(यह कहानी मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – ‘कलियों की मुस्कान’ से ली गयी है जिसमें कि मेरी 12 साल की बेटी गीतिका अपने किस्से सुनाती है. इस कहानी का रचना-काल 1990 का दशक है)
एक शख्स एक साथ कितने खेलों में रिकॉर्ड तोड़ परफॉरमेंस कर सकता है? पुरुषोत्तम तिवारी यानी कि हमारे पी. टी. सर ख़ुद को क्रिकेट में चैंपियन ऑल राउंडर तो कहते ही हैं लेकिन उनके ख़याल में अन्य खेलों में भी उन्होंने ऐसे-ऐसे कीर्तिमान स्थापित किये हैं कि उनको तोड़ने में कई सदियाँ लग सकती हैं.
फ़ुटबॉल का बुखार हमारे पी. टी. सर पर चार साल में एक बार यानी फ़ुटबॉल के वर्ड कप के दौरान ही चढ़़ता है पर उन दिनों उन्हें सपनों में भी पेले, माराडोना और प्लेतिनी ही नज़़र आते हैं.
वैसे तो सेन्टर फ़ारवर्ड की पोज़ीशन पर खेलकर वो राइवल टीम पर आधा दर्जन गोल कर ही सकते हैं पर गोलकीपिंग करना उन्हें सबसे ज़्यादा अच्छा लगता है.
उनका एंटिसिपेशन ग़ज़ब का है. अपोजि़ट टीम का कोई खिलाड़ी जब उनके गोल की तरफ़ बॉल लेकर बढ़ता है तो उनकी नज़र फुटबॉल पर नहीं होती है बल्कि उनका पूरा ध्यान उसके मनोविज्ञान पर होता है.
अपनी आँखों में उसके दिमाग को पढ़कर वो तुरन्त अन्दाज़ा लगा लेते हैं कि खिलाड़ी गोल में किस एंगिल से और कहाँ पर बॉल डालने वाला है, बस उधर ही डाइव लगा कर वो बॉल को गोल में जाने से रोकने की कोशिश करते हैं. सौ में से नव्वे बार अगर बॉल शैतानी करके चोरी-छुपे गोल-पोस्ट पार कर लेती है तो इसमें उनका क्या कुसूर है?
हो सकता है कि बॉल की बनावट में डिफ़ैक्ट हो या किसी साज़िश के तहत पूरी फ़ुटबॉल फ़ील्ड ही टेढ़ी बनाई गई हो.
पी. टी. सर भारत सरकार से बहुत ख़फ़ा हैं, उन्होंने मिनिस्ट्री ऑफ़ स्पोर्ट्स को कई खत लिखे कि उन्हें भारतीय फ़ुटबॉल टीम का कोच बना दिया जाए ताकि वो उसे ब्राज़ील, अर्जेन्टिना, इटली, जर्मनी और स्पेन की टीमों से भी मज़बूत बना सकें पर सरकार है कि उनके कन्सट्रक्टिव सुझावों पर ध्यान ही नहीं देती.
इसी वजह से दुनिया में भारतीय फ़ुटबॉल टीम कभी एक सौ अड़तालीसवें नम्बर पर रहती है तो कभी एक सौ पचासवें नम्बर पर.
आइए, अब हम जूनियर ध्यानचंद यानी कि हमारे पी. टी. सर के हॉकी के खेल में कमाल की चर्चा करते हैं.
हाय ! कहाँ गया वो सुनहरा दौर जब हमने एक बार ओलम्पिक्स के फ़ाइनल्स में राइवल टीम पर चौबीस गोल दागे थे.
हॉकी में ध्यानचन्द के ज़माने की ग्लोरी को अगर कोई वापस ला सकता है तो वो हैं हमारे पी. टी. सर.
हमारे पी. टी. सर के उपजाऊ दिमाग़ में पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और हालैण्ड की टीमों को मात देने के लाखों ओरिजिनल आइडियाज़ आते रहते हैं.
