाने के लिए जब टायर-ट्यूब खोले गए तो पता चला कि टायर भी बेकार हो गया है क्योंकि पहिये में पंचर होने के बावजूद बनारसी बाबू साइकिल पर सवार ही रहे थे. इस दुर्घटना का खुलासा होने पर बनारसी बाबू पंचर जुडवाने का एक रुपया खर्च करने से तो बच गए लेकिन उन्हें टायर-ट्यूब बदलवाने के 25 रूपये ज़रूर देने पड़े.
बनारसी बाबू ब्रेकफ़ास्ट में सिर्फ़ घर से लाई गयी मठरियों और लड्डुओं का प्रयोग करते थे. हॉस्टल की कैंटीन के चाय, ब्रेड, बन, मक्खन आदि उनके मेन्यू में कभी भी शामिल नहीं होते थे. वो सज्जन जो कि किसी अपरिचित का माल भी हड़पने के लिए तैयार रहते थे अपने माल पर किसी का साया भी नहीं पड़ने देते थे. और तो और जो शख्स मेरी माँ की बनाई मिठाइयों और नमकीन का मुरीद था, वो मेरे जैसे अभिन्न मित्र को भी अपने घर से लाए पकवानों को हाथ भी नहीं लगाने देता था.
आई. टी. कॉलेज के चौराहे पर पांडे मिष्ठान भंडार में बनारसी बाबू रोज़ रात को जब दूध पीने जाते थे तो मेरी साइकिल से तो उनकी दोस्ती रहती थी लेकिन मुझ से क़तई नहीं.
भोजन से जुड़ा एक और किस्सा है. एक बार हमारे हॉस्टल का मेस बंद हो गया. हम सबको बाहर के ढाबों में खाने का प्रबंध करना पड़ा. बाक़ी हॉस्टलर्स तो कहीं भी जाकर खा लेते थे लेकिन हमारे बनारसी बाबू सिर्फ़ डालीगंज के प्रकाश ढाबे में खाते थे, वो भी दिन में एक बार दो बजे. हमने इस प्रकाश ढाबे के प्रति उनके प्रेम की वजह पूछी तो उन्होंने फ़रमाया –
‘प्रकाश ढाबे वाला एक रूपये की थाली में (आज से 47-48 साल पहले एक रुपया भी मायने रखता था) अनलिमिटेड खिलाता है. दो पहर के टाइम में जाओ तो खाने वालों की भीड़ भी कम होती है फिर लंच और डिनर एक साथ हो जाता है.’
हमारे मित्र को प्रकाश ढाबे को जल्द ही ब्लैक लिस्ट करना पड़ा क्योंकि उसके दुष्ट मालिक ने बांग्लादेश की मुक्ति के बाद बढ़ी हुई महंगाई के कारण थाली में मिलने वाली अनलिमिटेड रोटी, सब्जी, दाल और चावल को लिमिटेड की कैटेगरी में डाल दिया था.
हम दोनों मित्र मौज-मस्ती करने के साथ-साथ पढ़ाई भी कर लेते थे. मैंने एम. ए. में और बनारसी बाबू ने एम एस. सी. में टॉप किया. हम दोनों ने रिसर्च स्कॉलर के रूप में यूजीसी फ़ेलोशिप के लिए आवेदन किया और वह हम दोनों को मिल भी गयी.
हम दोनों ने यह पहले ही तय कर लिया था कि जिस किसी को भी फ़ेलोशिप मिलेगी वह दूसरे को ट्रीट देगा. अब चूंकि हम दोनों को ही फ़ेलोशिप मिल गयी थी तो एक क्या, डबल जश्न मनाना तो बनता ही था.
मैं अपनी ओर से दी जाने वाली ट्रीट का प्रोग्राम बना रहा था –
'पहले हम मेफ़ेयर सिनेमा में बालकनी की टिकट लेकर फ़िल्म देखेंगे (हम लोग एक रूपये पिचहत्तर पैसे वाले स्टूडेंट क्लास में फ़िल्म देखते थे जिसमें आइडेंटिटी कार्ड दिखाने पर पच्चीस पैसे और कम हो जाते थे) फ़िल्म देखेंगे फिर रंजना रेस्टोरेंट में शानदार भोजन करेंगे और अंत में क्वालिटी में आइसक्रीम खाएँगे.'
