अमीर खुसरो उन महान विभूतियों में से थे जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए आजीवन सार्थक प्रयास किए थे। उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक एकता का स्वप्न देखा था । उनकी दृष्टि में वो पहले हिन्दुस्तानी थे बाद में कुछ और। अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अबुल हसन था । उनका जन्म उत्तर प्रदेश में एटा जिले के एक गाँव पटियाली में सन् 1254 में हुआ था । उनके पिता सैफ़ुद्दीन लचिन मध्य एशिया के रहने वाले उन तुर्कों में से थे जिन्होंने चगेज़ खाँ के खदेड़े जाने पर भारत में शरण ली थी । उनके नाना इमादुलमुल्क सुल्तान बलबन के आरिज़े-मुमालिक (युद्धमन्त्री) थे ।
अमीर खुसरो के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता उन्हें एक सूफ़ी फ़कीर का आशीर्वाद दिलाने के लिए उनके पास ले गए । इस नन्हें शिशु को देखकर उन फ़कीर ने यह भविष्यवाणी की कि यह बच्चा आगे चलकर महान साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त करेगा ।
अमीर खुसरो बचपन से ही वह कविता करने लगे थे । वह बलबन के बड़े पुत्र सुल्तान मुहम्मद की सेवा में मुल्तान में उसके दरबार में रहे । इसी दरबार में एक और मशहूर शायर अमीर हसन उनके साथ रहे ।
सुल्तान कैकुबाद के दरबारी साहित्यकार के रूप में खुसरो को पर्याप्त आदर-सम्मान मिला । यहीं उन्होंने अपनी पहली मसनवी ”किरानुस सदाई“ लिखी ।
कैकुबाद के पतन के बाद वह सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के दरबार में कुरान के परिचारक के पद पर नियुक्त हुए । जलालुद्दीन खिलजी की विजयों पर आधारित उनका फ़ारसी ग्रंथ ”मिफ़तउल फ़ुतूह“ इसी काल में लिखा गया । जलालुद्दीन की हत्या के बाद वह सुल्तान अलाउद्दी खिलजी के दरबार में रहे । अमीर खुसरो की अधिकांश रचनाएं इसी काल की हैं । ”मजनू लैला“, ”आइन-ए-सिकंदरी“, ”खजै़नुल फ़ुतूह“ और ”देवलरानी खि़ज्र खाँ“ ग्रंथ इसी काल में लिखे गए है ।
खिलजियों के पतन के बाद अमीर खुसरो सुल्तान गि़यासुद्दीन तुगलक के दरबार में रहे और उसके सम्मान में उन्होंने अपना अंतिम ग्रंथ ”तुगलकनामा“ लिखा जोकि एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ।
फ़ारसी के शायर के रूप में अमीर खुसरो की ख्याति देश-विदेश में फैल गई । प्रसिद्ध इतिहासकार और अमीर खुसरो का मित्र जि़याउद्दीन बरनी अपने ऐतिहासिक ग्रंथ ”तारीख़-ए-फि़रोज़शाही“ में उन्हें अपने काल का सर्वश्रेष्ठ शायर कहता है । ग़ज़ल, मसनवी, कसीदा और रुबाई आदि सभी में अमीर खुसरो को महारत हासिल थी । उनके द्वारा लिखे गए अशआर की संख्या पाँच लाख तक आँकी जाती है ।
अमीर खुसरो ने फ़ारसी गद्य को भी समृद्ध किया । ”इजाज़-ए-खुसरवी“ उनकी गद्य रचना है । अमीर खुसरो ने फ़ारसी ग्रंथों का साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्व है । उनके ग्रंथों का अध्ययन करके हम तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के राजनीतिक, सैनिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं परन्तु उनका सबसे बड़ा योगदान सांस्कृतिक क्षेत्र में था ।
अमीर खुसरो भारतीय संस्कृति के अनन्य भक्त थे । उन्हें अपनी भारतीयता पर गर्व था । उन्हें अपनी ”तोतए हिन्द“ उपाधि पर बड़ा गर्व था । उन्होंने अपने भारत वर्णन में अपने मुल्क की प्राकृतिक शोभा, उसके तीज-त्यौहार, उसके खान-पान, उसकी विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में पहनी जाने वाली वेशभूषाएं, उसके उद्योग धन्धे और अलग-अलग अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों की विस्तार से चर्चा की है ।
