(मैंने यह लम्बी कहानी अपनी श्रीमती जी के अल्मोड़ा-प्रवास के प्रारंभिक अनुभव के आधार पर लिखी है. )
दुर्गारानी -
शादी के दो महीने बाद मुझे पतिदेव के साथ अल्मोड़ा जाना था. पहाड़ में प्रवास के नाम पर शादी से पहले मैं सिर्फ़ नैनीताल और मसूरी गई थी.
लखनऊ से काठगोदाम तक का सफ़र तो आराम से ट्रेन में गुज़र गया पर वहाँ से केएमओयू की खस्ताहाल बस से अल्मोड़ा तक का सफ़र तो जानलेवा था. मेरा सर चकरा रहा था, जी घबड़ा रहा था पर पतिदेव थे कि मुझे पूरे कुमाऊँ का भूगोल और इतिहास सुनाए जा रहे थे. राम-राम करते-करते पाँच घण्टे बाद अल्मोड़ा पहुंचे तो मन और भी खिन्न हो गया.
ऊँची-नीची और टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों, डरावनी घाटियों और कँपकपाती ठन्ड बरसाने वाले विशाल और ऊँचे-ऊँचे पहाडों के बीच बसे इस सुनसान से शहर को देखकर मुझे कोई खुशी नहीं हुई. थकी-हारी, सहमी-सहमी, घर-गृहस्थी के कुलजमा बीस अदद के ढेर पर बैठी मैं टैक्सी की प्रतीक्षा में थी पर पतिदेव मेटों की तलाश कर रहे थे. सारा सामान मेटों ने लाद लिया और हम पैदल ही खत्यारी स्थित अपने महल की ओर बढ़ चले. रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. घर पहुंचे तो वहाँ की दुर्दशा देखकर तो मुझे रोना आ गया. दो कमरे का मकान था पर लगता था कि उसका सारा सामान एक अदद बैड पर ही सैट किया गया था. वाह क्या सफ़ाई थी और किस करीने से बिस्तर पर किताबें, सूटकेसेज़, बर्तन और यहाँ तक कि खाने का सामान भी सजाया गया था. किचिन का हाल तो और भी बुरा था. मैं अपनी सारी थकान भूल कर घर-सफ़ाई अभियान में जुटी तो पतिदेव इत्मीनान से बोले-
‘मैडम ! आप तो आराम से लेटकर प्रकृति के नज़ारे देखिए. ये सब काम तो दुर्गारानी देख लेंगी.’
मैंने पूछा-
‘ये दुर्गारानी कौन हैं?’
पतिदेव बोले –
‘अब अल्मोड़ा आई हो तो दुर्गारानी को भी जान जाओगी. बाई द वे गिफ़्ट्स वाली साडि़यों में से हरी वाली साड़ी दुर्गारानी के लिए निकाल देना और एक मिठाई का डिब्बा भी.’
मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि ये दुर्गारानी कौन हैं, रानी हैं तो घर का काम कैसे करेंगी और घर का काम करने वाली हैं तो इन्हें रिश्तेदारों के लिए आई साडि़यों में से साड़ी क्यों दी जाय?
मन में सवाल तो और भी थे जैसे कि इन दुर्गारानी की उम्र क्या है और देखने-सुनने में कैसी हैं?
शिवानी की कहानियाँ पढ़-पढ़ कर कुमाऊँ की कन्याओं के सौन्दर्य का आतंक दिल में छाया हुआ था. पतिदेव से डिटेल्स पूछने की हिम्मत नहीं हुई पर मन ही मन मैंने तय कर लिया कि अगर यह दुर्गारानी कम उम्र और सुन्दर हुईं तो इनकी कल ही छुट्टी कर दूंगी.
रात कब सो गई, पता ही नहीं चला पर सुबह का पता ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा भड़भड़ाने की आवाज़ से चल गया. ये बाथरूम में थे, मजबूरन मुझे ही उठ कर दरवाज़ा खोलना पड़ा. देखा कि एक साढ़े चार फ़ुट की, सत्तर साल की, झुकी पीठ वाली एक पतली-दुबली पर रौबदार बुढि़या चटक नीले रंग की ओढ़नी और घाघरा में सजी, लाठी पकड़े खड़ी है.
मुझे एकटक घूरते हुए बुढ़िया बोली -
‘अच्छा तो बहू आ गया. अच्छा है, हाथ, पैर, आँख, नाक दुरुस्त है पर बाबू से सांवला है, बाल लम्बा है, मेमों की तरह बलकटो नहीं है.’
इससे पहले कि मैं अपने इस मूल्यांकन पर खुश होती या रोती तब तक मुझे एक तरह से ढकेलते हुए अपनी चाँदी की पाज़ेब छमछमाती वह घर में घुस गई. तब तक ये बाथरूम से निकल आए थे. इन्हें देख कर वह बड़े रौब से बोली –
‘बाबू ! मेरी साड़ी लाया, मिठाई लाया?’