बनारसी बाबू को पता था कि दो-तीन बाद ऐसी ही ट्रीट, मैं उन से लेने वाला हूँ. संभावित 30 रुपयों के खर्चे की सोच कर उनकी जान निकल रही थी. उन्होंने मेरे सामने एक अनोखा प्रस्ताव रखते हुए कहा –
‘गोपेश, सिनेमा हॉल में बालकनी की टिकट खरीदकर फ़िल्म देखने में रंजना रेस्टोरेंट में खाने में और क्वालिटी में आइसक्रीम खाने में तो तुम्हें बहुत चूना लग जाएगा और फिर मेरी जेब भी ऐसे ही कटेगी. क्यों न हम इस डबल ट्रीट को सिंगल कर दें, मेफ़ेयर में बालकनी की जगह अलंकार सिनेमा में फ़िल्म देखें (अलंकार सिनेमा हॉल में अन्य सिनेमा हॉल्स से उतरी हुई या पुरानी फ़िल्में लगती थीं और वहां की टिकट दर दूसरे सिनेमा हॉल्स की तुलना में आधी हुआ करती थी) और रंजना रेस्टोरेंट की जगह आई टी. चौराहे वाले पांडे स्वीट हाउस में दो-दो रसगुल्ले और दो-दो समोसे खा लें. इस ट्रीट का खर्चा हम आपस में बराबर-बराबर बाँट लेंगे.’
मैंने उनके इस प्रस्ताव को सुन कर उनकी पीठ पर दो मुक्के मार कर दाद दी और जश्न मनाने का इरादा पूरी तरह से कैंसिल कर दिया.
बनारसी बाबू की रिक्शे की सवारी का एक किस्सा भी मुझे याद आ रहा है.
उन्हें चारबाग स्टेशन जाना था. एक रिक्शे वाले से उन्होंने पूछा –
‘भैया, चारबाग स्टेशन तक आधी सवारी का क्या लोगे?’
नादान रिक्शे वाला इस आधी सवारी का मतलब नहीं समझा. लेकिन मैं समझ गया. बनारस में दो लोग शेयर्ड रिक्शा कर आपस में भाड़ा बाँट सकते हैं लेकिन लखनऊ में ऐसा चलन नहीं है. मैंने रिक्शे वाले को समझाते हुए कहा –
‘आधी सवारी से इनका मतलब यह है कि रिक्शे में तुम पीछे बैठोगे और रिक्शा ये चलाएंगे.’
मेरी समझ ने यह आज तक नहीं आया है कि रिक्शे वाला क्यूं हँसते-हँसते चला गया और बनारसी बाबू क्यूँ दांत पीसते हुए मेरा क़त्ल करने के लिए मेरे पीछे दौड़े.
हम दोनों ही लखनऊ विश्वविद्यालय में लगभग एक ही साथ लेक्चरर हुए. बनारसी बाबू की किस्मत मुझ से अच्छी थी. वो यूनिवर्सिटी में परमानेंट हो गए लेकिन मुझे पांच साल बाद रोजी-रोटी के तलाश में कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में जाना पड़ा. लेकिन लखनऊ में अपना घर होने की वजह से मेरा वहां आना-जाना तो लगा ही रहता था.
बनारसी बाबू की शादी भी मेरी शादी से पहले हो गयी. अब वो हमारे पड़ौस के निराला नगर में किराए का मकान लेकर रहने लगे थे. हॉस्टल-कालीन पैदल सवार को अब उनके ससुर ने एक चमचमाती फ़िएट कार भेंट कर दी थी.
इस तरह नौकरी, बीबी, और कार के मामले में बनारसी बाबू मुझसे आगे निकल गए. इतना ही नहीं, मैं जब तक हवाई जहाज में बैठा भी नहीं था तब तक वो दो बार कांफ्रेंस के सिलसिले में विदेश का चक्कर भी लगा आए.
हम दोनों की स्थिति में बहुत अंतर आ गया था लेकिन हमारी दोस्ती पहले की तरह गाढ़ी ही रही. मैं छुट्टियों में जब भी लखनऊ पहुँचता था, बनारसी बाबू मेरा इंतज़ार करते हुए मिलते थे. मेरी शादी के बाद मेरी श्रीमती जी और बनारसी भाभी की भी आपस में दोस्ती हो गयी थी. बनारसी बाबू की कार में हम लोग अक्सर सैर-सपाटे के लिए जाते थे लेकिन इस तरह की सैरों में अक्सर उनकी कार में पेट्रोल मुझे ही भरवाना पड़ता था.
बनारसी बाबू की कंजूसी पहले की तरह बरक़रार थी. हमारे घर आकर माल उड़ाने में उनको कभी कोई संकोच नहीं होता था लेकिन अपने घर में कुछ भी खिलाने-पिलाने में उनकी जान निकलती थी.