काश्मीर के विषय में उनका कहा गया यह फ़ारसी शेर बहुत प्रसिद्ध है-
”अगर फ़िरदौस बररूए ज़मीनस्त ।
हमीनस्तो, हमीनस्तो, हमीनस्त ।।“
(अगर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है ।
तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है )
अमीर खुसरो चिश्ती सिलसिले के प्रसिद्ध सूफ़ी सन्त शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। औलिया साहब की दृष्टि में हिन्दू और मुसलमान, अमीर और गरीब सब एक बराबर थे । उनका जीवन, करुणा, प्रेम, त्याग और भातृत्व का उदाहरण था । उनके सम्पर्क में आने से अमीर खुसरो की विचारधारा समन्वयात्मक और मानवतावादी हो गई थी । सूफ़ी सन्तों को राज दरबार और राज परिवार से ज़्यादा फि़क्र आम जनता की हुआ करती थी। वह जनता से उन्हीं की भाषा में बात किया करते थे । अमीर खुसरो भी आम लोगों में घुलमिल कर रहना चाहते थे और अपने काव्य में उनके जीवन, उनके विचारों को उतारना चाहते थे । इस उद्येश्य से उन्होंने हिन्दवी (यह खड़ी बोली की हिन्दी और उर्दू भाषा का प्रारम्भिक रूप है) में और ब्रजभाषा में अनेक कविताएं लिखी हैं । आज उनकी ख्याति का मुख्य आधार हिन्दवी में कही गई उनकी सूफ़ी भक्तिधारा में डूबी हुई धार्मिक कव्वालियां और आम जनता के मनोरंजन के लिए हिन्दवी में ही लिखी गई मुकरियां, पहेलियां और गीत हैं ।
अमीर खुसरो आशुकवि थे अर्थात् किसी बताए गए विषय पर वह तुरन्त कविता कर सकते थे । इसके बारे में उनका एक किस्सा बड़ा मशहूर है। एक बार वह कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्हें ज़ोर की प्यास लगी । उन्होंने देखा कि कुछ दूर पर चार ग्रामीण स्त्रियां कुएं से पानी भर रही हैं । अमीर खुसरो ने उनसे पीने के लिए पानी माँगा तो उन्होंने उनसे उनका पेशा पूछा । यह पता लगने पर कि वह कवि हैं, उन चारो स्त्रियों ने उन्हें पानी पिलाने से पहले अपनी-अपनी पसंद के विषय पर कविता सुनाने के लिए कहा । पहली स्त्री ने उन्हें कविता करने के लिए विषय दिया- खीर, दूसरी ने चरखा, तीसरी ने कुत्ता और चौथी ने ढोल । अब चार विषयों पर कविताएं सुनाते-सुनाते तो अमीर खुसरो प्यास के मारे मर ही जाते । उन्होंने चारो विषयों पर एक ही कविता बनाकर उन्हें सुना दी-
”बड़े जतन से खीर बनाई, चरखा दिया जलाय ।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय ।।
ला पानी पिला !“
अमीर खुसरो की हिन्दवी अर्थात् खड़ी बोली में लिखी पहेलियां बहुत प्रसिद्ध हैं और आज भी उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है । आकाश पर लिखी गई पहेली बहुत प्रसिद्ध है-
”एक थाल मोती से भरा, सब के सर पर औंधा धरा ।
चारो ओर वह थाली फिरे, मोती उसका एक न गिरे ।।“
दिया-बाती पर कही गई उनकी पहेली बहुत सुन्दर है-
”एक नार ने अचरज किया, साँप मार पिंजड़े में दिया ।
जो-जो साँप ताल को खाए, सूखे ताल साँप मर जाए ।।“
( यहाँ बाती को साँप और दिए में रक्खे तेल को ताल कहा गया है )
दर्पण पर कही गई एक पंक्ति की पहेली भी सुन्दर है-
”अरथ जो इसका बूझेगा, मुँह देखी तो सूझेगा ।“
घर में पर्दा करने के लिए दरवाज़े पर टाँगी जाने वाली चिलमन पर कही गई उनकी यह पहेली भी बड़ी प्रसिद्ध़ है-
”चालीस मन की नार रखावै, सूखी जैसे तीली ।
कहने को परदे की बीबी, पर है वो रंग रंगीली ।।“