असली हॉकी बॉल उनके लिए ज़रा भारी पड़ती है इसलिए उनके सारे ध्यानचंदी रियाज़ कच्चे फलों से बनाई गई बॉल्स पर या फिर टेबल टेनिस की बॉल पर ही होते हैं.
स्कूल के वराण्डे में उन्होंने तरह-तरह के गुर हमको सिखाए हैं पर हम हैं कि उनकी कोचिंग से फ़ायदा उठाने की काबिलियत ही नहीं रखते.
कई टूर्नामेन्ट्स में फ़ुल बैक की पोज़ीशन पर खेलते समय उन्होंने अपनी ही टीम पर रिवर्स फि़्लक से गोल किए हैं.
आँखें मींचकर बॉल पर शॉट लगाने की अनोखी अदा की बदौलत उन्होंने अपनी ही टीम के प्लेयर्स को कई बार घायल भी किया है.
हमारी प्रिंसिपल मैम के सब्र का बाँध अब टूट चुका है.
क्रिकेट की ही तरह आजकल हॉकी के मैदान में भी पी. टी. सर को सिर्फ़ दर्शक ही बने रहने के लिए मजबूर कर दिया गया है.
पी. टी. सर ने इस अन्याय को स्कूल के लिए ही नहीं बल्कि भारतीय हॉकी के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण बताया है और यह चेतावनी भी दे दी है कि भारतीय हॉकी ने अगर उनकी सेवाएँ नहीं लीं तो फिर उसे ओलम्पिक्स, वर्ड-कप तो क्या, एशिया-कप में भी गोल्ड या सिल्वर को हमेशा-हमेशा के लिए भूलना पड़ेगा.
हमारे स्कूल के जूडो-कराते के कोच भाटिया सर इन दोनों खेलों में अपने ब्लैक ब्लैक-बैल्ट होने पर बहुत इतराते हैं.
नंगे हाथों से ईंटों का ढेर तोड़ना उनके लिए मामूली बात है.
अपनी किक्स से वो अपने दुश्मन को हवा में दो-दो मीटर तक ऊँचा उछाल देते हैं.
हम बच्चे उनके बड़े फ़ैन्स हैं पर हमारे पी. टी. सर को ऐसा करना हमारी नादानी लगती है.
पी. टी. सर हमसे कहते हैं –
‘इन विदेशी बंदरों ने भारतीयों से योग सीख कर जूडो-कराते को डवलप किया है पर तुम्हारे भाटिया सर को तो योग का ‘क, ख, ग’ भी नहीं आता. हाथ से ईंट तोड़ना कौन सा कमाल है? हमने तो योग साधना की है, पूरे शरीर को वज्र की तरह कठोर बना लिया है. कहो तो ईंट-पत्थर को हथेलियों के बीच रखकर उसका पाउडर बना दें और कहो तो इन्हीं हाथों से तुम्हारे भाटिया सर की चटनी बना कर तुम्हें पेश कर दें.’
भाटिया सर तो पी. टी. सर की बातों को हँसकर टाल जाते थे पर हम बच्चों का खून खौल जाता था. आखि़र कब तक हम अपने स्कूल के हीरो की मज़ाक उड़ते हुए देख सकते थे.
हमारी प्रिंसिपल मैम भी पी. टी. सर के दावों का बखान सुनते-सुनते बोर हो चुकी थीं.
इधर पी. टी. सर थे कि भाटिया सर से दो-दो हाथ करने के लिए बेताब हुए जा रहे थे. आखि़रकार हमारी प्रिंसिपल मैम ने इस ऐतिहासिक मुकाबले के लिए अपनी हामी भर ही दी पर एक शर्त के साथ !
उनकी शर्त यह थी कि इस महान मुकाबले को मीडिया कवरेज नहीं मिलेगा. अख़बार, आकाशवाणी और टीवी चैनल्स वालों के सामने एक ब्लैक बैल्ट जूडो चैम्पियन को हरा पाने का गौरव हाथ से छिन जाने की वजह से पी. टी. सर बहुत मायूस थे पर पूरा स्कूल तो इस भव्य दृष्य को देखने के लिए उपस्थित था ही.