आज प्रदूषण की गति थामने के लिए पोलीथीन की थैलियों का प्रयोग वर्जित हो रहा है. लेकिन हमारे बनारसी बाबू आज से 40 साल पहले भी दुकानदारों से ब्रेड, सब्ज़ी, फल आदि कोई भी सामान खरीदते वक़्त पोलीथीन की या कागज़ की थैली नहीं लिया करते थे और सारा सामान अपने थैले में रखवा लिया करते थे. इसका कारण उनका पर्यावरण-संरक्षण के प्रति प्रेम नहीं था बल्कि वो दुकान वाले से पोलीथीन की या कागज़ की थैली के दाम अपने बिल में से कम करवा लेते थे और सब्ज़ी वाले से थैली के बदले धनिया-हरी मिर्च मुफ़्त में डलवा लेते थे.
एक बार रक्षाबंधन पर हमारी बहन जी, दोनों बच्चों के साथ, बम्बई से आई थीं. बनारसी बाबू तो बहनजी के किस्से सुनकर पहली मुलाक़ात में ही उन के मुरीद हो गए. तुरंत वो उनके छोटे भाई बन गए.
रक्षा बंधन पर इस नए छोटे भाई को बहनजी ने राखी बांधी, उसके माथे पर टीका लगाया, एक लड्डू खिलाया और फिर एक मिठाई का डिब्बा भी उसे प्रदान किया. इस नए छोटे भाई ने श्रद्धा के साथ अपनी नई दीदी के चरण छुए और उन्हें नक़द 11 रूपये प्रदान किए.
मैंने बनारसी बाबू की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा –
‘कंजूसड़े ! पचास रूपये का मिठाई का डिब्बा लेकर तू बड़ी बहन को 11 रूपये दे रहा है?’
बहन जी ने सेंवई का कटोरा अपने नए भाई को थमाया और फिर मुझे डांटते हुए कहा –
‘नालायक ! तू इसका प्यार और इसकी श्रद्धा देख, इसकी भेंट के रूपये मत गिन !’
बनारसी बाबू और बनारसी भाभी दोनों ही बहन जी के पीछे पड़ गए कि वो उनके घर ज़रूर आएं. आख़िरकार हम दोनों मिया-बीबी के साथ बहन जी, मेरा भांजा और मेरी भांजी, बनारसी बाबू के घर पहुँच ही गए. चाय-पानी हुआ फिर देश-विदेश के किस्से चले लेकिन भोजन का कोई नामो-निशान नहीं. 10 साल की मेरी भांजी श्रुति ने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा –
‘मामा, भूख लगी है.’
मैंने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा –
‘सब्र कर, अभी खाना आ जाएगा.’
रात के नौ बजने को आए लेकिन खाने का तो किसी ने नाम ही नहीं लिया. अब हम सब उठ खड़े हुए. बनारसी बाबू ने उठ कर खड़ी हो रही अपनी नई दीदी से कहा –
‘दीदी ! आप लोग नौ बजे तक रुक जाइए, फिर चले जाइएगा.’
मैंने इस नौ बजे तक रोके जाने का कारण पूछा तो पता चला कि वो स्विट्ज़रलैंड से लाई अपनी कुक्कू क्लॉक की चिड़िया को नौ बजे वाली कूकू करते हुए दिखाना चाहते थे.
मेरे भांजे और भांजी ने अपने इस नए दरियादिल मामा के आतिथ्य-सत्कार के इनाम में अपने असली मामा की क्या गत बनाई, इसे शब्दों में बयान किया जाना असंभव है.
कुछ दिनों बाद बनारसी बाबू का चयन बी. एच. यू. में हो गया. मेरे लखनऊ छोड़ने से पहले ही उन्होंने लखनऊ छोड़ दिया.
हम दोनों दोस्त इस बार बिछड़े तो फिर मिल नहीं पाए. कुछ दिन तक हमारा पत्र-व्यवहार चला, फिर दो-चार बार फ़ोन पर बात हुई और फिर संपर्क ही टूट गया. शायद दोस्ती के नाम पर चिट्ठी-पत्री और फ़ोन पर खर्च करना उन्हें मंज़ूर नहीं था.
पिछले पच्चीस साल से बनारसी बाबू की मुझे कोई खबर नहीं मिली है. लेकिन वो मेरे दिल से कभी नहीं निकले और न ही उनकी दरियादिली के किस्से मेरे ज़हन से उतरे हैं. आज भी हर रात नौ बजे उनकी कुक्कू क्लॉक की कूकू हमारे कानों में गूंजती रहती है.