अपनी कव्वालियों में अमीर खुसरो ने सूफ़ी भक्ति धारा को जन-जन तक पहुँचा दिया । इन कव्वालियों को सुनकर शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया भाव-विभोर हो जाते थे । शेख़ साहब के दरबार में उन्होंने सैकड़ों कव्वालियां लिखीं । इन कव्वलियों में भारतीय संस्कृति की अमिट छाप है, ये किसी धर्म के बन्धन में बँधी नहीं हैं । इन में एक ओर हज़रत मोहम्मद का गुणगान है तो दूसरी ओर राधा-कृष्ण की प्रेम लीला का वर्णन है । इनमें एक ओर भारतीय लोकगीतों की मधुरता और सादगी है तो दूसरी ओर इनमें ईरानी संगीत का झरना बहता है । -
”छाप तिलक सब छीनी, तोसे नैना मिलाय के ।“
और
”बहुत कठिन है डगर पनघट की ।
कैसे मैं भर लाऊँ, मधुवा से मटकी ।।“
तथा
”काहे को ब्याही बिदेस रे, लखि बाबुल मोरे ।“
उनकी प्रसिद्ध कव्वालियां हैं । ये कव्वालियां वैसे तो सांसारिक प्रेम में रंगी दिखाई देती हैं पर वास्तव में इनका उद्येश्य भाँति-भाँति प्रकार से ईश्वर का गुणगान करना होता है । इनमें आत्मा और परमात्मा के मिलन को प्रेमी-प्रेमिका के मिलन के रूप में दिखाया जाता है । अमीर खुसरो की कव्वालियां भारतीय संस्कृति की धरोहर हैं । उनके कलाम को हिन्दू और मुसलमान, सिक्ख आदि सभी झूम-झूम कर सुनते हैं।
अमीर खुसरो महान संगीतकार भी थे । कहा जाता है कि उन्होंने मृदंग और पखावज वाद्यों को मिलाकर तबला बनाया था । सितार का आविष्कारक भी अमीर खुसरो को ही बताया जाता है । उन्होंने सैकड़ों राग-रागनियों का भी आविष्कार किया था । हिन्दुस्तानी संगीत के वह अमर गायक हैं ।
अमीर खुसरो की मृत्यु सन् 1325 में हुआ था । उनकी मृत्यु की कथा उनकी अनन्य गुरुभक्ति का उदाहरण है । शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु के समय अमीर खुसरो उनके पास नहीं थे । जब उन्हें अपने पीर-ओ-मुर्शिद की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने यह दोहा पढ़कर अपने प्राण त्याग दिए-
”गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डाले केस ।
चल खुसरो घर आपने, सांझ भई चहुँ देस ।।“
अमीर खुसरो ने समन्वयात्मक हिन्दुस्तानी संस्कृति के विकास में अमूल्य योगदान दिया । उन्होंने उर्दू और राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रारम्भिक रूप को सजाया और सँवारा । उन्होंने उत्तर भारत के जन-साहित्य को समृद्ध किया और हिन्दुस्तानी संगीत को एक नई दिशा दी पर भारतीय इतिहास को उनकी सबसे बड़ी देन यह थी कि उन्होंने धर्म, जाति, क्षेत्र, धन-दौलत की सभी दीवारों को तोड़कर भारतीयों को आपस में हिलमिल कर रहने का सन्देश दिया और उन्हें अपने भारत पर तथा अपनी भारतीयता पर गर्व करना सिखाया ।
वाह लाजवाब
जवाब देंहटाएंमित्र, लाजवाब तो अमीर ख़ुसरो हैं.
हटाएंफिर भी तारीफ़ के लिए धन्यवाद !
भारतीय संस्कृति में अमीर खुसरो के योगदान के बारे में रोचक जानकारी भरा है आपका ये लेख..सुन्दर सृजन..मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है..
जवाब देंहटाएंआलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
हटाएंतुम अपने ब्लॉग के डिटेल्स दो. मुझे हमेशा से नई पीढ़ी की रचनाओं में और उसकी किसी भी प्रकार की सृजनात्मक गतिविधियों में रूचि रही है.
बहुत अच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएंआलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
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