कबीर
! तू आज फिर से बहुत याद आ रहा
है
!
और
साहिर
! तूने क्या अपनी नज़्म -
'जिन्हें
नाज़ है हिन्द पर, वो
कहाँ हैं?'
आज
लिखी है?
आख़िर
में कबीर की बात - 'मरम
न कोई जाना'
पर
नेता जी का जवाब -
धर्म-मज़हब
का मरम, मैंने
भले, जाना
न हो,
पर
सबक़ – ‘कुर्सी-मरम’, मुझको ज़ुबानी याद है.
आदरणीय गोपेश जी , इस प्रश्न का जवाब शायद ही कोई दे पाए | सुलगती दिल्ली में किसका घर जलकर ख़ाक हुआ और क्यों -- किसको इस दंगों से लाभ मिलेगा ? ये प्रश्न अनुत्तरित हैं | लगता नहीं इनका उत्तर मिलने वाला है | केवल कुर्सी का मर्म समझने वाले नेता ना जाने किस मांद में जा छुपे हैं ? आज कबीर होते तो उनकी प्रखर वाणी लड़खड़ा जाती और साहिर दुःख से रो पड़ते | ऐसा कुछ वे लिखकर भी गये हैं जो हर समय प्रासंगिक हैं, आज हर संवेदनशील मन ये ही पूछता है ----
जवाब देंहटाएं|ये किसका लहू है कौन मरा
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा?
ये जलते हुए घर किसके हैं
ये कटते हुए तन किसके है,
तकसीम के अंधे तूफ़ान में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं,
बदबख्त फिजायें किसकी हैं
बरबाद नशेमन किसके हैं,
कुछ हम भी सुने, हमको भी सुना !
सादर
रेणु जी, कबीर, साहिर ही क्या, हम और आप भी हिसाब में कमजोर हैं.
जवाब देंहटाएंअगर किसी एक का घर जलाने से हज़ारों के घरों के चूल्हे जलते हैं तो फिर इस से मुल्क को नुक्सान कम और फ़ायदा ज़्यादा है.
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (28-02-2020) को धर्म -मज़हब का मरम (चर्चाअंक -3625 ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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आँचल पाण्डेय
'धर्म-मज़हब का मरम' (चर्चा अंक - 3625) में मेरी रचना 'सुलग रही क्यूं दिल्ली, फिर-फिर' को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आंचल !
हटाएंआदरणीय गोपेश जी प्रणाम! धर्म का मर्म भले ही हम कभी समझ न पायें परन्तु सत्ता का धर्म हमसब बख़ूबी समझ गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदहारण है साहित्यकार प्रजाति जो कि इन राजनेताओं के हाथों की कठपुतली बन बैठा है। साहित्य की इतनी भयानक दुर्दशा कि राजनीति भी घबरा जाए और कहे- बस-बस बहुत मक्खन हो गया। अरे भई मैं तो हार्ट का मरीज़ हूँ। सादर
जवाब देंहटाएंएकलव्य, तुमको मुलायम सिंह की सरकार द्वारा प्रचलित - 'यश भारती' पुरस्कार तो याद होगा. 11 लाख रूपये नक़द और 50 हज़ार मासिक की पेंशन ! इसे पाने वाले दो-चार तो प्रतिष्ठित साहित्यकार-कलाकार होते थे और बाक़ी दोयम दर्जे के साहित्यकार-कलाकार लेकिन अव्वल दर्जे के चाटुकार-भांड हुआ करते थे. योगी-सरकार द्वारा अब यह पुरस्कार बंद किया जाने वाला है. अब धर्मांध चमचों के लाभार्थ सरकारी ख़ज़ाना लुटाया जाया करेगा.
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सही कहा कुर्सी का मरम बस कुर्सी का मर्म ही तो जानते हैं इसी कुर्सी के खातिर सियासत चल रही है काफी है.....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
सुधा जी, कुर्सी-धर्म बहू-उद्देशीय और बहु-आयामी होता है. जो इसके मर्म को समझ गया, वह ख़ुद ही क्यों, उसकी आने वाली सात पीढ़ियाँ तक सपने में भी दरिद्र और साधनहीन नहीं हो सकतीं.
हटाएंजो जरूरी है याद रखें है।क्या हुआ और क्यों?यह जानकर कौन समय नष्ट करें।सब अपना फायदा तो ढूँढ ले पहले, फिर देखा जाएगा।
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी, ये तो मेरा लिखने का अंदाज़ है. भगवान की कृपा है कि इस उम्र में भी याददाश्त सही-सलामत है. हाँ, अब पहले जैसी बात नहीं रही.
जवाब देंहटाएंफ़ायदा तो लोग दंगों में भी खोज ही लेते हैं.
कफ़न बेचने वाले के यहाँ ख़ूब रौनक रहती है, श्मशान और क़ब्रिस्तान आबाद रहते हैं. नेताओं को अगले चुनाव के लिए मुद्दा मिल जाता है और वित्तीय अनुदान-मुआवज़े आदि के वितरण के नाम पर मंत्रियों-अफ़सरों की तिजोरियां भर जाती हैं.
गोपेश भाई, यहीं तो विडंबना हैं कि नेता लोगों को बाकि कोई काम बराबर आता हो या न आता हो लेकिन कुर्सी का मर्म वे भलीभांति समझते हैं।
जवाब देंहटाएंज्योति, नेताओं की तो फ़ुलटाइम जॉब है, कुर्सी-पकड़ के रखना ! अब वो बेचारे अपने इस फ़र्ज़ से मुंह मोड़कर कुछ और करेंगे तो यह उनको शोभा नहीं देगा.
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