सोमवार, 30 दिसंबर 2019

तेरे दर पर आया हूँ

आने वाला साल, न अबके जैसा हो, हे प्रभु,
रहे सदा गुलज़ार, अमन का बाग़, हे प्रभु,
नफ़रत की ना चले बयार, हमारे आँगन हे प्रभु ,
गंगा-जमुनी मौज बहे, हर दिल में, हे प्रभु !

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

2019 का आख़िरी तराना

मज़हब नहीं सिखाता, दूजे का, खून पीना,
कांटे भी जानते हैं, फूलों के संग, जीना.

कथनी में हम बताते, आपस में मेल करना,
करनी में सिर्फ़ भाता, लड़ना हो या कि डरना.
सारे जहाँ में होता, चर्चा यही, हमारा,
नाथू के फ़लसफ़े से, गांधी-संदेस, हारा.
दंगल का है अखाड़ा, हिन्दोस्तां, हमारा,
क्यों जन्म लें यहाँ पर, हम भूल कर, दुबारा.
सारे जहाँ से ------

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

दरियादिल

लखनऊ यूनिवर्सिटी में एम. ए. में एडमिशन लेते ही मैं लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल में शिफ्ट हो गया. मेरे साथ ही एक एमएस. सी (विषय नहीं बताऊँगा) के छात्र को हॉस्टल के उसी विंग में कमरा मिला था. हमारे संकाय एक-दूसरे से अलग ज़रूर थे लेकिन हम दोनों हम-उम्र थे, दोनों फ़िल्में देखने के और क्रिकेट के शौकीन थे, दोनों ही चाट के शौकीन थे और दोनों ही शाकाहारी भी थे. अब मेरा और उनका मेल होना तो बनता था. हम दोनों तुरंत मित्र बन गए और फिर धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गाढ़ी भी होती चली गयी.
मेरे नए मित्र ज़हीन थे, शरीर से महीन थे लेकिन पेटूपने में नामचीन थे, गुणों की खान थे और एक नहीं, बल्कि कई मामलों में भूतो न भविष्यत् थे.
इस कहानी में आत्मरक्षा के मद्दे-नज़र मैं अपने मित्र के नाम का खुलासा नहीं कर सकता हूँ. उनके वाराणसी का वासी होने के कारण मैं इस कहानी में उनका नाम बनारसी बाबू रख देता हूँ.
हमारे बनारसी बाबू ‘चमड़ी जाए लेकिन दमड़ी न जाए’ के सिद्धांत में विश्वास रखते थे और – ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’ मन्त्र में भी उनकी गहरी आस्था थी. अपने रईस लेकिन कंजूस बाप से उन्हें ऐसे ही संस्कार मिले थे.
बनारसी बाबू हमारे हॉस्टल के उन पैदल सैनिकों में से थे जिन्हें कि अपने साइकिल रखने वाले मित्रों की कृपा पर निर्भर रहने में कभी कोई तकल्लुफ़ नहीं होता था. मेरी साइकिल पर मेरे साथ वो पिलियन राइडर की हैसियत से सैकड़ों बार बैठे होंगे और इन से क़रीब आधी बार वो मुझ से उधार मांग कर उसे ले गए होगे. मेरे यह समझ में नहीं आता था कि खुद हॉस्टल में रहते हुए बैंक में अपने नाम से मोटी-मोटी रकमों के फिक्स्ड डिपाज़िट्स करने वाला 400-500 रुपयों की मामूली साइकिल खुद अपने लिए खरीद क्यों नहीं सकता था.
बनारसी बाबू का मेरी साइकिल से जुड़ा एक किस्सा है –
आदतन बनारसी बाबू एक बार मेरी साइकिल मांग कर ले गए. जब वो लौटे तो साइकिल के पिछले पहिये में पंचर था. मैंने जब नए टायर-ट्यूब वाली अपनी साइकिल की यह हालत देखी तो मैं आगबबूला हो गया. बनारसी बाबू का कहना था कि साइकिल में पंचर ठीक कराने का उनका कोई दायित्व नहीं था क्योंकि मेरे और उनके बीच ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ था. इधर मैं था कि इस मामले में अपने हक़ पर अड़ा हुआ था. अंततः दोस्ती तोड़ने और जीवन में फिर कभी उन्हें साइकिल न देने की धमकी काम कर गयी. बनारसी बाबू को मेरे साथ साइकिल का पंचर ठीक करवाने के लिए जाना पड़ा. पंचर बनाने के लिए जब टायर-ट्यूब खोले गए तो पता चला कि टायर भी बेकार हो गया है क्योंकि पहिये में पंचर होने के बावजूद बनारसी बाबू साइकिल पर सवार ही रहे थे. इस दुर्घटना का खुलासा होने पर बनारसी बाबू पंचर जुडवाने का एक रुपया खर्च करने से तो बच गए लेकिन उन्हें टायर-ट्यूब बदलवाने के 25 रूपये ज़रूर देने पड़े.
बनारसी बाबू ब्रेकफ़ास्ट में सिर्फ़ घर से लाई गयी मठरियों और लड्डुओं का प्रयोग करते थे. हॉस्टल की कैंटीन के चाय, ब्रेड, बन, मक्खन आदि उनके मेन्यू में कभी भी शामिल नहीं होते थे. वो सज्जन जो कि किसी अपरिचित का माल भी हड़पने के लिए तैयार रहते थे अपने माल पर किसी का साया भी नहीं पड़ने देते थे. और तो और जो शख्स मेरी माँ की बनाई मिठाइयों और नमकीन का मुरीद था, वो मेरे जैसे अभिन्न मित्र को भी अपने घर से लाए पकवानों को हाथ भी नहीं लगाने देता था.
आई. टी. कॉलेज के चौराहे पर पांडे मिष्ठान भंडार में बनारसी बाबू रोज़ रात को जब दूध पीने जाते थे तो मेरी साइकिल से तो उनकी दोस्ती रहती थी लेकिन मुझ से क़तई नहीं.
भोजन से जुड़ा एक और किस्सा है. एक बार हमारे हॉस्टल का मेस बंद हो गया. हम सबको बाहर के ढाबों में खाने का प्रबंध करना पड़ा. बाक़ी हॉस्टलर्स तो कहीं भी जाकर खा लेते थे लेकिन हमारे बनारसी बाबू सिर्फ़ डालीगंज के प्रकाश ढाबे में खाते थे, वो भी दिन में एक बार दो बजे. हमने इस प्रकाश ढाबे के प्रति उनके प्रेम की वजह पूछी तो उन्होंने फ़रमाया –
‘प्रकाश ढाबे वाला एक रूपये की थाली में (आज से 47-48 साल पहले एक रुपया भी मायने रखता था) अनलिमिटेड खिलाता है. दो पहर के टाइम में जाओ तो खाने वालों की भीड़ भी कम होती है फिर लंच और डिनर एक साथ हो जाता है.’
हमारे मित्र को प्रकाश ढाबे को जल्द ही ब्लैक लिस्ट करना पड़ा क्योंकि उसके दुष्ट मालिक ने बांग्लादेश की मुक्ति के बाद बढ़ी हुई महंगाई के कारण थाली में मिलने वाली अनलिमिटेड रोटी, सब्जी, दाल और चावल को लिमिटेड की कैटेगरी में डाल दिया था.
हम दोनों मित्र मौज-मस्ती करने के साथ-साथ पढ़ाई भी कर लेते थे. मैंने एम. ए. में और बनारसी बाबू ने एम एस. सी. में टॉप किया. हम दोनों ने रिसर्च स्कॉलर के रूप में यूजीसी फ़ेलोशिप के लिए आवेदन किया और वह हम दोनों को मिल भी गयी.
हम दोनों ने यह पहले ही तय कर लिया था कि जिस किसी को भी फ़ेलोशिप मिलेगी वह दूसरे को ट्रीट देगा. अब चूंकि हम दोनों को ही फ़ेलोशिप मिल गयी थी तो एक क्या, डबल जश्न मनाना तो बनता ही था.
मैं अपनी ओर से दी जाने वाली ट्रीट का प्रोग्राम बना रहा था –
'पहले हम मेफ़ेयर सिनेमा में बालकनी की टिकट लेकर फ़िल्म देखेंगे (हम लोग एक रूपये पिचहत्तर पैसे वाले स्टूडेंट क्लास में फ़िल्म देखते थे जिसमें आइडेंटिटी कार्ड दिखाने पर पच्चीस पैसे और कम हो जाते थे) फ़िल्म देखेंगे फिर रंजना रेस्टोरेंट में शानदार भोजन करेंगे और अंत में क्वालिटी में आइसक्रीम खाएँगे.'
बनारसी बाबू को पता था कि दो-तीन बाद ऐसी ही ट्रीट, मैं उन से लेने वाला हूँ. संभावित 30 रुपयों के खर्चे की सोच कर उनकी जान निकल रही थी. उन्होंने मेरे सामने एक अनोखा प्रस्ताव रखते हुए कहा –