मुकाबला शुरू होने से पहले ही हमारी प्रिंसिपल मैम हमारे भाटिया सर के साथ बहुत ज्यादती कर चुकी थीं. उन्होंने मुकाबले से पहले ही उनके हाथों को पीठ की ओर रस्सी से बँधवा दिया था. बेचारे को जान बचाने के लिए सिर्फ़ अपनी टाँगों का इस्तेमाल करना था.
मुकाबला शुरू होने के दो सैकिण्ड बाद ही भाटिया सर एक टाँग पर खड़े होकर अपनी दूसरी टाँग से किक मार-मार कर पी. टी. सर को हवा में कलामण्डिया खिला रहे थे.
एक बार ज़मीन पर पटके जाने बाद पी. टी. सर फ़ौरन उठ कर भाटिया सर पर झपटे पर अगले ही सैकिण्ड वो दुबारा हवा में गोते खा रहे थे.
दो मिनट में दस बार इस मनोरंजक कार्यक्रम का एक्शन रि-प्ले होने के बाद फ़ाइट रोक दी गई.
भाटिया सर को विजेता घोषित कर दिया गया. इस तरह उछाल-उछाल कर पटके जाने से पी. टी. सर रैफ़री से बहुत नाराज़ थे. उसे बहुत पहले ही भाटिया सर को डिस्क्वालीफ़ाई कर देना चाहिए था क्योंकि वो मुकाबले में अपने जूडो-कराते के दाँव आज़माने की जगह पी. टी. सर पर काले जादू का इस्तेमाल कर रहे थे.
बदकिस्मती से कोई भी दर्शक पी. टी. सर का साथ नहीं दे रहा था, बस सब हँसे जा रहे थे और ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाए जा रहे थे.
पी. टी. सर को इस मुकाबले के बाद चार दिन हॉस्पिटल ज़रूर रहना पड़ा पर उनके हिसाब से अब भाटिया सर के होश ठिकाने पर आ गए हैं वरना पी. टी. सर द्वारा अगले मुकाबले के लिए ललकारते ही भाटिया सर उल्टे पाँव क्यों भाग खड़े होते हैं?
सर्गेइ बुबका ने अपने ज़माने में पोलवाल्ट में बार-बार वर्ड रिकॉर्ड बनाकर लोगों की नाक में दम कर दिया था.
पी. टी. सर उससे बहुत ख़फ़ा थे क्यों कि उसका हर नया वर्ड रिकॉर्ड पिछले वर्ड रिकॉर्ड से बस, एकाद सेन्टीमीटर ज़्यादा होता था.
पी. टी. सर का कहना था –
‘ अब रिकॉर्ड तोड़ना है तो ढंग से तोड़ो, ऐसा कि अगले पचास साल तक न टूट पाए. वैसे भी पोलवाल्ट में कोई खास कमाल नहीं करना होता है. साँस रोक कर, पोल लेकर ज़रा तेज़ दौड़ लगाओ फिर पोल की टेक लगाकर हवा में छलांग लगा दो. इस टैक्नीक से छह-सात मीटर की ऊँचाई पार करना कौन सी बड़ी बात है? ’
सर्गेइ बुबका को छह मीटर पार करने में बरसों लगे थे पर हमारे पी. टी. सर एक ही झटके में साढ़े छह मीटर पार करना चाहते थे.
उन्होंने हमारे स्कूल के पाँच फ़ुट ऊँचे गेट को पोल के सहारे क्रास करने की प्रैक्टिस शुरू भी कर दी थी.
भाटिया सर की किक्स की मार का कलंक मिटाने के लिए उनके पास यह सुनहरा मौका था.
प्रिंसिपल मैम के लाख मना करने पर भी उन्होंने अल्मोड़ा के तमाम लोगों को इकट्ठा करके उनके सामने अपनी रिकॉर्ड ब्रेकिंग परफ़ार्मेन्स देने का फ़ैसला किया.
इस बार टीवी चैनल वाले भी इस ऐतिहासिक लम्हे को कैद करने के लिए मौजूद थे.
हम बच्च्चे उनको चीयर-अप करने के लिए तालियाँ बजा रहे थे.
