बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

कांकर-पाथर जोरि कै

 निदा फ़ाज़ली का यह मक़बूल शेर, मन्दिर-मस्जिद से कहीं ज़्यादा तवज्जो इंसानियत को देता है -

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए


भव्य गगनचुम्बी मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे आदि देख कर मुझे श्रद्धा कम और कोफ़्त ज़्यादा होती है.

ऐसे पूजा-स्थलों के निर्माण में भक्ति की शक्ति से अधिक धन-शक्ति का प्रयोग होता है.
इनके साथ किसी न किसी सम्राट, बादशाह, राजा, सेठ या ज़मींदार का नाम जुड़ा रहता है.
आम आदमी के लिए तो इन में प्रवेश करना तक वर्जित होता है और अगर जैसे-तैसे किसी को इनमें प्रवेश करने का अवसर मिल भी गया तो फिर जल्द ही उसे जानवर की तरह बाहर हांक दिया जाता है.
आजकल पूजा-स्थलों में ख़ासुल-ख़ास लोगों के लिए विशेष दर्शन की व्यवस्था होती है.
पुराने ज़माने में शासकगण धार्मिक अनुष्ठानों के लिए और पूजा-स्थलों के निर्माण आदि के लिए अपनी प्रजा से अतिरिक्त कर लिया करते थे लेकिन क्या कभी किसी पूजा-स्थल में, किसी पाषाण-स्तम्भ पर, किसी ताम्र-पत्र पर अथवा किसी ऐतिहासिक ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इसके निर्माण में कितना योगदान प्रजा की खून-पसीने की कमाई का था?
साहिर ने ताजमहल के लिए कहा है –
‘इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
--- मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझ से –----‘
मुझे साहिर से यह शिकायत है कि उन्होंने किसी भव्य रत्न-जटित मन्दिर या संगमरमर की बनी शानदार किसी मस्जिद को देख कर यह क्यों नहीं कहा –
‘इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की इबादत का उड़ाया है मज़ाक़
--- मेरे भगवान कहीं और मिला कर मुझ से –-----’
1985 में मैं आबू के विश्वविख्यात दिलवाड़ा जैन मन्दिर देखने गया था. हमने अपने साथ एक गाइड किया. बातों-बातों में मैंने उस गाइड को बताया कि मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय में इतिहास का अध्यापक हूँ.
गाइड अब कुछ ज़्यादा ही उत्साह से और बारीक़ी के साथ मुझे हर मन्दिर की विशिष्ट कला के बारे में बताने लगा.
मुख्य-मन्दिर देख कर तो हमारी आँखे जुड़ा गईं . कैसे इतने ऊंचे दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में लाद-लाद कर संगमरमर लाया गया होगा, कैसे मंदिरों को बनाया गया होगा और फिर कैसे उनमें नक्काशी और जाली का काम किया गया होगा.
मुख्य मन्दिर से नीचे उतरते समय हमारा गाइड हमको एक छोटे से मन्दिर में ले गया. गाइड ने मुझ से कहा –
‘गुरु जी, इस मन्दिर को बहुत गौर से देखिए और मुझे बताइए कि इसमें आपको कुछ ख़ास लगा?’
मैंने बहुत गौर से मन्दिर का मुआयना किया.
छोटे आकार का यह मन्दिर संगमरमर के बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों से तैयार किया गया था.
कलात्मकता की दृष्टि से इसमें कुछ भी ख़ास नहीं था.
आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों की विश्वविख्यात कला का तो इसमें शतांश भी नहीं था.
मैंने गाइड से कहा –
‘भाई, मुझे यह मंदिर न तो भव्य लगा और न ही ख़ास सुन्दर.
अब तुम बताओ कि तुम मुझे यह मंदिर क्यों दिखाना चाह रहे थे?’
मेरे सवाल का जवाब देते हुए गाइड की आँखों में चमक आ गयी. उसने मुझे बताया –
‘यह छोटा सा मन्दिर मुख्य मन्दिर बनाने वाले कारीगरों-मज़दूरों ने मंदिरों के निर्माण से बचे हुए और फेंके हुए संगमरमर के टुकड़ों से बनाया था.
राजा से ज़मीन का एक टुकड़ा लेकर, उसकी अनुमति से, अपनी रातों की नींद हराम कर, मशालों की रौशनी में, बिना कोई मज़दूरी लिए हुए, उन्होंने भक्ति-भाव से इसे बनाया था.’
यह सब सुन कर श्रद्धा से मेरा सर झुक गया लेकिन उस मंदिर में विराजे भगवान के लिए कम और उस मंदिर को बनाने वाले उसके सच्चे भक्तों के लिए ज़्यादा.
आम तौर पर पूजा-स्थलों का निर्माण ऐसी जगहों पर ही ज़्यादा होता है जहाँ कि पहले से ही ऐसे दर्जनों भवन बने हुए होते हैं.
हम जैन मतावलंबी गुजरात के पल्लीताना में और मध्य प्रदेश के सोनागिरि में सैकड़ों की संख्या में मन्दिरों को देख कर आश्चर्य-चकित रह जाते हैं.
हर दस क़दम पर एक मन्दिर लेकिन अधिकतर टूटे-फूटे जीर्ण-शीर्ण ! कोई भक्त इनके जीर्णोद्धार की फ़िक्र नहीं करता बल्कि एक और मन्दिर का निर्माण करवा देता है.
इस भक्ति-प्रदर्शन में इन तथाकथित भक्तों की फूहड़ प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है.
मेरे प्रतिद्वंदी ने यदि सौ फ़ीट ऊंचा मन्दिर बनवाया है और उसमें भगवान की तीस फ़ीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की है तो फिर मैं एक सौ बीस फ़ीट ऊंचे मन्दिर का निर्माण करवा कर उसमें भगवान की चालीस फ़ीट ऊंची प्रतिमा स्थापित करवाऊँगा.
सबसे दुःख की बात यह है कि हमारे पूजा-स्थलों के आस-पास स्वच्छता का कोई ध्यान नहीं रक्खा जाता.
अजमेर शरीफ़, पुष्कर जी, काशी विश्वनाथ, महावीर जी, सम्मेद शिखर आदि तीर्थों-इबादतगाहों में सबसे बड़ी कमी रख-रखाव की है.
तीर्थ-स्थलों में सर्वत्र गन्दगी का साम्राज्य रहता है.
हमारे देश के ही क्या सारी दुनिया के पूजा-स्थलों की बात करें तो उसमें से अधिकांश पाप की कमाई से ही बनाए गए हैं.
क्या कभी किसी पूजा-स्थल के निर्माण में किसी घूसखोर को आर्थिक योगदान देने से रोका गया है?
क्या किसी डाकू को मन्दिर में भगवान को सोने का मुकुट चढ़ाने से मना किया गया है?
आज तो राम-जन्मभूमि मन्दिर का निर्माण भक्ति से कम और राजनीति से अधिक प्रेरित दिखाई देता है.
निष्काम भाव की निश्छल भक्ति के दर्शन होना दुर्लभ हो गया है.
अब किसी सुदामा को या किसी विदुर को भगवान का स्नेह और उनकी अनुकम्पा मिलना असंभव प्रतीत होता है.
अब तो भगवान ख़ुद भी किसी वीवीआईपी की अगवानी में व्यस्त दिखाई पड़ते हैं.
हम में से शायद ही कोई कबीर की तरह सांचे हिरदे में 'आप' (भगवान) को खोजने की कोशिश करता होगा.
लेकिन हम इतना तो कर ही सकते हैं कि हम भगवान के रहने के लिए जो कांकर-पाथर जोड़ें वो कम से कम काली कमाई से तो न जोड़ें और वहां तो कोई पूजा-स्थल या इबादतगाह न बनाए जहाँ पहले से ही ऐसा कोई ढांचा खड़ा हो.
भले ही हमारी सच्ची कमाई से बनने वाला पूजा-स्थल आकार-प्रकार और अलंकरण में साधारण होगा किन्तु उसमें ईश-वन्दना का हमको भरपूर संतोष मिलेगा और मन को शांति भी प्राप्त होगी.
संत रैदास की उक्ति –
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’
को हमको आत्मसात करने की ज़रुरत है.