‘गोपेश, सिनेमा हॉल में बालकनी की टिकट खरीदकर फ़िल्म देखने में रंजना रेस्टोरेंट में खाने में और क्वालिटी में आइसक्रीम खाने में तो तुम्हें बहुत चूना लग जाएगा और फिर मेरी जेब भी ऐसे ही कटेगी. क्यों न हम इस डबल ट्रीट को सिंगल कर दें, मेफ़ेयर में बालकनी की जगह अलंकार सिनेमा में फ़िल्म देखें (अलंकार सिनेमा हॉल में अन्य सिनेमा हॉल्स से उतरी हुई या पुरानी फ़िल्में लगती थीं और वहां की टिकट दर दूसरे सिनेमा हॉल्स की तुलना में आधी हुआ करती थी) और रंजना रेस्टोरेंट की जगह आई टी. चौराहे वाले पांडे स्वीट हाउस में दो-दो रसगुल्ले और दो-दो समोसे खा लें. इस ट्रीट का खर्चा हम आपस में बराबर-बराबर बाँट लेंगे.’
मैंने उनके इस प्रस्ताव को सुन कर उनकी पीठ पर दो मुक्के मार कर दाद दी और जश्न मनाने का इरादा पूरी तरह से कैंसिल कर दिया.
बनारसी बाबू की रिक्शे की सवारी का एक किस्सा भी मुझे याद आ रहा है.
उन्हें चारबाग स्टेशन जाना था. एक रिक्शे वाले से उन्होंने पूछा –
‘भैया, चारबाग स्टेशन तक आधी सवारी का क्या लोगे?’
नादान रिक्शे वाला इस आधी सवारी का मतलब नहीं समझा. लेकिन मैं समझ गया. बनारस में दो लोग शेयर्ड रिक्शा कर आपस में भाड़ा बाँट सकते हैं लेकिन लखनऊ में ऐसा चलन नहीं है. मैंने रिक्शे वाले को समझाते हुए कहा –
‘आधी सवारी से इनका मतलब यह है कि रिक्शे में तुम पीछे बैठोगे और रिक्शा ये चलाएंगे.’
मेरी समझ ने यह आज तक नहीं आया है कि रिक्शे वाला क्यूं हँसते-हँसते चला गया और बनारसी बाबू क्यूँ दांत पीसते हुए मेरा क़त्ल करने के लिए मेरे पीछे दौड़े.
हम दोनों ही लखनऊ विश्वविद्यालय में लगभग एक ही साथ लेक्चरर हुए. बनारसी बाबू की किस्मत मुझ से अच्छी थी. वो यूनिवर्सिटी में परमानेंट हो गए लेकिन मुझे पांच साल बाद रोजी-रोटी के तलाश में कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में जाना पड़ा. लेकिन लखनऊ में अपना घर होने की वजह से मेरा वहां आना-जाना तो लगा ही रहता था.
बनारसी बाबू की शादी भी मेरी शादी से पहले हो गयी. अब वो हमारे पड़ौस के निराला नगर में किराए का मकान लेकर रहने लगे थे. हॉस्टल-कालीन पैदल सवार को अब उनके ससुर ने एक चमचमाती फ़िएट कार भेंट कर दी थी.
इस तरह नौकरी, बीबी, और कार के मामले में बनारसी बाबू मुझसे आगे निकल गए. इतना ही नहीं, मैं जब तक हवाई जहाज में बैठा भी नहीं था तब तक वो दो बार कांफ्रेंस के सिलसिले में विदेश का चक्कर भी लगा आए.
हम दोनों की स्थिति में बहुत अंतर आ गया था लेकिन हमारी दोस्ती पहले की तरह गाढ़ी ही रही. मैं छुट्टियों में जब भी लखनऊ पहुँचता था, बनारसी बाबू मेरा इंतज़ार करते हुए मिलते थे. मेरी शादी के बाद मेरी श्रीमती जी और बनारसी भाभी की भी आपस में दोस्ती हो गयी थी. बनारसी बाबू की कार में हम लोग अक्सर सैर-सपाटे के लिए जाते थे लेकिन इस तरह की सैरों में अक्सर उनकी कार में पेट्रोल मुझे ही भरवाना पड़ता था.
बनारसी बाबू की कंजूसी पहले की तरह बरक़रार थी. हमारे घर आकर माल उड़ाने में उनको कभी कोई संकोच नहीं होता था लेकिन अपने घर में कुछ भी खिलाने-पिलाने में उनकी जान निकलती थी.
आज प्रदूषण की गति थामने के लिए पोलीथीन की थैलियों का प्रयोग वर्जित हो रहा है. लेकिन हमारे बनारसी बाबू आज से 40 साल पहले भी दुकानदारों से ब्रेड, सब्ज़ी, फल आदि कोई भी सामान खरीदते वक़्त पोलीथीन की या कागज़ की थैली नहीं लिया करते थे और सारा सामान अपने थैले में रखवा लिया करते थे. इसका कारण उनका पर्यावरण-संरक्षण के प्रति प्रेम नहीं था बल्कि वो दुकान वाले से पोलीथीन की या कागज़ की थैली के दाम अपने बिल में से कम करवा लेते थे और सब्ज़ी वाले से थैली के बदले धनिया-हरी मिर्च मुफ़्त में डलवा लेते थे.
एक बार रक्षाबंधन पर हमारी बहन जी, दोनों बच्चों के साथ, बम्बई से आई थीं. बनारसी बाबू तो बहनजी के किस्से सुनकर पहली मुलाक़ात में ही उन के मुरीद हो गए. तुरंत वो उनके छोटे भाई बन गए.
रक्षा बंधन पर इस नए छोटे भाई को बहनजी ने राखी बांधी, उसके माथे पर टीका लगाया, एक लड्डू खिलाया और फिर एक मिठाई का डिब्बा भी उसे प्रदान किया. इस नए छोटे भाई ने श्रद्धा के साथ अपनी नई दीदी के चरण छुए और उन्हें नक़द 11 रूपये प्रदान किए.
मैंने बनारसी बाबू की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा –
‘कंजूसड़े ! पचास रूपये का मिठाई का डिब्बा लेकर तू बड़ी बहन को 11 रूपये दे रहा है?’
बहन जी ने सेंवई का कटोरा अपने नए भाई को थमाया और फिर मुझे डांटते हुए कहा –
‘नालायक ! तू इसका प्यार और इसकी श्रद्धा देख, इसकी भेंट के रूपये मत गिन !’
बनारसी बाबू और बनारसी भाभी दोनों ही बहन जी के पीछे पड़ गए कि वो उनके घर ज़रूर आएं. आख़िरकार हम दोनों मिया-बीबी के साथ बहन जी, मेरा भांजा और मेरी भांजी, बनारसी बाबू के घर पहुँच ही गए. चाय-पानी हुआ फिर देश-विदेश के किस्से चले लेकिन भोजन का कोई नामो-निशान नहीं. 10 साल की मेरी भांजी श्रुति ने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा –
‘मामा, भूख लगी है.’
मैंने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा –
‘सब्र कर, अभी खाना आ जाएगा.’
रात के नौ बजने को आए लेकिन खाने का तो किसी ने नाम ही नहीं लिया. अब हम सब उठ खड़े हुए. बनारसी बाबू ने उठ कर खड़ी हो रही अपनी नई दीदी से कहा –
‘दीदी ! आप लोग नौ बजे तक रुक जाइए, फिर चले जाइएगा.’
मैंने इस नौ बजे तक रोके जाने का कारण पूछा तो पता चला कि वो स्विट्ज़रलैंड से लाई अपनी कुक्कू क्लॉक की चिड़िया को नौ बजे वाली कूकू करते हुए दिखाना चाहते थे.
मेरे भांजे और भांजी ने अपने इस नए दरियादिल मामा के आतिथ्य-सत्कार के इनाम में अपने असली मामा की क्या गत बनाई, इसे शब्दों में बयान किया जाना असंभव है.
कुछ दिनों बाद बनारसी बाबू का चयन बी. एच. यू. में हो गया. मेरे लखनऊ छोड़ने से पहले ही उन्होंने लखनऊ छोड़ दिया.
हम दोनों दोस्त इस बार बिछड़े तो फिर मिल नहीं पाए. कुछ दिन तक हमारा पत्र-व्यवहार चला, फिर दो-चार बार फ़ोन पर बात हुई और फिर संपर्क ही टूट गया. शायद दोस्ती के नाम पर चिट्ठी-पत्री और फ़ोन पर खर्च करना उन्हें मंज़ूर नहीं था.
पिछले पच्चीस साल से बनारसी बाबू की मुझे कोई खबर नहीं मिली है. लेकिन वो मेरे दिल से कभी नहीं निकले और न ही उनकी दरियादिली के किस्से मेरे ज़हन से उतरे हैं. आज भी हर रात नौ बजे उनकी कुक्कू क्लॉक की कूकू हमारे कानों में गूंजती रहती है.

