सोमवार, 28 फ़रवरी 2022
आपस में दोऊ लड़ मूए
शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
नानी कंजूस
लाला मूलचंद कीरतपुर के बड़े रईस थे. उनकी तिजोरी सोने-चांदी और रुपयों से हमेशा भरी रहती थी.
और लाला की तिजोरी भरी क्यों नहीं रहती?
एक तरफ़ लाला का कोयले का थोड़ा सफ़ेद और ज़्यादातर काला धंधा ज़ोरों में चल रहा था तो दूसरी तरफ़ लाला की कंजूसी की कृपा से उनकी तिजोरी सिर्फ़ माल भरने के काम आती थी न कि माल निकालने के.
लाला की धर्मपत्नी श्रीमती भागवंती पर अपने पति की कृपणता का कोई असर नहीं पड़ा था. उनके पिता उनके लिए अच्छी-खासी संपत्ति छोड़ गए थे और उस से होने वाली आमदनी को वो अपनी मर्ज़ी से खर्च भी करती थीं.
लाला का इकलौता बेटा पूरन चंद उनकी – ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ वाली जीवन-शैली से इतना त्रस्त हुआ कि उसने घर जमाई बन कर बाजपुर स्थित अपने ससुर के धंधे में ही उनका हाथ बटाना शुरू कर दिया था.
लाला ने पूरन चंद को अपनी जायदाद से तो नहीं लेकिन अपने घर से बेदख़ल कर दिया था.
बेचारी भागवंती देवी तीरथ जाने के बहाने बाजपुर जा कर चोरी-छुपे अपनी आँखों के तारे पूरन से, अपनी बहू से और अपने पोते-पोतियों से मिलती रहती थीं.
लाला अपनी एकमात्र बेटी शोभा से भी नाराज़ ही रहते थे. उस पुराने ज़माने में उसने अपने पिता की मर्ज़ी के बगैर एक स्कूल मास्टर से प्रेम-विवाह किया था.
लाला मूलचंद यूँ तो बेटी के प्रेम-विवाह से अन्दर ही अन्दर ख़ुश थे क्योंकि उसकी शादी में उन्हें एक धेला भी खर्च नहीं करना पड़ा था लेकिन ज़ाहिरी तौर पर उन्हें अपना गुस्सा तो जताना ही था इसलिए उन्होंने अपने घर में अपने बेटे के परिवार की ही तरह अपनी बेटी के परिवार की एंट्री भी बैन कर रखी थी.
भागवंती देवी को जसवंतपुर में रह रही शोभा से और उसके परिवार से भी चोरी-छुपे ही मिलना पड़ता था और इसके लिए उन्हें गंगा-स्नान का बहाना करना पड़ता था.
शोभा की शादी के एक साल बाद ही उसके यहाँ चाँद सा एक बेटा हुआ था.
नाराज़ नाना न तो नाती को देखने गए और न ही उसके लिए उन्होंने कोई उपहार भेजा.
इस बार भी भागवंती देवी का गंगा-स्नान का बहाना ही नवजात शिशु को एक से एक कीमती उपहार दिलवा पाया था.
देखते-देखते शोभा का बेटा कुलदीप पांच साल का हो गया था पर उसने अब तक न तो अपनी ननिहाल देखी थी और न ही अपने नाना को देखा था. उसकी नानी उसके घर आती तो थीं लेकिन उन्हें हमेशा जल्दी से जल्दी वापस लौटने की पड़ी रहती थी.
कुलदीप के पांचवें जन्मदिन पर भागवंती देवी उसे आशीर्वाद देने के बाद जब जसवंतपुर से कीरतपुर लौटने लगीं तो वह उनका आंचल पकड़ कर कहने लगा –
‘नानी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा.’
फिर वो हुआ जो इस से पहले कभी नहीं हुआ था. भागवंती देवी ने दृढ़ता के साथ शोभा से कहा –
‘शोभा, मैं कुलदीप लल्ला को अपने साथ ले जा रही हूँ. अगर इसे तेरे बाबूजी ने अपना लिया तो तू भी आ जइयो नहीं तो मैं इसे फ़ौरन तेरे पास वापस ले आऊँगी.’