बाबू ने साड़ी और मिठाई का डिब्बा उसके हवाले किया तो मुझे बड़ा गुस्सा आया पर साथ ही साथ मैंने राहत की साँस भी ली. इन दुर्गारानी से शिवानी की कहानियों की नायिकाओं वाले खतरे की कोई बात नहीं थी. एक अच्छी बात यह भी हुई कि दुर्गारानी से मुँह दिखाई में मुझे ग्यारह रुपये प्राप्त हुए. इन्होंने उलाहना देते हुए कहा -
‘ये क्या बस ग्यारह रुपये? कैसी सास हो? खुद पाज़ेब पहने हो और बहू के पैर नंगे हैं?’
सासू माँ ने तन्मयता से मिठाई खाते हुए जवाब दिया -
‘पाजेब अपनी पोती को देगा वो भी अपने मरते बखत.’
दुर्गारानी विस्तार से दहेज के सामान का मुआयना कर रही थीं, अचानक बड़े रौब से बोलीं -
‘बहू ! जा मेरे लिए अदरक डाल के कड़क चाय बना ला.’
गुस्से के मारे मेरा खून खौल रहा था, इधर पतिदेव थे कि मुस्कुराकर कर दुर्गारानी से कह रहे थे –
‘दुर्गारानी ! बहू को अच्छी चाय बनाना तो तुम्हीं सिखाओगी. आज तुम चाय बना कर पिला दो, कल से ये बनाएगी.’
मैं अपना सिर धुनने वाली ही थी कि एक और बम फूटा -
‘अब बहू आ गया है. दुर्गारानी बर्तन-झाड़ू नहीं करेगा, बस ऊपर का काम कर देगा.’
यहाँ भी पतिदेव मेरी मदद के लिए आ गए. उन्होंने दुर्गारानी को जैसे-तैसे झाड़ू-बर्तन करते रहने के लिए राज़ी किया.
मैं नौकरानी को दादी-नानी का आदर देने वाले पतिदेव पर हैरान थी. इनसे कहा तो हँसने लगे फिर गम्भीर होकर बोले – ‘दुर्गारानी को कुछ दिन समझ लो फिर बताना कि मैं उसे सिर पर चढ़ा कर ठीक करता हूँ या गलत?’
हफ्ते-दो हफ्ते तक दुर्गारानी पर मेरा गुस्सा बना रहा. मुझे खुद पर पर सास वाला रौब रखने वाली नौकरानी नहीं चाहिए थी. पर अल्मोड़ा में एक महीना बीतते-बीतते इस अनजान शहर में पता नहीं क्यों वही एक मुझे अपनी सी लगने लगी थी. मुझे कभी उदास देखती तो मेरे सिर पर हाथ फेर कर मुझसे पूछती –
‘बहू ! माँ याद आ रहा है?’
बलकटो मेमों के प्रति उसके आक्रोश का ठिकाना नहीं था. उसे मेरे लम्बे-घने बाल बहुत अच्छे लगते थे. मेरे बालों में तेल डाल कर उनकी चोटी गूँथने में उसे बहुत आनन्द आता था. मेरे बाल बनाते-बनाते वह मुझे समझाती –
‘बहू ! अपनी चोटी हमेशा लम्बी ही रखना. चोटी लम्बी रक्खेगा तो बाबू इससे बँधा रहेगा. बलकटो मेम बनेगा तो बाबू कहीं और भाग जाएगा.’
दुर्गारानी की रनिंग कमेन्ट्री हमेशा जारी रहती थी, यह बात और थी कि उसमें से आधी से ज़्यादा बातें मेरे पल्ले ही नहीं पड़ती थी पर उनसे मेरा मन ज़रूर बहला रहता था.
अब मुझे पता चला कि ये कितने सही थे. पहले दिन मुझे खिजाने वाली इस सिर-चढ़ी बुढि़या ने कुछ ही दिनों में मेरा दिल जीत लिया था. मेरी हर पसन्द-नापसन्द का उसे ख़याल रहता था. मुझे तरह-तरह के पहाड़ी व्यंजन खिला-खिला कर उसने मेरी डायट्री हैबिट्स ही बदल दीं.
मुझे संगीत में बहुत रुचि है, कुमाँनी लोकगीत मुझे बचपन से अच्छे लगते थे पर उन्हें सिखाने वाला मुझे अब तक नहीं मिला था. दुर्गारानी को सैकड़ो लोकगीत याद थे. इन गीतों की भाषा तो मेरे पल्ले नहीं पड़ती थी पर उनकी लय-ताल से और दुर्गारानी के सधे गले की बदौलत उनके भाव पूरी तरह से मेरी समझ में आ जाते थे. उससे न जाने कितने कुमाऊँनी गीत मैंने सीख डाले थे. मैंने अपनी संगीत गुरु को ‘ईजा’ कहना शुरू कर दिया था पर बाकी दुनिया के लिए वह दुर्गारानी ही थी.
