1971 में पिताजी की पोस्टिंग मैनपुरी हो गयी थी.
मैंने तभी बी०
ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की थी.
मैनपुरी बड़ा
पिछड़ा इलाक़ा था. वहां मुलायम सिंह यादव वाली ब्रज और कनौजिया बोली की खिचड़ी भाषा
बोली जाती थी.
लखनवी तहज़ीब
के मुरीद मुझ नाचीज़ को यह जगह बिलकुल पसंद नहीं आई थी.
उन दिनों
हमारे राजेन्द्र मामा की पोस्टिंग भी मैनपुरी में थी और हमारी खासुल-ख़ास दोस्त
नानी उन्हीं के साथ रहती थीं.
महीने में कम
से कम दो बार मामा परिवार का और हमारे परिवार का एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना लगा
करता था.
हमारा घर तो
सिविल लाइन्स के क़रीब था लेकिन मामा का घर शहर के बीचो-बीच भीड़-भाड़ वाले इलाक़े में
था.
पिताजी की
ड्राइविंग कमाल की हुआ करती थी. भीड़-भाड़ वाले इलाके में 25-30 किलोमीटर प्रति घंटे
की तीव्र गति से चलने वाली हमारी कार किसी न किसी से तो टकरा ही जाती थी.
मासिक
डेंटिंग-पेंटिंग कराने से दुखी पिताजी ने नाज़िर से कह कर अपने दो चपरासियों में से
एक ऐसे चपरासी का इंतज़ाम करवाया जो कि ड्राइविंग जानता हो.
इस नए इंतज़ाम
की बदौलत नब्बन मियां का हमारे घर में आगमन हुआ.
नब्बन मियां
यूँ तो साठ साल से काफ़ी ऊपर उम्र के थे लेकिन उनकी सरकारी उम्र के हिसाब से उनके
रिटायरमेंट में पूरे दो साल बाक़ी थे. बुजुर्गवार और निहायत नाज़ुक किस्म के नब्बन
मियां घरेलू काम में निपट अनाड़ी थे और हमारी माँ को वो इसलिए एक आँख भी नहीं भाते
थे.
अगर नब्बन
मियां हरी मटर भी छीलते थे तो उसको झाड़ने-पोंछने में काफ़ी वक़्त लगाते थे फिर उसके
छिलके को बिना चोट पहुंचाए उसे खोल कर उसमें से उसके दाने ऐसे निकालते थे जैसे कोई
भारी गुनाह कर रहे हों.
माँ कहती थीं
कि नब्बन मियां से एक किलो हरी मटर छिलवाते-छिलवाते तो उसकी दूसरी फ़सल तैयार हो
सकती थी.
नब्बन मियां
मुझ से कहा करते थे कि अपनी ज़िंदगी में उन्होंने तीन इश्क़ किए हैं.
नब्बन मियां
का पहला इश्क़ था ड्राइविंग और कारों से, उनका दूसरा इश्क़ था शेरो-शायरी से और उनका
तीसरा इश्क़ था पान से.
नब्बन मियां
बड़े माहिर ड्राइवर थे लेकिन उनकी ड्राइवरी की सेवाएँ लिए जाने के मौके कम ही आते
थे क्योंकि हमारा घर पिताजी के कोर्ट के ठीक पीछे था.
हाँ, बाज़ार में
मासिक ख़रीदारी करने के लिए, हर इतवार को जैन मन्दिर जाते वक़्त या फिर मामा के घर जाते वक़्त, नब्बन मियां
ही पिताजी के सारथी हुआ करते थे.
सारथी के रूप
में नब्बन मियां की सेवाएं लिए जाने में भी एक पेंच था.
नब्बन मियां
को रतौंधी आती थी इसलिए सूर्यास्त से पहले ही हमारी घर-वापसी ज़रूरी हुआ करती थी.
नब्बन मियां
को पिताजी की कार से बे-इन्तहा मोहब्बत थी.
कार को चमकाने
के अलावा वो उसके इंजन सहित तमाम कलपुर्जों की भी सफ़ाई कर दिया करते थे.
नब्बन मियां
की बदौलत पिताजी को कार ठीक कराने के लिए मेकेनिक के यहाँ बहुत कम बार ही जाना
पड़ता था.
अपनी ख़ालिस
उर्दू वाली शीरीं ज़ुबान से नब्बन मियां ने तो मेरा तो दिल ही जीत लिया था.
अपने खानसामा
वालिद के साथ नब्बन मियां का बचपन लखनऊ में बीता था.
लखनऊ में ही
उनकी दिलचस्पी शेरो-शायरी में हो गयी थी.
नब्बन मियां
को सैकड़ों अशआर, ग़ज़लें और नज़्में याद थीं.
नज़ीर
अकबराबादी का क़लाम – ‘महादेव का ब्याह’ पहली बार मैंने उन से ही सुना था.
‘दीवान-ए-ग़ालिब’ तो शायद उन्हें पूरा ही याद था.
नब्बन मियां
उर्दू के ही नहीं बल्कि फ़ारसी के भी जानकार थे. ऐसे आलिम-फ़ाज़िल शख्स को चपरासगिरी
करते मुझे हैरत होती थी.
अपनी बदहाली
पर मुझे हैरान-परेशान होते हुए देख कर नब्बन मियां आह भर कर कहते थे –
‘पढ़ें फ़ारसी, बेचें तेल, ये देखो क़िस्मत का खेल’
मेरे जैसे
उर्दू के पैदल सिपाही के लिए अच्छी बात यह थी कि नब्बन मियां जो अशआर मुझे सुनाते
थे, उनकी बड़ी ख़ूबसूरत व्याख्या भी कर दिया करते थे.