शोभा ने अपनी माँ के इस साहसिक अभियान का कोई विरोध नहीं किया और भागवंती देवी को कुलदीप सौंप दिया.
भागवंती देवी और उनकी उंगली थामे कुलदीप जब लाला मूलचंद के सामने हाज़िर हुए तो लाला पलक झपकते ही बिना बताए सारी कहानी समझ गए. उन्होंने ताना मारते हुए अपनी श्रीमती जी से पूछा –
‘क्यों भागवान, क्या गंगा-घाट पर नाती भी मिलते हैं?
सच बताना, ये छोरा शोभा का बेटा है न?
इसे यहाँ लाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’
भागवंती देवी ने लाला के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने कुलदीप को पुचकार कर कहा –
‘बेटा, नाना जी के पैर छुओ.’
आज्ञाकारी बेटा जी ने नानी के आदेश का पालन करते हुए नाना जी के पैर छू लिए.
फिर एक अजूबा हुआ.
लाला ने न सिर्फ़ कुलदीप को आशीर्वाद दिया बल्कि उसे प्यार से अपनी गोदी में उठा भी लिया. फिर उन्होंने भागवंती देवी को झूठ-मूठ में डांटते हुए कहा –
‘भागवान, तुमने लल्ला को इसकी माँ से चुराया है. इस से पहले कि वो थाने में इसके अगवा करने की रपट लिखाए तुम उसे भी यहाँ बुला लो.’
मारे ख़ुशी के भागवंती देवी की आँखों से आंसुओं की धार बह निकली. उन्होंने शोभा को बुलाने के लिए तुरंत तार भिजवा दिया.
और इस तरह कुलदीप लल्ला के कीरतपुर पधारने के बाद उनकी माताजी को उनकी बदौलत ही अपना मायका देखना और अपने बाबूजी से मिलना नसीब हुआ.
कुलदीप की और लाला की दोस्ती के चर्चे तो पूरे कीरतपुर में फैल गए.
सुबह-सुबह कुलदीप लाला जी के साथ कंपनी बाग़ घूमने जाता था. लाला जी देर तक उसे झूले पर झुलाते थे तो कभी उसके साथ फिसलने पर उसी की तरह शोर मचाते हुए फिसलते थे.
बग्घी और मोटर कार रखने की हैसियत रखने वाले लाला जी, कुलदीप को अपनी साइकिल पर बैठा कर पूरे कीरतपुर की सैर कराते थे.
लाला कुलदीप लल्ला पर अपनी जान छिड़कते थे और उनका लल्ला भी उन्हें अपना सबसे पक्का दोस्त समझता था.
अपनी दुकान पर बिताए गए आठ घंटों के अलावा लाला का सारा वक़्त अपने नाती के साथ ही बीता करता था.
लेकिन इस नए उपजे प्रेम ने लाला के – ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ वाले उसूलों पर कोई आंच नहीं आने दी थी. हाँ, उसमें आने-दो आने के हिसाब से रोज़ाना की खरोंच वह बाल-गोपाल ज़रुर लगा देता था.
कुलदीप के नाना जी उसको हर सोमवार को साइकिल पर बैठा कर पुत्तन हलवाई के यहाँ दो आने की जलेबी खिलवाते थे, इस ट्रीट का उस बाल-गोपाल को अगले छः दिन तक इंतज़ार रहता था.
शोभा के यह समझ में नहीं आता था कि कुलदीप को जलेबी खिलवाने के लिए उसके बाबूजी उसे घर से दो मील दूर पुत्तन हलवाई की दुकान पर क्यों ले जाते थे जब कि घर के आसपास हलवाइयों की कई अच्छी दुकानें थीं.