दुर्गारानी इन पर तो अपनी जान छिड़कती थी. कॉलेज में इन्हें अगर देर हो जाती थी तो वह अपने सवालों से मेरी नाक में दम कर देती थी. खाना बाबू की पसन्द का ही बने, इसकी जि़म्मेदारी तो मेरी थी पर इसकी फ़िक्र करना उसी का काम था.
अब दुर्गारानी का सारा दिन हमारे साथ ही बीतता था.
दर-असल उसे किसी के यहाँ काम करने की ऐसी कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी. उसका पति फ़ौज में था, उसकी विडोज़ पेंशन उसके अपने खर्च के लिए काफ़ी थी पर उसका शराबी बेटा कल्लू अपनी बोतल के लिए पैसे जुटाने के लिए बुढि़या माँ से मज़दूरी करवाता था, वही उसकी तनख्वाह भी आकर ले जाता था. नशे में या नशा उतरने के गुस्से में माँ के ऊपर दो-चार हाथ छोड़ना उसके लिए मामूली बात थी.
एक बार तो उसने अपनी माँ का सिर ही फोड़ दिया. ये तो उस दुष्ट को पुलिस में देना चाहते थे पर दुर्गारानी ने ही इनके पैर पड़ कर उसे बचा लिया.
मेरी बड़ी बेटी होने वाली थी. ऐसे वक्त में दुर्गारानी न जाने कब मेरे लिए माँ, डॉक्टर, नर्स न जाने क्या-क्या बन गई.
पहले दिन मुझसे झाड़ू-बर्तन करवाने की ख्वाहिश रखने वाली दुर्गारानी अब मेरा खाना भी बनाती थी, मेरे कपड़े भी धोती थी और तरह-तरह से मेरा मन भी बहलाती थी. मेरी और मेरे होने वाले बच्चे की सलामती के लिए वह पता नहीं कितने अनुष्ठान करती रहती थी. आए-दिन वह मेरे सिर पर चावल और फूल छिड़क, मेरे माथे पर तिलक लगाकर कोई मंत्र पढ़ती फिर मुझे प्रसाद खिलाती थी.
मैं डिलीवरी के लिए मायके गई, वहाँ सब अपने थे पर न जाने क्यों दुर्गारानी की कमी मुझे बहुत खल रही थी.
डिलीवरी के बाद मैं अल्मोड़ा पहुँची तो दुर्गारानी की सारी दुनिया मेरी बेटी में ही सिमट गई थी. उसका हर काम वही करती थी, मैं तो बस बैठे-बैठे उसके कुमाऊँनी गीत सुनती रहती थी. चाहे आँधी हो चाहे तूफ़ान, चाहे बारिश हो चाहे स्नो फॉल, मेरी बेटी को देखे बिना और उसकी सेवा किए बगैर दुर्गारानी का सवेरा नहीं होता था.
दुर्गारानी की ये ख़ुशियाँ उसके बेटे से देखी नहीं गई. इनके कहने पर दुर्गारानी ने उसे बोतल के लिए पैसे देने बन्द कर दिए थे. एक बार पैसे न मिलने के कारण गुस्से में उसने अपनी माँ को मार-मार कर लहू-लुहान कर दिया.
इस बार इन्होंने दुर्गारानी के लाख रोकने के बावजूद कल्लू की पुलिस में रिपोर्ट कर दी. बेचारी बुढि़या इनसे तो कुछ नहीं बोली पर जैसे ही वह कुछ ठीक हुई तो लाठी टेकते हुए थाने पहुँची और कुछ दे-दिवा कर बेटे को लॉकअप से छुड़ा लाई. ये दुर्गारानी पर नाराज़ हुए तो इन्हें पुचकारते हुए बोली -
‘बाबू ! दुर्गारानी का आखरी बखत है, उस पर अब गुस्सा मत कर. बुढि़या जब मर जाए तो तुम और करमजला कल्लू उसको कन्धा देना और मरघट में फूँक कर भी आना.’
दुर्गारानी इस हादसे के बाद हमारे यहाँ काम करने के लिए नहीं आ पाई. दो-चार बार हम ही उसके घर जाकर उससे मिल आए.
इधर कल्लू बाबू की शराबखोरी ने अपने गुल खिलाने शुरू कर दिए थे. भरी जवानी में उसके फेफड़े और जिगर जवाब दे गए थे. हम भगवान से मना रहे थे कि बेटा माँ के सामने न चला जाए पर हमारी प्रार्थना बेकार गई.