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

वीर सावरकर को भारत रत्न दिए जाने के औचित्य-अनौचित्य पर बहस

समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है.
'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है' की हुंकार भरने वाले लोकमान्य तिलक, मांडले से लौटकर पहले जितने जोशीले नहीं रह जाते हैं.
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ' लिखने वाले अल्लामा इक़बाल, पाकिस्तान की मांग करने लगते हैं.
1916 के लखनऊ समझौते में हिन्दू-मुस्लिम एकता को महत्त्व देने वाले जिन्ना, मुस्लिम साप्रदायिकता का नेतृत्व करने लगते हैं और अंततः पाकिस्तान लेकर ही मानते हैं.
क्रांतिकारी अरबिंदो घोष, महर्षि हो जाते हैं.
देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गाँधी के अहिंसक आन्दोलन में भाग लेने वाले सुभाष, आज़ाद हिन्द फ़ौज के सुप्रीम कमांडर बन जाते हैं
आज़ादी की लड़ाई में बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने वाले अधिकतर नेता, देश के आज़ाद होते ही कुर्सी हथियाने की दौड़ में एक-दूसरे से होड़ लगाने लगते हैं.
वीर सावरकर ने 1857 के विद्रोह को सैनिक विद्रोह बताए जाने का विरोध करते हुए उसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में प्रतिष्ठित कर के राष्ट्रीय आन्दोलन को सशक्त किया था. काले पानी की सज़ा और अंग्रेज़ों की क़ैद से भाग निकलने की उनकी हैरतअंगेज़ कोशिश भी उनकी दिलेरी का प्रमाण है.
लेकिन अगर बाद में सावरकर उतने वीर नहीं रहे तो कांग्रेस वाले इतना शोर क्यों मचाते हैं? क्या उन्होंने अपने गिरेबान में झाँक कर देखा है?
सावरकर को गाँधी जी की हत्या की साज़िश में शामिल होने या न होने की बात पर उन्हें भारत रत्न दिया जाना या न दिया जाना तो समझ में आता है लेकिन सावरकर के माफ़ीनामे को लेकर जो शोर मचाया जाता है. उसकी पृष्ठभूमि जानना बहुत ज़रूरी है. सावरकर यह मान रहे थे कि वो जेल में पड़े-पड़े देश के लिए कुछ भी नहीं कर पाएंगे. उन्होंने अपने माफ़ीेनामे के पीछे अपना उद्देश्य यह बताया था कि वो राजनीतिक गतिविधयों से सन्यास लेकर भारत-जागरण अभियान को सफल बनाएँगे. 1924 में जेल से छूटने के बाद वो सक्रिय य राजनीति से दूर ही रहे. लेकिन उनके माफ़ीनामे को लेकर उन्हें कायर सिद्ध करना किसी को शोभा नहीं देता है. 