पी. टी. सर पोल लेकर तेज़ी से दौड़े, साढ़े छह मीटर की ऊँचाई पर फ़िक्स बार के पास आते ही उन्होंने पोल को ज़मीन पर टेका फिर आँखें मूंदकर - ‘ जय माता दी ’ कहते हुए छलाँग लगा दी.
अगले ही पल पी. टी. सर नरम मैट्रेस पर पड़े थे.
तालियों और ठहाकों की आवाज़ के बीच उन्होंने अपनी आँखे खोलीं तो देखा कि साढ़े छह मीटर की ऊँचाई पर फ़िक्स बार अपनी जगह पर मौजूद था.
फिर क्या था, पी0 टी0 सर उछल-उछल कर कहने लगे –
‘ मैंने वर्ड रिकॉर्ड तोड़ दिया. सर्गेइ बुबका हाय हाय ! नया पोलवाल्ट चैम्पियन पुरुषोत्तम तिवारी ज़िन्दाबाद !’
हमारी प्रिंसिपल मैम ने उन्हें डाँटकर चुप करते हुए कहा –
‘ पी. टी. सर ! आपने वर्ड रिकॉर्ड तो नहीं पर हमारा कीमती पोल ज़रूर तोड़ दिया है. आप बार के ऊपर से नहीं बल्कि उसके नीचे से यहाँ गिरे हैं. आपकी परफ़ार्मेन्स को कैमरों में रिकॉर्ड भी कर लिया गया है.’
पी. टी. सर ने टीवी चैनल वालों को लाख मनाया पर उन्होंने इस इवैन्ट का टीवी प्रसारण कर ही डाला और वह भी स्लो मोशन में.
प्रिंसिपल मैम ने इस ऐतिहासिक क्षण की सी. डी. बनवा कर अपने पास रख ली है और अब जब भी कभी पी. टी. सर किसी नए रिकॉर्ड को तोड़ने का दावा करते हैं तो वो इस सी. डी. का डिस्प्ले कर पी. टी. सर को ख़ामोश कर देती हैं.
हमारे पी. टी. सर से स्पोर्ट्स का चार्ज पूरी तरह से वापस ले लिया गया है और हमारे जूडो-कराते कोच भाटिया सर को स्कूल का स्पोर्ट्स इन्चार्ज बना दिया गया है.
अब पी. टी. सर हमको सिर्फ़ सुबह की प्रेयर, परेड और पी. टी. कराते हैं. पी. टी. सर प्रिंसिपल मैम के इस फ़ैसले से बहुत दुखी हैं.
उनका कहना है कि इस अन्यायपूर्ण फ़ैसले की वजह से हमारा स्कूल भविष्य में कोई भी गावस्कर, अजहारुद्दीन, सचिन, ध्यान चंद, पेले या सर्गेइ बुबका नहीं दे पाएगा.
लेकिन इस डिमोशन से हमारे पी. टी. सर निराश नहीं हैं. उन्होंने गुलेल खरीदकर निशाना साधने में महारत हासिल कर ली है और अब वो हमारे स्कूल में दो-चार चैंपियन शूटर्स तैयार करने वाले हैं.
पी. टी. सर की शायद अब वो आयु नहीं रही कि वो ख़ुद अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में स्वर्ण-पदक हासिल कर भारत का झंडा बुलंद करवाएं और हमारा राष्ट्र-गान गुंजवाएं लेकिन वो हम बच्चों को बिना माँगी मुफ़्त कोचिंग दे कर इस काबिल बनाना चाहते हैं कि हम भारत की झोली ओलंपिक गोल्ड मेडल्स से भर दें.
वाह
जवाब देंहटाएं'वाह' के लिए धन्यवाद मित्र !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 08 फ़रवरी 2021 को 'पश्चिम के दिन-वार' (चर्चा अंक- 3971) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
'पश्चिम के दिन चार' (चर्चा अंक - 3971) में मेरी व्यंग्य-कथा को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
हटाएंसुन्दर कहानी।
जवाब देंहटाएंकहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
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