कल्लू के मरने पर दुर्गारानी को कोई ताज्जुब नहीं हुआ, शायद वह इस हादसे के लिए पहले से तैयार थी. बेटे की अर्थी उठते समय वह बिलकुल रोई नहीं, बस, इनका हाथ पकड़ कर बोली –
‘बाबू ! कल्लू तो धोखा दे गया. अब बुढि़या को तुम्हीं फूँक कर आना.
’
कल्लू की मौत के एक महीने बाद ही दुर्गारानी का बुलावा भी आ गया. उसके आखरी वक्त में हमारा परिवार उसके पास था.
मेरी बेटी को अपने सीने पर लिटा कर उसने प्यार किया और एक पोटली में से उसके लिए वही अपनी चिर-परिचित चाँदी की पाज़ेब निकालकर उसके पाँवों में पहना दीं.
दुर्गारानी को कन्धा दे कर और उसके अंतिम संस्कार में भाग ले कर इन्होंने अपने बेटे होने का फ़र्ज़ पूरा किया.
दुर्गारानी की प्यार भरी झिड़कियाँ, उसके अधिकार भरे अनुरोध सुनने के लिए मेरे कान तरसते हैं. लगता है लाठी टेकती, छमछम करती वह अचानक मेरे सामने खड़ी हो जाएगी और अदरक डाल कर कड़क चाय बना लाने का मुझे आदेश देगी.
मैं जब भी अपने बाल बनाती हूँ तो एक पल इन्तज़ार करती हूँ कि वह आएगी और मेरे हाथों से कंघी छीन कर खुद मेरे बाल बनाएगी.
दुर्गारानी की कोई तस्वीर मेरे पास नहीं है, बदकिस्मती से उसके लोकगीतों को भी मै रिकॉर्ड नहीं कर सकी हूँ पर इन निशानियों की मुझे खास ज़रूरत भी नहीं है.
मेरे होठों पर जब तक उसके सिखाए लोकगीत रहेंगे तब तक वह मेरी यादों में बसी रहेगी. उसके सिखाए पहाड़ी व्यंजनों को मैं जब-जब बनाऊँगी तब-तब वह उनमें महकती रहेगी. जब तक मेरी बेटी उसकी दी हुई पाज़ेब पहन कर छमछम करती रहेगी तब तक वह मेरे दिल में ज़िन्दा रहेगी.
अपनों से ऊपर अपनी। सुन्दर।
जवाब देंहटाएंकहानी तुमको अच्छी लगी तो हम खुश हुए मित्र !
हटाएंवाह! कहानी ने मन में बहती करुणा की धार से आँखों को तो नम किया ही; यह भी साबित कर दिया कि आपकी लिखी कहानियाँ महज़ कहानी न होकर प्रशिक्षण संस्थान का मानसरोवर होती हैं जिससे कोई भी जिज्ञासु हंस लेखन की कला के मोती बटोर सकता है।
जवाब देंहटाएंमित्र, मेरी इस कहानी के विषय में तुम्हारे जैसे कलम के धनी की यह उदार टिप्पणी मेरा खून निरंतर बढ़ाते रहने के लिए काफ़ी है.
हटाएंपहाड़ के कठिन जीवन में हमने बहुत ख़ूबसूरत और यादगार पल भी बिताए हैं.
आज भी अपनी लाठी से ठक-ठक करती दुर्गारानी हमारी यादों के न जाने कितने दरवाज़े खोल जाती है.
बहुत सुंदर दिल को छूने वाली मार्मिक कहानी
जवाब देंहटाएंकहानी की प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनिता जी.
हटाएंमर्मस्पर्शी ! पहाड़ का जीवन हमने शिवानी के ही उपन्यासों से जाना है । आज यह कहानी भी बहुत कुछ बता रही है । आभार ।।
जवाब देंहटाएंकहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद संगीता जी.
हटाएंशिवानी की कलम पहाड़ के कठिन जीवन को बहुत रूमानी बना कर पेश करती है लेकिन वास्तविकता इस से हट कर होते हुए भी ख़ूबसूरत है.
मेरा बस चले तो मैं अपनी बाक़ी की ज़िंदगी पहाड़ में ही गुज़ार दूं पर अब शरीर पहाड़ी जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम नहीं रह गया है.
बहुत ही हृदयस्पर्शी संस्मरणात्मक कहानी
जवाब देंहटाएंइजा की व्यथा और अंत आँखें नम कर गया...
कमाल की लेखनी आपकी🙏🙏🙏
ऐसी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद सुधा जी. हमारे जीवन में तथाकथित निम्नवर्ग के ऐसे बहुत से लोग आते हैं जिन से हम बिना कोई मोल दिए निश्छलता और सच्चा प्यार करना खरीद सकते हैं.
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