भागवंती देवी ने इस पहेली को सुलझाते हुए शोभा को बताया –
‘हमारे घर के आसपास के सभी हलवाई देसी घी में बनी जलेबी चार रूपये सेर बेचते हैं जब कि पुत्तन हलवाई घासलेट (वनस्पति घी) में बनी जलेबी दो रुपया सेर बेचता है. दो आने की छटांक भर जलेबी खा कर कुलदीप लल्ला ख़ुश और अपनी जेब से सिर्फ़ दुअन्नी निकलने से तेरे बाबूजी भी ख़ुश !’
कुलदीप को नाना जी के साथ हर मंगलवार की शाम को हनुमान जी के मन्दिर जाना भी बहुत अच्छा लगता था. मन्दिर में नाना जी तो कभी प्रसाद खरीद कर उसे नहीं खिलवाते थे लेकिन और बहुत से भक्त उसे प्रसाद में ख़ूब सारी बूंदी देते थे.
कुलदीप के अपने शहर जसवंतपुर में कोई सिनेमा हॉल ही नहीं था लेकिन कीरतपुर में तो दो-दो सिनेमा हॉल थे.
कुलदीप के बहुत जिद करने पर एक दिन नाना जी ने उसे सिनेमा हॉल ले जा कर एक फ़िल्म दिखा दी लेकिन चवन्नी क्लास में और वो भी उसे अपनी गोदी में बिठा कर.
कुलदीप की नानी को न तो उसकी मनपसंद जलेबी बनाना आता था और न ही वो कभी बाज़ार से उसके लिए जलेबी मंगवाती थीं. वो तो आए दिन उसके लिए कलाकंद या बादाम का हलुआ बनाती थीं जो कि उसे बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते थे.
नाना जी बाज़ार में कुलदीप को अक्सर उसके मन-पसंद गोलगप्पे खिलाया करते थे जब कि नानी घर के सामने आए गोलगप्पे वाले को भी यह कह कर भगा देती थीं कि गोलगप्पे खाने से हमारे लल्ला का गला खराब हो जाएगा.
नानी उसके लिए बहुत से कपड़े लाती थीं लेकिन माताजी तो बस, उन्हें अपने बक्से में रख लेती थीं.
नानी कुलदीप के लिए एक छोटी सी साइकिल ले कर भी आई थीं लेकिन उसको तो अभी साइकिल चलाना आता ही नहीं था.
हाँ, कुलदीप को पटरी पर से खरीदी नाना जी की दिलाई टोपी, पीपनी रबड़ की गेंद, और गुलेल बहुत पसंद थीं.
गर्मियां ख़त्म होने को थीं और अब तो जसवंतपुर के स्कूल में कुलदीप का नाम भी लिखाया जाना था.
कुलदीप तो नाना जी को छोड़ कर जसवंतपुर जाने को तैयार ही नहीं था और इधर नाना जी भी उस से बिछड़ने के ख़याल से ही रुआंसे हो रहे थे.
आख़िरकार शोभा और कुलदीप की विदाई की घड़ी आ ही गयी.
लाला मूलचंद तो शोभा के साथ रखे जाने के लिए पुत्तन हलवाई के यहाँ से दो सेर वनस्पति घी की बढ़िया मिठाई लाना चाहते थे लेकिन भागवंती देवी ने अपनी वीटो पॉवर का इस्तेमाल कर घर में ही हलवाई बुलवा कर देसी घी के तमाम पकवान बनवाए और उन सबको बिटिया के सामान के साथ बंधवा दिया.
बेटी के और नाती के विदा होते समय कलेजे पर पत्थर रख कर लाला मूलचंद ने शोभा को पांच रूपये भेंट किए.
और जब कुलदीप को भेंट देने की बारी आई तो लाला ने पहले कुलदीप के हाथों में पुत्तन हलवाई के यहाँ से लाया हुआ जलेबी का दौना रखा और फिर उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसे दो रूपये का एक चमकता हुआ नोट प्रदान किया.
भागवंती देवी ने ने भी शोभा के हाथ में सोने की एक गिन्नी रक्खी और कुलदीप की नेकर की जेब में चांदी के दो सिक्के रख दिए.
कुलदीप ने अपने नेकर की जेब में से नानी की भेंट निकाल कर देखी –
कालिख लगे दो सफ़ेद सिक्के उसका मुंह चिढ़ा रहे थे.