यह बात सबको पता नहीं है कि शिवाजी (तब तक वो छत्रपति नहीं हुए थे) ने भी आगरे के किले में क़ैद किए जाने के बाद औरंगज़ेब को माफ़ीनामा भेज कर उस से रिहाई की प्रार्थना की थी.

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

एक महीना, चार तारीख़ें

(यह कोई कल्पना-लोक की कथा नहीं है बल्कि लखनऊ यूनिवर्सिटी में 1977 में हुई एक सच्ची घटना है. मृत प्रभात की माँ को अपनी कार में लेकर मेरी चाची, लखनऊ मेडिकल कॉलेज के मॉर्ग तक गयी थीं. मैं उनके साथ कार की आगे की सीट पर बैठा था और प्रभात की माँ कार की पिछली सीट पर अध-लेटी खुद से ही न जाने कितनी बातें कर रही थी. उसी के स्वगत प्रलाप के आधार पर इस दुखद कथा का ताना-बना बुना गया है.)
एक महीना, चार तारीख़ें
1. पहली तारीख़ – प्रभात
आज मैंने अपनी पीएच. डी. थीसिस सबमिट कर दी. मेरी ख़ुशी की कोई इंतिहा नहीं थी लेकिन मेरे गुरु जी, मेरे गाइड, मेरे आदर्श, प्रोफ़ेसर मेहता, मेरे सर, ने अपने चरणों में झुके हुए इस नाचीज़ के कानों में जैसे कोई बम फोड़ते हुए कहा –
‘बरखुरदार, आज से तुम्हारी फ़ेलोशिप बंद हो जाएगी.’
मेरे तो प्राण ही निकल गए. मैं मन ही मन सोच रहा था -
‘अम्मा-बाबूजी ने मुझे इस मुक़ाम तक पहुंचाने में अपनी हर छोटी-बड़ी ज़रुरत की कुर्बानी दी है और अपने तीस बीघा खेत में से दस बीघा खेत बेच दिए हैं. इधर मैं हूँ कि उस नुक्सान को अब और बढ़ाने वाला हूँ.’
लेकिन तभी सर ने मेरे कानों में मिस्री घोलते हुए कहा –
‘कल से तुम हमारे डिपार्टमेंट में एक लेक्चरर की ज़िम्मेदारी सँभाल रहे हो. ये रहा तुम्हारा अपॉइंटमेंट लैटर !’
मेरे कानों में जैसे मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं. सर ने इसके आगे क्या कहा, मुझको इसकी कोई खबर ही नहीं हुई.
अम्मा की पैबंद लगी धोती की जगह कोई अच्छी सी साड़ी, उनके शरीर पर मंगल सूत्र के अलावा सभी बेचे गए गहनों में से कम से कम दो-चार की वापसी, बाबू जी के घर में ही रफ़ू किए गए कुर्ते की जगह राजेश खन्ना के स्टाइल वाला कुर्ता और उनकी टूटी-फूटी साइकिल की जगह चमचमाती मोटर साइकिल, बारिश के मौसम में टपकती छत और दरार पड़ी दीवारों वाले हमारे घर का पूर्ण-जीर्णोद्धार, और फिर उसी घर में प्रवेश करती, दुल्हन बनी लजाती-सकुचाती, मुस्काती रजनी !
ये सब के सब अधूरे सपने, एक साथ ही मेरी आँखों में तैरने लगे थे.
सर से विदाई लेकर मैंने जब सबसे पहले यह खुशखबरी जगन चाचा के घर ट्रंक कॉल कर के अम्मा-बाबूजी को सुनाई तो उनकी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. पचास रूपये का ट्रंक कॉल करने में जेब हल्की ज़रूर हुई और फिर रजनी के साथ जश्न मनाने में भी पचास रुपयों की एक्स्ट्रा चोट लग गयी लेकिन आज के दिन इन सब का क्या अफ़सोस करना?
अब तो रात के दस बज रहे हैं. हॉस्टल पहुँच कर अम्मा की भेजी हुई मठरियां खाते हुए अपने पहले लेक्चर की तैयारी कर लेता हूँ, क्या मालूम कि बिना कोई नोटिस दिए हुए ही, हमारे सर, कल ही मुझे स्टूडेंट्स को सुपुर्द कर दें !
अब देखिए, फ़िल्म ‘अंदाज़’ के इन राजेश खन्नाओं को ! बिना लाइट जलाए, हवाई जहाज की स्पीड से मोटर साइकिल चलाते हुए इनको न तो अपना कोई ख़याल है और न ही राह चलते किसी और का.
लेकिन ये पलट कर क्यों आ रहे हैं?
हे भगवान ! ये क्या हुआ? इन्होने मुझे गोली क्यों मारी?
अम्मा ! अम्मा ! बाबूजी ! रजनी ----------
2. दसवीं तारीख – प्रोफ़ेसर मेहता
क्या से क्या हो गया?
मुदर्रिसी के अपने तीस साल के करियर में मैंने प्रभात जैसा ब्राइट स्टूडेंट और कोई नहीं देखा है. सच में गुदड़ी का लाल है यह लड़का ! कुछ ही वक़्त के बाद इसे हमारे रिसर्च-प्रोजेक्ट के सिलसिले में अमेरिका भी तो जाना है. रजनी से इसकी शादी भी तो होनी है.
इसको लेकर इसके अम्मा-बाबूजी ने क्या-क्या सपने देखे होंगे?
इसकी और रजनी की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है? लेकिन अब क्या होगा?
नौ दिन में इसके तीन ऑपरेशन तो हो चुके हैं, इसको 37 बोतल तो खून चढ़ चुका है. तीन दिन तो यह कोमा में रहा है.
कौन लोग थे जिन्होंने इसे गोली मारी?
इसकी तो किसी से दुश्मनी नहीं थी. गाँव का भोला-भाला, सिर्फ़ पढ़ाई से मतलब रखने वाला, गरीब घर का लड़का जो कि ऊंचे स्वर में बोलना तक नहीं जानता. पुलिस कह रही है कि स्टूडेंट यूनियन के वाईस प्रेसीडेंट सुभाष अग्रवाल के धोखे में इसे गोली मारी गयी है. अब अपराधी पकड़े जाएं और उन से पूछताछ कर के असलियत पता भी चल जाए तो जो अनहोनी प्रभात के साथ हुई है उसकी भरपाई तो नहीं होगी.
वैसे डॉक्टर्स बहुत होपफ़ुल हैं. बहुत जल्दी रिकवर कर रहा है, हमारा ज़ख़्मी शेर.
एक महीना अस्पताल में बिता कर जब प्रभात डिपार्टमेंट में वापस आएगा तो हम सब जश्न मनाएंगे.
यूनिवर्सिटी इसके इलाज का पूरा खर्चा उठा रही है. इसको खून देने के लिए मेडिकल कॉलेज में लड़के-लड़कियों का हुजूम उमड़ पड़ा था. कितनों की दुआएं इस मासूम के साथ हैं !
