टीवी न्यूज़ चैनल्स पर होने वाली लम्बी-लम्बी बहसों में ऊंचे दर्जे के जाहिल और भैंस हांकने वाले लट्ठमार ही क्यों बुलाए जाते हैं?
धर्म-मज़हब के सर-फुटउअल ने
लट्ठमारों के सर पे भार दिया
मौलवी पंडितों वकीलों को
टीवी बहसों में रोज़गार दिया
अब एक दिलचस्प किस्सा -
प्रसिद्द स्वतंत्रता सेनानी हकीम अज़मल खान के पास पेट के दर्द की शिकायत लेकर एक मरीज़ आया.
हकीम साहब ने उसकी नब्ज़ देख कर उस से पूछा -
'तुमने रात में क्या खाया था?'
मरीज़ ने जवाब दिया -
'रात को दाल और जली रोटी खाई थी.
हकीम साहब ने उसको नुस्खा लिख कर दे दिया.
मरीज़ जब दवाखाने में दवा लेने गया तो दुकानदार ने उस से कहा -
'सोने से पहले अपनी दोनों आँखों में इसे लगा लेना.'
पेट के दर्द के लिए आँखों में दवा लगाने वाली बात मरीज़ के समझ में नहीं आई. वह अगले दिन हकीम साहब के पास फिर गया और उसने उन से पूछा -
'हकीम साहब, आपने अपने नुस्खे में मेरे लिए कौन सी दवा तजवीज़ की थी?'
हकीम साहब ने जवाब दिया -
'मैंने तुम्हारे लिए सुरमा तजवीज़ किया था.'
मरीज़ ने पूछा -
'हुज़ूर, पेट का दर्द दूर करने के लिए सुरमा क्यों?'
हकीम साहब ने जवाब दिया -
'जो शख्स खाते वक़्त ये भी न देख पाए कि रोटी सही पकी है या फिर जली हुई है तो उसके पेट के दर्द का इलाज करने से पहले उसकी आँखों का इलाज करना ज़रूरी है.'
तो मेरे जैसे लोग जो कि टीवी बहसों को ले कर दुखी हो रहे हैं, उनके लिए सब से बेहतर यही होगा कि वो टीवी पर होने वाली बहसों को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दें नहीं तो अपने दिमाग का इलाज करवाएं. .
लाख टके की बात कही आपने, लेकिन कमबख्त देखने वाले भी कम थोड़े ही होते हैं, उन्हें कौन समझाए निरे ...
जवाब देंहटाएंकविता जी, ऐसी बेहूदा बहस देखने-सुनने की हम जैसे कमबख्तों की भी आदत है.
हटाएंजी, हमें तो कई साल हो गए इन बहसों को देखे। एक अजीब तरह की नकारात्मकता घेर लेती है। फिर भी कभी कभी जुआ खेलना छोड़ चुके जुआड़ी की तरह क्या करें, 'ये दिल है कि मानता नहीं!!!' बहुत सुंदर लघु कथा।
जवाब देंहटाएंहक़ीम अज़मल खान का यह किस्सा मुझे पिताजी ने सुनाया था.
हटाएंछात्र-जीवन में हम कंडम-अभिनयसम्राट जम्पिंग जैक की फ़िल्में निहायत नापसंद करते हुए भी देख लिया करते थे. ऐसे ही अपने बुढ़ापे में ये बेहूदा डिबेट देख-सुन लिया करते हैं.
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२०-०५-२०२२ ) को
'कुछ अनकहा सा'(चर्चा अंक-४४३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
'कुछ अनकहा सा' (चर्चा अंक - 4436) में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता.
जवाब देंहटाएंलगे रहिये। काम मिला ना । लिखने का ही सही। :)
जवाब देंहटाएंकाम तो मिला पर मज़दूरी में जली हुई रोटी ही मिली.
हटाएंवाह!सर ,बात तो पते की कही आपने । मुझे भी बहुत कोफ्त होती है ऐसी बहसों से ...मैंनें तो इन्हें देखना -सुनना कब का छोड दिया है ।
जवाब देंहटाएंशुभा जी, मेरी बेटियां तो स्मार्ट टीवी का लाभ उठा कर उस पर सिर्फ़ इन्टरनेट पर उपलब्ध स्तरीय कार्यक्रम देखती हैं पर मैं बेचारा आदत का मारा ---
हटाएंसही कहा आपने ।
जवाब देंहटाएंमैं अक्सर टीवी देखती थी ।
पर इन फ़ालतू बहसों ने टीवी से मन खट्टा कर दिया ।
आपको मेरा सादर अभिवादन।
जिज्ञासा, हम जैसे आदत से मजबूर लोग तो खट्टे मन से भी ऐसी फ़ालतू डिबेट्स देखते-सुनते हैं और फिर अपना सर धुनते हैं.
हटाएंमीना जी, इन पाखंडी बकबकियों का पूर्ण बहिष्कार ही इस समस्या का निदान है.
जवाब देंहटाएंऐसी बहस श्रोताओं के मन में नफरत ही पैदा करती हैं । हमने तो न्यूज़ देखना ही छोड़ दिया ।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, ऐसी डिबेट्स देख कर हमको विश्वास हो जाता है कि हम मनुष्यों के पूर्वज बंदर ही थे.
हटाएंसर, संभव हो तो कृपया उन बहसबाज़ों तक मेरा भी प्रश्न पहुँचा दीजिए।
जवाब देंहटाएं-----
देश के जिम्मेदार ख़बरनवीस
वकील संवेदनशील मुकदमों के
स्वयं ही महामहिम न्यायाधीश
तत्ववेत्ता, गड़े मुर्दों के विशेषज्ञ
जीवित मुद्दों के असली मर्मज्ञ
सर्वगुणसम्पन्न पूजनीय सर्वज्ञ
प्रश्नों के लच्छे में उलझाने वालों
मेरा भी है आपसे एक प्रश्न
आपकी व्यापारिक कर्त्तव्यनिष्ठता और
आपकी अंतर्रात्मा में तुलनात्मक
दाब कितना है?
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काश कि इन्हें अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होता तो माहौल कुछ और होता।
श्वेता, तुम्हारे ज्वलंत प्रश्न तो लाजवाब हैं फिर ये मूर्ख, ये विवेकहीन, ये अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को ताक पर रखने वाले, बेशर्म इंसान उनका क्या जवाब देंगे?
हटाएंसटीक प्रहार
जवाब देंहटाएंमेरे विचारों से सहमत होने के लिए धन्यवाद अनिता सुधीर जी.
हटाएंक्या खूब कहा। बहुत ही बढ़िया।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अमृता तन्मय !
हटाएंभावों का शब्दों में बढ़िया रूपांतरण।
जवाब देंहटाएंमेरी कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद संजय भास्कर !
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