कुलदीप को इतनी गणित आती थी कि वह दो गंदे से सिक्कों की भेंट में और दो रूपये के चमचमाते नोट के साथ जलेबी के दौने की भेंट में यह जान सके कि कौन बड़ा है और कौन छोटा. उसने अपनी माँ से फुसफुसाते हुए पूछा –
‘माताजी, नानी ने तुमको क्या दिया?’
माताजी ने नानी से भेंट में मिली हुई सोने की गिन्नी कुलदीप को दिखा दी.
नानी से माताजी को मिली भेंट देख कर कुलदीप लल्ला नानी से शिकायती लहजे में बोले –
‘नानी, नानाजी बहुत अच्छे हैं. नानाजी ने मुझे इत्ती सारी जलेबी दी हैं और दो रुपये का अच्छा वाला नोट भी दिया है. उन्होंने माताजी को तो पांच रूपये दिए हैं.
तुमने मुझे दो गंदे सिक्के दिए हैं और माताजी को बस, एक पीला सिक्का !
तुम बड़ी कंजूस हो नानी !’
कुलदीप के यह समझ में नहीं आ रहा था कि वो नानी को कंजूस कह रहा है तो फिर नानी और माताजी इतना हंस क्यों रही हैं!
बुधवार, 16 फ़रवरी 2022
बंदर के हाथ में उस्तरा
मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल की वाल से साभार –
रविवार, 13 फ़रवरी 2022
अर्श से फ़र्श तक का सफ़र
असग़र गौंडवी का एक बड़ा मक़बूल शेर है –
‘सौ बार तिरा दामन, हाथों में मिरे आया,
बुधवार, 9 फ़रवरी 2022
सबै कुंअन माँ भांग परी
हरी, सफ़ेद हो या लाल, नीली, भगवा हो,
पहन
ले कोई भी टोपी, वो हमको ठगता है,
अजीब
क़ायदा चलता, यहाँ सियासत में,
अगर
ज़मीर सुलाओ, तो भाग्य जगता है.
रविवार, 6 फ़रवरी 2022
नब्बन मियां
1971 में पिताजी की पोस्टिंग मैनपुरी हो गयी थी.
मैंने तभी बी०
ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की थी.
मैनपुरी बड़ा
पिछड़ा इलाक़ा था. वहां मुलायम सिंह यादव वाली ब्रज और कनौजिया बोली की खिचड़ी भाषा
बोली जाती थी.
लखनवी तहज़ीब
के मुरीद मुझ नाचीज़ को यह जगह बिलकुल पसंद नहीं आई थी.
उन दिनों
हमारे राजेन्द्र मामा की पोस्टिंग भी मैनपुरी में थी और हमारी खासुल-ख़ास दोस्त
नानी उन्हीं के साथ रहती थीं.
महीने में कम
से कम दो बार मामा परिवार का और हमारे परिवार का एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना लगा
करता था.
हमारा घर तो
सिविल लाइन्स के क़रीब था लेकिन मामा का घर शहर के बीचो-बीच भीड़-भाड़ वाले इलाक़े में
था.
पिताजी की
ड्राइविंग कमाल की हुआ करती थी. भीड़-भाड़ वाले इलाके में 25-30 किलोमीटर प्रति घंटे
की तीव्र गति से चलने वाली हमारी कार किसी न किसी से तो टकरा ही जाती थी.
मासिक
डेंटिंग-पेंटिंग कराने से दुखी पिताजी ने नाज़िर से कह कर अपने दो चपरासियों में से
एक ऐसे चपरासी का इंतज़ाम करवाया जो कि ड्राइविंग जानता हो.
इस नए इंतज़ाम
की बदौलत नब्बन मियां का हमारे घर में आगमन हुआ.