इसके अम्मा-बाबूजी और रजनी तो हॉस्पिटल से रोज़ मंदिर जाते हैं. मैं बरसों से मंदिर नहीं गया था लेकिन इसकी वजह से मुझ जैसा नास्तिक भी संकट मोचक के दरबार में कई बार हाज़री लगा चुका है.
हे भगवान ! सब मंगल करना !
3. बीसवीं तारीख़ – रजनी
आज डॉक्टर मित्तल ने ऐसी खबर सुनाई है जिसका हम सब को पिछले 19 दिनों से इंतज़ार था. अम्मा-बाबूजी का बबुआ और मेरा प्रभात अब एक हफ़्ते में हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो जाएगा.
लखनऊ मेडिकल कॉलेज की हिस्ट्री में यह ऐसा पहला केस होगा जिस में कि इतने ज़्यादा ब्लड-लॉस के बाद किसी की रिकवरी हुई हो. लेकिन हमारी दुआएं तो क़ुबूल होनी ही थीं.
प्रभात ने तो आज तक किसी चींटी का भी दिल नहीं दुखाया होगा. उस बेक़सूर को भला भगवान जी क्यों सज़ा देंगे?
सब कुछ ठीक हो जाएगा. हाँ, यह ज़रूर है कि इस में काफ़ी वक़्त लगेगा. लेकिन मेरा हीरो लेक्चरर भी बनेगा और अमेरिका भी जाएगा.
प्रभात का सपना कि मैं उसके घर में दुल्हन के भेस में प्रवेश कर रही हूँ और अम्मा मेरी आरती उतार रही हैं, यह भी ज़रूर पूरा होगा.
अभी तो प्रभात की थीसिस तैयार करवाने में अपने रोल का उस से एक ज़बर्दस्त इनाम भी तो मुझे लेना है. उसकी और मेरी फ़ेलोशिप का एक बड़ा हिस्सा तो हमारी रिसर्च की ही भेंट चढ़ जाता था लेकिन अब तो उसकी सेलरी हमारा आर्थिक-संकट दूर कर देगी.
कब तक हम पैदल परेड करेंगे या रिक्शे में बैठकर उस में हिचकोले खाते रहेंगे?
हमारे वुड बी डॉक्टर प्रभात और उनकी वुड भी डॉक्टर रजनी का जोड़ा एक मोटर साइकिल तो डिज़र्व करता ही है.
हनीमून के लिए प्रभात को मुझे स्विट्ज़रलैंड में आल्प्स की पहाड़ियों में नहीं तो कम से कम श्री नगर की हसीं वादियों में तो ज़रूर ही ले जाना पड़ेगा.
लेकिन अपने इन तमाम सपनों पर मुझे ब्रेक लगाना पड़ेगा.
मम्मी-पापा तो देहरादून से आकर एक तरह से लखनऊ में ही बस गए थे. दोनों प्रभात पर जान छिड़कते हैं. मैंने ही ज़बर्दस्ती उन्हें वापस देहरादून भेजा है.
प्रभात के पूरी तरह से रि-कवर करते ही वो हमारी शादी की प्लानिंग कर रहे हैं.
सच ! कितना अच्छा लगता है जब किसी लड़की के मम्मी-पापा उसकी पसंद के लड़के को अपनी पसंद बना लें !
मैं कितनी लकी हूँ !
4. तीसवीं तारीख – अम्मा
जय हो बजरंग बली ! आज मेरा बबुआ अस्पताल से छुट्टी पा जाएगा.
भगवान भला करे डागदर मित्तल का ! वो मेरे बबुआ को मौत के चंगुल से छुड़ा कर लाए हैं.
अब तो बबुआ बिस्तर से खुद उठ कर गुसलखाने चला जाता है और रजनी का हाथ पकड़ के बरामदे में थोड़ा घूम भी लेता है.
मेरा बबुआ राजी-खुसी घर पहुँच जाए तो मैं और बबुआ के बाबूजी चारों धाम की जात्रा करेंगे.
बबुआ और रजनी की जोड़ी तो राम-सीता की जोड़ी लगती है. कितना प्यार है इनका आपस में !
रजनी का बस करे तो वो बबुआ को छोड़कर अस्पताल से कभी जाए ही नहीं पर मैं ही उसे ढकेल कर उसके हॉस्टल भेजती हूँ.
इत्ते बड़े घर की लड़की, मुझ गंवार को अपनी माँ के जैसा मान-सम्मान देती है और बबुआ के बाबूजी की तो ऐसी सेवा करती है कि पूछो मत !
अब हमको दो-तीन महीने लखनऊ में ही किराए का घर लेकर रहना होगा. डागदर मित्तल कह रहे थे कि बबुआ को अभी वो लखनऊ से बाहर नहीं जानें देंगे.
थोड़ा कर्जा सर पर जरूर चढ़ जाएगा लेकिन अपने बबुआ की सेवा करने में हम कोई भी कोताही नहीं बरतेंगे.
5-10 बीघा खेत भी बेचनें पड़ें तो क्या चिंता है?
हमारा बबुआ सलामत रहे, हमको और क्या चाहिए !
बबुआ को घर के घी के बने पकवान खिलाऊँगी, उसे बादाम खिलाऊँगी, उसकी किसी भी दवा का कभी नागा नहीं होने दूंगी और जब तक वो पूरी तरह से तंदुरुस्त नहीं हो जाता, उसे कोई भी काम नहीं करने दूंगी.
अब अस्पताल से अपना बोरिया बिस्तर बाँधने की सुभ घड़ी आ गयी है.
चलो जी, मंदिर में मत्था तो टिका आए, अब देखें कि हमारा बबुआ क्या कर रहा है !
हाय राम ! बबुआ के कमरे में इतने सफ़ेद कोट वाले काहे को भीड़ लगाए हैं?
कहीं मेरे बबुआ को कुछ हो तो नहीं गया?
हाय ! मेरे मुंह से ये क्या निकल गया?
हे राम जी ! हे संकट मोचक ! मेरे बबुआ की भली करियो ! वही हमारे जीवन की आस है !
डागदर साहब ! मेरे बबुआ को क्या हो गया?
आप कुछ बोलते क्यों नहीं?
अरे मेरे बबुआ का मुंह क्यों ढांप रहे हो तुम लोग?
इसको तो आज अस्पताल से छुट्टी मिलनी है.
मेरे मंदिर जाने तक तो ये भला-चंगा था.
डागदर साहब, आप मुझे मेरा बबुआ वापस कर दो. मैं घर में ही उसकी रात-दिन सेवा कर के उसे ठीक कर लूंगी.
अरे ! मुझे छोड़ो ! मुझे बबुआ का मुंह तो देख लेने दो !
बबुआ के बाबूजी ! ऐसे अपना सर मत पीटो, हमारा बबुआ अभी उठ खड़ा होगा.
मेरे हाथ से बजरंग बली का परसाद भी खाएगा.
रजनी बिटिया ! ये क्या हो गया?
तेरी तपस्या क्या अकारथ चली गयी?
मेरा बबुआ ! मेरा लाल ! मेरा छौना !
मुझे छोड़ कर मत जा बेटा !
लौट आ बेटा ! लौट आ ----- !

