शनिवार, 28 दिसंबर 2019

2019 का आख़िरी तराना

मज़हब नहीं सिखाता, दूजे का, खून पीना,
कांटे भी जानते हैं, फूलों के संग, जीना.

कथनी में हम बताते, आपस में मेल करना,
करनी में सिर्फ़ भाता, लड़ना हो या कि डरना.
सारे जहाँ में होता, चर्चा यही, हमारा,
नाथू के फ़लसफ़े से, गांधी-संदेस, हारा.
दंगल का है अखाड़ा, हिन्दोस्तां, हमारा,
क्यों जन्म लें यहाँ पर, हम भूल कर, दुबारा.
सारे जहाँ से ------

14 टिप्‍पणियां:

  1. "कांटे भी जानते हैं, फूलों के संग, जीना"

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    1. राकेश कौशिक जी,
      हम फूल और काँटे की तरह - ६३ का आंकड़ा तो जानते ही नहीं, हमको तो सिर्फ़ - ३६ का आंकड़ा आता है.

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२९-१२ -२०१९ ) को " नूतनवर्षाभिनन्दन" (चर्चा अंक-३५६४) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

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    1. 'नूतन वर्षाभिनंदन' (चर्चा अंक - 3564) में मेरी कविता को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता. आप लोगों का प्यार और प्रोत्साहन मेरी लेखनी को नित नई ऊर्जा देता है.

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद नितीश जी.
      इस कविता को सिर्फ़ पढ़ना ही नहीं है, बल्कि इस में उठाई गयी बातों पर गौर भी करना है.

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  4. अगली बार पहले से पाकिस्तान में पैदा हो लेंगे। हा हा।

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    1. पाकिस्तान में मनुष्य योनि में पैदा होने से तो बेहतर होगा कि हम भारत में ही छिपकली योनि में या उलूक योनि में पैदा हो जाएँ.

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    2. मतलब हमारा जो करोगे यहींं करोगे?

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  5. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स क्या हाथ आए शिकार का कहीं और ट्रांसफ़र करते हैं?

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  6. होता है यहाँ हर रोज़ एक नया नजारा.. बेहतरीन रचना आदरणीय 👌👌

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    1. धन्यवाद अनुराधा जी !
      कवि शैलेन्द्र हमारे दिल से निकली आह को महसूस कर के लिख गए है -
      ऐ मेरे, दिल कहीं और चल,
      गम की दुनिया से, दिल भर गया,
      ढूंढ़ ले अब कोई, घर नया ---

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