नब्बन मियां
यूँ तो साठ साल से काफ़ी ऊपर उम्र के थे लेकिन उनकी सरकारी उम्र के हिसाब से उनके
रिटायरमेंट में पूरे दो साल बाक़ी थे. बुजुर्गवार और निहायत नाज़ुक किस्म के नब्बन
मियां घरेलू काम में निपट अनाड़ी थे और हमारी माँ को वो इसलिए एक आँख भी नहीं भाते
थे.
अगर नब्बन
मियां हरी मटर भी छीलते थे तो उसको झाड़ने-पोंछने में काफ़ी वक़्त लगाते थे फिर उसके
छिलके को बिना चोट पहुंचाए उसे खोल कर उसमें से उसके दाने ऐसे निकालते थे जैसे कोई
भारी गुनाह कर रहे हों.
माँ कहती थीं
कि नब्बन मियां से एक किलो हरी मटर छिलवाते-छिलवाते तो उसकी दूसरी फ़सल तैयार हो
सकती थी.
नब्बन मियां
मुझ से कहा करते थे कि अपनी ज़िंदगी में उन्होंने तीन इश्क़ किए हैं.
नब्बन मियां
का पहला इश्क़ था ड्राइविंग और कारों से, उनका दूसरा इश्क़ था शेरो-शायरी से और उनका
तीसरा इश्क़ था पान से.
नब्बन मियां
बड़े माहिर ड्राइवर थे लेकिन उनकी ड्राइवरी की सेवाएँ लिए जाने के मौके कम ही आते
थे क्योंकि हमारा घर पिताजी के कोर्ट के ठीक पीछे था.
हाँ, बाज़ार में
मासिक ख़रीदारी करने के लिए, हर इतवार को जैन मन्दिर जाते वक़्त या फिर मामा के घर जाते वक़्त, नब्बन मियां
ही पिताजी के सारथी हुआ करते थे.
सारथी के रूप
में नब्बन मियां की सेवाएं लिए जाने में भी एक पेंच था.
नब्बन मियां
को रतौंधी आती थी इसलिए सूर्यास्त से पहले ही हमारी घर-वापसी ज़रूरी हुआ करती थी.
नब्बन मियां
को पिताजी की कार से बे-इन्तहा मोहब्बत थी.
कार को चमकाने
के अलावा वो उसके इंजन सहित तमाम कलपुर्जों की भी सफ़ाई कर दिया करते थे.
नब्बन मियां
की बदौलत पिताजी को कार ठीक कराने के लिए मेकेनिक के यहाँ बहुत कम बार ही जाना
पड़ता था.
अपनी ख़ालिस
उर्दू वाली शीरीं ज़ुबान से नब्बन मियां ने तो मेरा तो दिल ही जीत लिया था.
अपने खानसामा
वालिद के साथ नब्बन मियां का बचपन लखनऊ में बीता था.
लखनऊ में ही
उनकी दिलचस्पी शेरो-शायरी में हो गयी थी.
नब्बन मियां
को सैकड़ों अशआर, ग़ज़लें और नज़्में याद थीं.
नज़ीर
अकबराबादी का क़लाम – ‘महादेव का ब्याह’ पहली बार मैंने उन से ही सुना था.
‘दीवान-ए-ग़ालिब’ तो शायद उन्हें पूरा ही याद था.
नब्बन मियां
उर्दू के ही नहीं बल्कि फ़ारसी के भी जानकार थे. ऐसे आलिम-फ़ाज़िल शख्स को चपरासगिरी
करते मुझे हैरत होती थी.
अपनी बदहाली
पर मुझे हैरान-परेशान होते हुए देख कर नब्बन मियां आह भर कर कहते थे –
‘पढ़ें फ़ारसी, बेचें तेल, ये देखो क़िस्मत का खेल’
मेरे जैसे
उर्दू के पैदल सिपाही के लिए अच्छी बात यह थी कि नब्बन मियां जो अशआर मुझे सुनाते
थे, उनकी बड़ी ख़ूबसूरत व्याख्या भी कर दिया करते थे.
नब्बन मियां की
क़िस्सागोई और उनका काव्य-पाठ अब माँ को भी पसंद आने लगा था.
नब्बन मियां
से उन्हें मीर अनीस और मिर्ज़ा सलामत अली दबीर के मर्सिये सुनना बहुत अच्छा लगता
था.