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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

पुलिस एनकाउंटर ????????

पुलिस एनकाउंटर ???????????
हैदराबाद में दिशा के बलात्कार और उसकी हत्या के चारों आरोपी पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए फिर उन सभी को कल रात के तीन बजे मौक़ा-ए-वारदात पर अपराध की घटना को रिेक्रियेट करने के लिए ले जाया गया, जैसे ही इस प्रक्रिया के लिए अभियुक्तों की हथकड़ियाँ खोली गईं, वो मौक़ा पाकर भाग निकले. हमारी तेलंगाना की जांबाज़ पुलिस ने उन चारों भाग रहे आरोपियों को 10 से 20 फ़ुट की दूरी से मार गिराया.
आज देश भर में तेलंगाना पुलिस की जय-जयकार हो रही है. मृत दिशा के परिवार वाले इन वहशी दरिंदों की ऐसी मौत पर संतोष व्यक्त कर रहे हैं. सभी राजनीतिक दल भी इस पुलिस एनकाउंटर का स्वागत कर रहे हैं. उमा भारती ख़ुश हैं, मायावती ख़ुश हैं, बरखा रानी ख़ुश हैं और आम नागरिक तो बहुत ही ज़्यादा ख़ुश हैं.
लेकिन मेरी दृष्टि में तेलंगाना पुलिस का यह कृत्य उसके निकम्मेपन का द्योतक है. अपराध की घटना के रिक्रिएशन के समय यह तो तय है कि सभी आरोपी निहत्थे होंगे और चारों तरफ़ से पुलिसकर्मी उन्हें घेरे होंगे. ऐसी स्थिति में अगर वो भागे तो क्या उनमें से एक को भी ज़िन्दा नहीं पकड़ा जा सकता था? और अगर फ़रार होने की कोशिश में उनके गोली लग भी जाती तो क्या यह ज़रूरी था कि वह उन सब के लिए प्राण-घातक ही सिद्ध होती?
इन सवालों को देर-सवेर उठाया ज़रूर जाएगा, मैं ज़रा जल्दी ही इन सवालों को उठा रहा हूँ. लेकिन इन सवालों पर विचार-विमर्श करना बहुत ज़रूरी है. फ़ेक-एनकाउंटर्स के इतिहास में इस से ज़्यादा लचर दलील वाला एनकाउंटर मैंने तो आज तक न तो कभी देखा और न ही कभी सुना.
वैसे मरने वाले चारों आरोपियों के मारे जाने पर कौन आंसू बहाएगा? मैं भी उनके इस अंजाम से दुखी नहीं हूँ. लेकिन उन्हें ख़त्म किए जाने का तरीका मुझे क़तई स्वीकार्य नहीं है? मेरे दिमाग में चंद सवालात और उठ रहे हैं-
1. 'यह कैसे सिद्ध हो गया कि ये चार आरोपी ही असली मुजरिम थे?
2. क्या कोई और इस जघन्य कृत्य के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो सकता था? 3. अब चूंकि ये चारों मारे जा चुके हैं तो इनके साथ और कोई था या नहीं, यह कैसे पता चलेगा?
4. पुलिस कहेगी कि ये चारों इकबाल-ए-जुर्म कर चुके थे. इस पर सवाल उठाया जा सकता है कि क्या पुलिस अपने डंडे के जोर पर आरोपियों से अक्सर इकबाल-ए-जुर्म नहीं करवा लेती है?
5. ऐसे एनकाउंटर आसाराम, कुलदीप सेंगर या चिन्मयानन्द जैसे बलवानों के विरुद्ध क्यों नहीं होते?

हमको भावना के रेले में बहना नहीं चाहिए. कैसी भी स्थिति हो, पुलिस को क़ानून को अपने हाथों में नहीं लेना चाहिए. जया बच्चन ने संसद में बलात्कार के अपराधियों को भीड़ के हवाले किए जाने का सुझाव दिया था. हैदराबाद में पुलिस द्वारा कुछ-कुछ मॉब-लिंचिंग जैसा ही किया गया है. मैं झूठ के इस पुलिंदे की घोर भर्त्सना करता हूँ.

मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

सिर्फ़ रोएँ और कोसें कि कुछ करें भी?