हम नए पूजा-स्थलों के निर्माण के बजाय वृहद् वृक्षारोपण अभियान चला सकते हैं, बड़े अथवा छोटे स्तर पर जल-संरक्षण का कोई कार्यक्रम शुरू कर सकते हैं, निशुल्क चिकित्सालय खोल सकते हैं, वृद्धाश्रम, अनाथालय का निर्माण और संचालन कर सकते हैं, गरीब किन्तु प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं को आर्थिक अनुदान दे सकते हैं.
प्राकृतिक अथवा मानव-निर्मित आपदा के समय किसी एक पीड़ित की मदद करना, सैकड़ों पूजा-स्थलों के निर्माण से कहीं अधिक बड़ा पुण्य-कार्य है.
ढोंग-प्रपंच, पाखण्ड, धन-शक्ति का प्रदर्शन, प्रतिस्पर्धा आदि को यदि हम राजनीति-सियासत तक ही सीमित रखें और उसे भगवान के घर तक न पहुँचने दें तो इस से दुनिया का और इंसानियत का बहुत भला होगा.




Comments

14 टिप्‍पणियां:

  1. मन चंगा और गंगा सही और सटीक पर क्या होगा वोट का और क्या करेगा नंगा? :)
    लजवाब लेखन।

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    1. तारीफ़ के लिए शुक्रिया मित्र !
      क्या धर्म और क्या देशभक्ति, नंगा तो इन दोनों के नाम पर भी हर दम दंगा ही करेगा.