मर्सिये में
कर्बला के मैदान में हज़रत हुसेन और उनके साथियों की शहादत का ज़िक्र करते-करते नब्बन
मियां ख़ुद रोने लगते थे और माँ को भी रोने के लिए मजबूर कर देते थे.
नब्बन मियां
ख़ुद इतना पान खाते थे कि पिताजी उन्हें किसी बकरी का बड़ा भाई मानते थे.
कोर्ट में हर
मुवक्किल नब्बन मियां को दो-तीन बीड़ा पान ज़रुर नज़र किया करता था.
नब्बन मियां
मुवक्किलों से कहा करते थे कि बिना पान खाए उनका गला खुलता ही नहीं इसलिए – ‘हाज़िर हो ---’ की पुकार दूर
तक पहुंचाए जाने के लिए उनका पान खाना ज़रूरी है.
हमारे घर में
पीतल का एक बहुत ख़ूबसूरत मुरादाबादी काम वाला पानदान हुआ करता था.
यह खानदानी
पानदान पिताजी के जन्म से भी पहले का था.
पिताजी उन
दिनों एक दिन में तीन-चार पान खाया करते थे लेकिन आमतौर पर घर में तैयार किए हुए
ही.
हमारे इस
खानदानी पानदान में आठ बड़ी ख़ूबसूरत कटोरियाँ हुआ करती थीं जिन में कत्था, सुपारी, लौंग, सौंफ, इलायची, पिपरमिंट, आदि रखे जाते
थे और इनको ढकने वाली तश्तरी में पान रखे जाते थे.
पान के लिए
चूना रखने के लिए मिट्टी की एक छोटी सी मलिया-हांडी अलग से हुआ करती थी.
पान के निहायत
शौकीन नब्बन मियां हमारे पानदान को देखते ही उसके मुरीद हो गए थे.
हमारे पानदान
को चमकाने के लिए नब्बन मियां न जाने क्या-क्या जतन किया करते थे. पानदान को साफ़
करने के लिए नीबू, लकड़ी के
कोयले की कपड़े
से छानी गयी राख, ब्रासो वगैरा तो हमारे यहाँ हमेशा तैयार रहते ही थे.
दो घंटे की
कड़ी मेहनत-मशक्क़त कर पानदान चमकाने के बाद नब्बन मियां उसे पिताजी को दिखाते हुए
कहते थे –
‘हुज़ूर कोई कमी रह गयी हो तो बताइएगा !’
और हुज़ूर ख़ुश
हो कर कहते थे –
‘नब्बन मियां ! तुमने तो हमारे पानदान को आइना ही बना दिया है.’
नब्बन मियां
से ज़्यादा सलीके से पान बनाने वाला तो कोई पेशेवर पनवाड़ी भी नहीं हो सकता था.
पिताजी के लिए
एक पान तैयार करने में वो तक़रीबन पंद्रह मिनट तो ले ही लिया करते थे.
नब्बन मियां
का बनाया पान खा कर पिता जी हमेशा कहा करते थे –
‘नब्बन मियां आज तो तुमने कमाल ही कर दिया !’
मैनपुरी में माँ-पिताजी
और नब्बन मियां के दिन अच्छे गुज़र रहे थे कि अचानक एक छोटा सा हादसा हो गया.
पिताजी के
दांतों में एकदम से बहुत दर्द हुआ.
पिताजी को
डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में डेंटल सर्जन की शरण में जाना पड़ा.
डॉक्टर साहब
ने पिताजी के दांतों की देर तक जांच की.
डॉक्टर साहब
को पिताजी की पान खाने की आदत के बारे में पता था. जांच-पड़ताल के बाद डॉक्टर साहब
का पहला वाक्य था –
‘जैसवाल साहब, आपको पान खाना तो हमेशा के लिए छोड़ना पड़ेगा.’
पिताजी ने
डॉक्टर साहब की हिदायत पर उसी दिन से पान खाना छोड़ दिया.