सिर्फ़ रोएं और कोसें कि कुछ करें भी? - 
हैदराबाद में प्रियंका रेड्डी के साथ जो हुआ, वह किसी और लड़की के साथ न हो, इसके लिए सरकार की, पुलिस की, प्रशासन की और समाज की क्या रण-नीति है? ब्लेम-गेम तो अब तक बहुत खेला जा चुका है पर इस क्षेत्र में ठोस क़दम, क्या-क्या उठाए गए हैं? किसी भी क्षेत्र के आवारा और बदनाम लोगों की गतिविधियों पर नज़र बनाए रखने के लिए स्थानीय पुलिस क्या-क्या उपाय करती है? सचल-पुलिस दल अँधेरा होने पर कहाँ-कहाँ और कब-कब गश्त लगाते हैं? किसी लड़की के लापता होने की सूचना मिलने पर या उसके साथ किसी हादसे की सूचना मिलने पर पुलिस कितने समय में कार्रवाही करती है? अपेक्षाकृत सुनसान इलाक़ों में सुरक्षा के क्या-क्या प्रबंध किए गए हैं? सी. सी. टीवी की कहाँ-कहाँ व्यवस्था है और वो कहाँ-कहाँ चालू हालत में हैं? इन सवालों के संतोष-जनक जवाब कोई नहीं दे सकता क्योंकि इस दिशा में कोई सार्थक और ठोस क़दम कभी उठाया ही नहीं गया है. और फिर ऐसी व्यवस्था अगर की भी गयी तो वह केवल महानगरों तक ही सीमित रहेगी. छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में महिला-सुरक्षा तो तब भी राम-भरोसे रहेगी.
ऐसे हादसे फिर न हों और अगर कभी हो भी जाएं तो ऐसा अपराध करने वाला कोई भी दरिंदा कानून के शिकंजे से बच न पाए, इसके लिए स्थानीय पुलिस की और सरकार की ज़िम्मेदारी तो निश्चित हो ही जानी चाहिए.
शेरशाह केवल पांच साल दिल्ली के तख़्त पर बैठा था उसके ज़माने में वाक़ई शेर और बकरी एक ही घाट से पानी पी सकते थे. शेरशाह का शासन-प्रबंध ऐसा था कि अपराध होने की इक्का-दुक्का घटनाएँ ही हो सकती थीं और अगर कहीं कोई आपराधिक घटना हो गयी तो स्थानीय अधिकारी को इसका जवाब देना होता था कि ऐसा क्यूं और कैसे हो गया, फिर उसके बाद एक समय-सीमा में ही उस को अपराधी को पकड़ना होता था और अगर अपराधी उस समय-सीमा में पकड़ा नहीं जा सकता था तो अपराधी की सज़ा उस अधिकारी को भुगतनी पड़ती थी. शेरशाह के ज़माने का एक किस्सा है –
एक सुनसान इलाक़े में, शाम के धुंधलके में, एक बुढ़िया अपने सर पर एक खुली टोकरी में, जेवर लेकर, पैदल जा रही थी. बुढ़िया को देखकर आने-जाने वाले राहगीर उस से दूर भाग रहे थे. एक परदेसी ने यह नज़ारा देखा तो उसने बुढ़िया से दूर भागते एक आदमी से पूछा –
भाई ! ऐसे सुनसान इलाक़े में, ऐसे खुलेआम जेवर लेकर जाने में, लुटने का खतरा तो इस बुढ़िया को है, पर तुम लोग क्यों भाग रहे हो?
उस आदमी ने भागते-भागते जवाब दिया –
बुढ़िया को कोई लूटेगा या नहीं यह तो मैं नहीं जानता. लेकिन अगर उसके साथ कोई वारदात हो गयी तो बादशाह किसी भी ऐसे शख्स को नहीं छोड़ेगा जो वारदात के वक़्त बुढ़िया के आस-पास भी था.
क्या भारत के इतिहास में शेरशाह जैसा कर्मठ योग्य और समर्पित शासक में फिर होगा? क्या वह समय आएगा जब कोई आम लड़की पुलिस वालों पर भरोसा कर के सुनसान इलाक़ों में भी खुद को सुरक्षित अनुभव करेगी? आज तो हालत यह है कि लड़कियां पुलिस वालों से भी उतना ही सशंकित रहती हैं, जितना कि गुंडों से.
हमको हर क्षेत्र में अपराध को रोकने की समुचित व्यवस्था करनी होगी. जिस दिन प्रियंका के साथ हुए हादसे जैसी किसी वारदात की ज़िम्मेदारी  स्थानीय पुलिस, स्थानीय प्रशासन, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री, लेफ्टिनेंट गवेर्नर  और प्रधानमंत्री की हो जाएगी, उस दिन से ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति स्वतः रुक जाएगी.
अख़बारों में फ़ेसबुक पर, टीवी पर जन-प्रतिनिधि सभाओं में जन-सभाओं में कैंडल-मार्चों में धरनों में और आन्दोलनों में सिर्फ़ नौटंकियाँ हो रही हैं. हर कोई इस हादसे के बहाने लाइम-लाइट में आना चाहता है, सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहता है. कितने ही लोग इस हादसे को सियासती मोड़ दे रहे हैं और कितने ही लोग इसे मजहबी मोड़ दे रहे हैं. हमको अपराधियों के साथ ऐसी  रुग्ण-मानसिकता वाले अवसरवादियों को भी बे-नकाब करना होगा.
एक ज़माना था जब लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल-हादसे के बाद अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी मानते हुए रेल-मंत्री के पद से त्याग-पत्र दे दिया था. तेलंगाना में प्रियंका रेड्डी के साथ हुए हादसे की क्या किसी ने भी ज़िम्मेदारी ली है? क्या किसी ने भी त्याग-पत्र दिया है?
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो गीत सुनकर हमारी आँखें भर आती हैं पर अब हमको –
अगले जनम मोहे बिटिया कीजो तो भारत में मोहे जनम न दीजो.’
गीत सुनकर शर्मिंदा न होना पड़े. इसके लिए हमको जी-जान से जुट जाना चाहिए. कभी तो हम महाराष्ट्र की उठा-पटक, झारखंड के चुनाव, राम जन्म-भूमि, तथाकथित गो-तस्करों की मॉब-लिंचिंग, बुलेट ट्रेन और पाकिस्तान निंदा-पुराण से हटकर, अपनी माँ, बहन, बहू-बेटियों की सुरक्षा और उनके सम्मान की रक्षा के बारे में सोचें ! कभी तो हम मासूम कलियों को बेख़ौफ़ खिलने दें और महकने दें !                   

शनिवार, 30 नवंबर 2019

मुंबई का सबक़



सत्य, त्याग औ नैतिकता को, नहीं भूल कर अपनाना,
इर्द-गिर्द, कुर्सी के, बुन लो, जीवन का, ताना-बाना,
गठबंधन की राजनीति का, मर्म, यही हमने जाना,
अगर ज़रुरत पड़े, गधे को बाप, मान, मत शर्माना.