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2043...अपने पड़ोसी से हमारी दूरी असहज लगती है... ) पर गुरुवार 18 फ़रवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. 'पांच लिंकों का आनंद' (2043 -- अपने पड़ौसी से हमारी दूरी असहज लगती है) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  3. आदरणीय गोपेश जी , अंध श्रद्धा के वशीभूत हो या फिर अपने धर्म की पूजा पद्धतियों को बढ़ावा देने के लिए शासकों अथवा प्रतिष्ठित धर्मावलम्बियों ने धार्मिक स्थानों के निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ी | आपने सच कहा , जनता के खून पसीने की कमाई का कोई जिक्र किसी ऐतहासिक दस्तावेज में नहीं पाया गया | निर्गुण उपासकों और बुद्धिजीवियों के लिए ये प्रश्न सदैव अनुत्तरित ही रहा कि सृष्टि के सर्वोच्च रचनाकार को किसी मानव निर्मित इमारत की क्यों जरूरत आन पड़ी ? हालाँकि मैं खुद मंदिर जाती हूँ पर ये प्रश्न मेरे भीतर भी रहता है | आज के कथित सभ्य और शिक्षित युग में भी ये मोह जनमानस से छूट नहीं पा रहा | मेरे अपने गाँव में मैं देक्ती हूँ तो हैरान रह जाती हूँ ! मेरी शादी के विगत चौबीस सालों में मैंने देखा कि मंदिरों की संख्या कई गुना बढ़ गई है | हर गली मुहल्ले या हर तीसरे चौथे मुहल्ले में किसी ना किसी देवता का मंदिर है तो चार पांच गुरूद्वारे के साथ दो मस्जिद भी है | जबकि
    प्राथमिक कन्या विद्यालय की खस्ता इमारत को पुनरोद्धार के लिए कम से कम तीसरी पंचायत की राह देखनी पड़ी | गाँव के चारों ओर कभी आम के अनगिन बाग़ थे | आज नहीं है -- अनेक बरगदों में से मात्र एक बरगद बचा है | किसी का ध्यान इस ओर जाता नहीं कि पर्यावरण को भी संवारा जाए | बस भगवान् को खुश करने की कवायद है | उसके लिए तो गाँव का पुराना मंदिर ही काफी था जहाँ गाँव के सब लोग एक ही छत के नीचे मिल जाते थे | प्रकृति भी तो ईश्वर का मूर्त रूप है ये बात कोई जानना ही नहीं चाहता | सादर -

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    1. रेणु जी, मेरे विचारों से सहमत होने के लिए धन्यवाद.
      हम परंपरा के नाम पर या फिर अपने बड़ों की भावनाओं का सम्मान करने के नाम पर आँख मूँद कर बहुत सी ऐसी बातें करते हैं जिनको करने से हमारा विवेक, हमारा ज़मीर, हमको रोकता है.
      हमको भगवान को अब किसी पूजा-स्थल में नहीं बल्कि किसी प्रदूषण रहित नदी में, किसी सघन वन में अथवा बच्चों की मुस्कान में खोजना चाहिए.

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  4. बहुत गंभीर प्रश्न उठाया है आपने आदरणीय..काश कि इसे सारे लोग समझे.. सारगर्भित लेखन..

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  5. मेरे आलेख की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
    तुम युवा पीढ़ी के जागरूक लोग अगर दृढ़ता के साथ धर्म-मजहब के नाम पर होने वाले अपव्यय को रोकने के लिए संगठित होकर आगे आ जाओ तो इस दुखद स्थिति से हमारे समाज को छुटकारा मिल सकता है.

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    1. उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' !
      मन्दिर-मस्जिद और मकबरे-समाधियाँ-स्मारक आदि के निर्माण में श्रद्धा से अधिक दम्भ-अहंकार का प्रदर्शन होता है.

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  7. जी सर ज्वलंत मुद्दा है ये, एक तो मंदिरों में लगी अरबों की पूंजी जड़ हो जाती है, दुसरा प्रचलित मंदिरों में करोड़ों का चढ़ावा आता है उस का भी कोई सदुपयोग नहीं है बस कुछ जगह ही मंदिरों के चढ़ावे से स्कूल, अस्पताल,या उपयोगी काम होते हैं बाकि पता नहीं रूपए कहां जाते हैं।
    आपने बहुत सार्थक पहल की है ,
    बहुत उपयोगी लेख है, जिसमें हमें सही वस्तु स्थिति का भान होता है ,पर पर किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगनी कितने भी ढ़ोल पीट लो।

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    1. कुसुम 'प्रज्ञा' जी,
      मैंने अजमेर शरीफ़ में पुलाव बनाने के लिए अकबरी देग और जहाँगीरी देग में पुलाव की जगह रूपये-पैसे का अम्बार लगा देखा है.
      तिरुअनंतपुरम के पद्मनाभ मन्दिर में लाखों करोड़ का ख़ज़ाना मिलने के बाद पूजा-स्थलों की अथाह संपत्ति का हम को थोड़ा-बहुत अनुमान हुआ था.
      लेकिन हम आज भी किसी ज़रूरतमंद की मदद करने के बजाय बड़ा भक्त कहलाने के लिए मन्दिर-मस्जिद आदि में दान देना ही उचित समझते हैं.

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    2. बिल्कुल सत्य है सर हम यही कर रहें हैं।

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    3. जिसके भी दिल में छल-कपट नहीं होगा, वह ऐसा ही कहेगा/कहेगी.

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