पानदान में
रखे बिना बने पान, कत्था, सुपारियाँ, सरौंता और चूने की हांडी नब्बन मियां के हिस्से में आईं. लौंग, इलाइची, सौंफ़, पिपरमिंट
वगैरा हमारे किचन में पहुँच गए.
पन्द्रह दिनों
में ही पिताजी को दांत के दर्द से निजात मिल गयी लेकिन फिर हमारा ख़ानदानी पानदान
कभी आबाद नहीं हुआ.
बेचारे नब्बन
मियां ने मरे मन से उसे झाड-पोंछ कर हमारे बर्तनों के बक्से में रख दिया.
मैनपुरी
प्रवास के अंतिम दिनों में हमारे घर में दो खुशियाँ एक साथ आई थीं.
पहली खुशखबरी
थी कि मैंने मॉडर्न एंड मेडिएवल इंडियन हिस्ट्री की एम० ए० की परीक्षा में लखनऊ
यूनिवर्सिटी में टॉप किया था.
दूसरी खुशखबरी
इस से भी बड़ी थी –
बरसों की
प्रतीक्षा के बाद पिताजी की अपने कैरियर की पहली (और आख़िरी भी) पदोन्नति हुई थी. पिताजी को अब चीफ़ जुडिशिअल
मजिस्ट्रेट के रूप में आज़मगढ़ में चार्ज लेना था.
एक तीसरी ख़बर
भी थी लेकिन वह अच्छी नहीं थी.
पिताजी के
मैनपुरी छोड़ने से दस दिन पहले ही नब्बन मियां रिटायर हो रहे थे.
नब्बन मियां
रिटायर होने से मायूस तो थे लेकिन उस से भी ज़्यादा ग़मगीन वो हमसे बिछड़ने से थे.
नब्बन मियां
की जिस दिन हमारे घर से विदाई हो रही थी उस दिन पिताजी ने उन्हें आख़िरी हुक्म देते
हुए कहा –
‘नब्बन मियां, ज़रा बर्तनों के बक्से से वो पानदान निकालो और उसे चमका कर हमारे पास लाओ.’
अगले दो घंटे
तक नब्बन मियां पानदान को चमकाते रहे और फिर आइने जैसा चमकता हुआ पानदान उन्होंने
पिताजी के सामने रख दिया.
पिताजी के बगल
में एक ख़ूबसूरत सा डिब्बा रखा हुआ था.
नब्बन मियां
से कहा गया कि वो पानदान उस डिब्बे में पैक करें.
नब्बन मियां
ने उस डिब्बे में पानदान को पैक भी कर दिया.
हमारे घर में
नब्बन मियां का यही आख़िरी काम था.
अब नब्बन
मियां को हमारे घर से विदा होना था.
विदा होते
वक़्त नब्बन मियां मुझ से तो बाक़ायदा गले लग कर रोए. नब्बन मिया ने अपनी आँखों के
आंसू पोंछते हुए अहमद फ़राज़ का एक शेर कहा –
‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे
हुए फूल किताबों में मिलें’
जाने से पहले
माँ-पिताजी को नब्बन मियां ने फ़र्शी सलाम किया.
पिताजी ने नब्बन
मियां के ही सौजन्य से ख़ूबसूरत पैकिंग में सजा पानदान उनको भेंट करते हुए कहा –
‘नब्बन मियां, हमारे ख़ानदानी पानदान की तुम से ज़्यादा क़द्र और कौन कर सकता है? आज से यह
पानदान तुम्हारा हुआ ! इस पानदान के बहाने हमको याद कर लिया करना.’
पता नहीं नब्बन मियां ने हम लोगों को याद किया कि नहीं, पता नहीं उन्हें गुज़रे हुए
अब कितना वक़्त बीत गया है पर वो आज भी मेरे ख़यालों में पिताजी की कार ड्राइव करते
हुए हमारे घर आते हैं और अपने मुंह में किवाम पड़े पान की खुशबू बिखेरते हुए मुझे
कोई न कोई ख़ूबसूरत शेर ज़रुर सुना जाते हैं.