मंगलवार, 26 नवंबर 2019

बाबा भारती और खड़ग सिंह

आज से 12-13 साल पहले की बात होगी. उन दिनों मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में कार्यरत था. ग्रेटर नॉएडा में हम अपने मकान का ग्राउंड फ्लोर किराए पर उठाते थे और उसकी ऊपरी मंज़िल अपने उपयोग के लिए रखते थे. आजकल की ही तरह उन दिनों भी ग्रेटर नॉएडा में किराएदारों की भारी किल्लत थी. हमारा ग्राउंड फ्लोर आदतन फिर किराए के लिए खाली हो गया था.
मुझे ‘मिशन-किराएदार’ के लिए अल्मोड़ा से ग्रेटर नॉएडा प्रस्थान करना पड़ा. लम्बी छुट्टी लेने में असमर्थ होने के कारण पांच-छह दिनों के अन्दर ही मुझको एक किराएदार खोजना था. मैंने कई प्रॉपर्टी डीलर्स से बात की जिनमें से कई इच्छुक किराएदारों को लेकर हमारा मकान दिखाने आए भी लेकिन हमको किराएदार के रूप में सिर्फ़ पढ़ा-लिखा, नौकरी-पेशा, शाकाहारी और वो भी सीमित परिवार वाला बन्दा चाहिए था. इसलिए बात बनते-बनते हर बार बिगड़ ही रही थी.
एक प्रॉपर्टी डीलर दल-बल के साथ मेरा स्व-घोषित भतीजा बन गया था. अपनी मीठी-मीठी, लल्लो-चप्पों वाली बातों से, इस दल ने मेरा दिल जीत लिया. इस मित्र-मंडली ने कई लोगों को मेरा मकान दिखाया पर किसी से भी डील नहीं हो पाई. मेरे अल्मोड़ा लौटने का वक़्त क़रीब आ रहा था. मुझे लग रहा था कि मकान में ताला लगाकर ही मुझे लौटना होगा लेकिन तभी एक ऐसा नौजवान मेरे पास आया जो कि किराएदार के रूप में मेरी शर्तों को पूरा करता था. चूंकि यह नौजवान बिना किसी प्रॉपर्टी डीलर के आया था इसलिए उसके अनुरोध पर मैंने प्रॉपर्टी डीलर को कमीशन के रूप में दिया जाने वाला 15 दिन का किराया उसके लिए माफ़ कर दिया. एडवांस, सीक्योरिटी, एग्रीमेंट वगैरा, सब कुछ ठीक-ठाक हो गया.
अगले दिन मुझे अल्मोड़ा के लिए प्रस्थान करना था कि तभी मेरा स्व-घोषित भतीजा अपने दल के साथ आ धमका. इस बार भतीजे की बातों में चाशनी नहीं, बल्कि करेला घुला हुआ था. भतीजे ने बताया कि मेरा किराएदार पहले उसके पास आया था इसलिए उसे और मुझे यानी कि हम दोनों को ही, कमीशन की रकम उसको देनी चाहिए थी. मुझे उसकी यह मांग स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि मेरा किराएदार स्वतंत्र रूप से मेरे पास आया था.
बहस होती रही. न वो टस से मस हुआ और न ही मैं झुका और बात बिगड़ती चली गयी. अंत में भतीजा दहाड़ा –
‘अंकल जी, मैं यहाँ का नामी गुंडा हूँ और फिर हम चार लोग हैं. हमको बिना पैसे दिए आप अल्मोड़ा साबुत तो नहीं जा पाएंगे.’
मैंने फिर भी पैसे देने से इंकार करते हुए, बेख़ौफ़ होकर, चांडाल-चौकड़ी को एक सुझाव दिया –
‘वीर बालकों ! एक 56 साल के अकेले बुज़ुर्ग को उसके घर में मारने में क्या मज़ा आएगा? ऐसा करो कि तुम लोग मुझे चौराहे पर मारो ताकि तुम्हारी बहादुरी सैकड़ों लोग देख सकें.’
फिर क्या हुआ?
फिर वही हुआ जो कि सुदर्शन की कहानी – ‘हार की जीत’ में बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह के बीच हुआ था. डाकू खड़गसिंह और उसके तीनों साथी, बाबा भारती को पूरी तरह से साबुत छोड़कर अपनी-अपनी नज़रें झुका कर लौट गए.
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम लोग स्थायी रूप से ग्रेटर नॉएडा में बस गए. कई साल बीत गए. एक दिन बाज़ार से मैं पैदल ही लौट रहा था कि एक शानदार ऑडी कार मेरे सामने रुकी, उसमें से एक नौजवान और एक नवयुवती उतरे. पहले उस नौजवान ने मेरे पैर छुए और फिर उस नवयुवती ने. बिना पहचाने ही मैंने उन दोनों को आशीर्वाद दे दिया.
अब उस नौजवान ने पूछा –
‘अंकल जी, आपने मुझे पहचाना?’
अंकल जी बुद्धू बन कर कुछ देर तक चुपचाप खड़े रहे फिर बोले –
‘भई, बुढ़ापे में याददाश्त कमज़ोर हो जाती है. कुछ याद नहीं आ रहा. हाँ, तुम मुझे अंकल कह रहे हो तो इसका मतलब यह तो निकलता है कि तुम मेरे कोई स्टूडेंट नहीं हो.’
नौजवान ने मुस्कुराकर कहा –
‘हाँ, मैं आपका कोई स्टूडेंट नहीं हूँ. आपको याद नहीं आ रहा है. मैं तो वही लड़का हूँ जिस से मकान के कमीशन को लेकर आप से चक-चक हुई थी.’
मेरे दिमाग की बत्ती फ़ौरन जल उठी और वह दस साल पुराना दृश्य मेरी आँखों के सामने तैरने लगा. मेरे दिमाग में एक शरारत कौंधी. मैंने अपने हाथ जोड़कर उस नौजवान से पूछा –
‘बालक ! क्या तेरे पुराने साथियों ने तेरा साथ छोड़ दिया जो तू अब अपनी प्यारी सी दुल्हनिया के साथ निहत्थे राहगीरों को लूटने लगा है?’
बालक ने शर्माते हुए कहा –
‘अंकल जी, आपने अभी भी मुझे माफ़ नहीं किया है.’
मैंने उसे इत्मीनान दिलाते हुए कहा –
‘तुझे और तेरे साथियों को तो मैंने तभी माफ़ कर दिया था लेकिन अपनी उस बेवकूफ़ी के लिए मैंने ख़ुद को आज तक माफ़ नहीं किया है. सच कहूं तो मैं तुम सब का तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ कि तुम लोगों ने मुझ दूध के जले को छाछ भी फूँक-फूँक कर पीना सिखा दिया है.’
कहानी का सुखद अंत हुआ. बाबा भारती खुल कर हँसते हुए और अपनी दुल्हनिया सहित खड़ग सिंह, खिसियानी हंसी हँसते हुए, एक-दूसरे से विदा हुए.