नब्बन मियां की
क़िस्सागोई और उनका काव्य-पाठ अब माँ को भी पसंद आने लगा था.
नब्बन मियां
से उन्हें मीर अनीस और मिर्ज़ा सलामत अली दबीर के मर्सिये सुनना बहुत अच्छा लगता
था.
मर्सिये में
कर्बला के मैदान में हज़रत हुसेन और उनके साथियों की शहादत का ज़िक्र करते-करते नब्बन
मियां ख़ुद रोने लगते थे और माँ को भी रोने के लिए मजबूर कर देते थे.
नब्बन मियां
ख़ुद इतना पान खाते थे कि पिताजी उन्हें किसी बकरी का बड़ा भाई मानते थे.
कोर्ट में हर
मुवक्किल नब्बन मियां को दो-तीन बीड़ा पान ज़रुर नज़र किया करता था.
नब्बन मियां
मुवक्किलों से कहा करते थे कि बिना पान खाए उनका गला खुलता ही नहीं इसलिए – ‘हाज़िर हो ---’ की पुकार दूर
तक पहुंचाए जाने के लिए उनका पान खाना ज़रूरी है.
हमारे घर में
पीतल का एक बहुत ख़ूबसूरत मुरादाबादी काम वाला पानदान हुआ करता था.
यह खानदानी
पानदान पिताजी के जन्म से भी पहले का था.
पिताजी उन
दिनों एक दिन में तीन-चार पान खाया करते थे लेकिन आमतौर पर घर में तैयार किए हुए
ही.
हमारे इस
खानदानी पानदान में आठ बड़ी ख़ूबसूरत कटोरियाँ हुआ करती थीं जिन में कत्था, सुपारी, लौंग, सौंफ, इलायची, पिपरमिंट, आदि रखे जाते
थे और इनको ढकने वाली तश्तरी में पान रखे जाते थे.
पान के लिए
चूना रखने के लिए मिट्टी की एक छोटी सी मलिया-हांडी अलग से हुआ करती थी.
पान के निहायत
शौकीन नब्बन मियां हमारे पानदान को देखते ही उसके मुरीद हो गए थे.
हमारे पानदान
को चमकाने के लिए नब्बन मियां न जाने क्या-क्या जतन किया करते थे. पानदान को साफ़
करने के लिए नीबू, लकड़ी के
कोयले की कपड़े
से छानी गयी राख, ब्रासो वगैरा तो हमारे यहाँ हमेशा तैयार रहते ही थे.
दो घंटे की
कड़ी मेहनत-मशक्क़त कर पानदान चमकाने के बाद नब्बन मियां उसे पिताजी को दिखाते हुए
कहते थे –
‘हुज़ूर कोई कमी रह गयी हो तो बताइएगा !’
और हुज़ूर ख़ुश
हो कर कहते थे –
‘नब्बन मियां ! तुमने तो हमारे पानदान को आइना ही बना दिया है.’
नब्बन मियां
से ज़्यादा सलीके से पान बनाने वाला तो कोई पेशेवर पनवाड़ी भी नहीं हो सकता था.
पिताजी के लिए
एक पान तैयार करने में वो तक़रीबन पंद्रह मिनट तो ले ही लिया करते थे.
नब्बन मियां
का बनाया पान खा कर पिता जी हमेशा कहा करते थे –
‘नब्बन मियां आज तो तुमने कमाल ही कर दिया !’
मैनपुरी में माँ-पिताजी
और नब्बन मियां के दिन अच्छे गुज़र रहे थे कि अचानक एक छोटा सा हादसा हो गया.
पिताजी के
दांतों में एकदम से बहुत दर्द हुआ.
पिताजी को
डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में डेंटल सर्जन की शरण में जाना पड़ा.
डॉक्टर साहब
ने पिताजी के दांतों की देर तक जांच की.
डॉक्टर साहब
को पिताजी की पान खाने की आदत के बारे में पता था. जांच-पड़ताल के बाद डॉक्टर साहब
का पहला वाक्य था –
‘जैसवाल साहब, आपको पान खाना तो हमेशा के लिए छोड़ना पड़ेगा.’
पिताजी ने
डॉक्टर साहब की हिदायत पर उसी दिन से पान खाना छोड़ दिया.
पानदान में
रखे बिना बने पान, कत्था, सुपारियाँ, सरौंता और चूने की हांडी नब्बन मियां के हिस्से में आईं. लौंग, इलाइची, सौंफ़, पिपरमिंट
वगैरा हमारे किचन में पहुँच गए.
पन्द्रह दिनों
में ही पिताजी को दांत के दर्द से निजात मिल गयी लेकिन फिर हमारा ख़ानदानी पानदान
कभी आबाद नहीं हुआ.
बेचारे नब्बन
मियां ने मरे मन से उसे झाड-पोंछ कर हमारे बर्तनों के बक्से में रख दिया.
मैनपुरी
प्रवास के अंतिम दिनों में हमारे घर में दो खुशियाँ एक साथ आई थीं.
पहली खुशखबरी
थी कि मैंने मॉडर्न एंड मेडिएवल इंडियन हिस्ट्री की एम० ए० की परीक्षा में लखनऊ
यूनिवर्सिटी में टॉप किया था.
दूसरी खुशखबरी
इस से भी बड़ी थी –
बरसों की
प्रतीक्षा के बाद पिताजी की अपने कैरियर की पहली (और आख़िरी भी) पदोन्नति हुई थी. पिताजी को अब चीफ़ जुडिशिअल
मजिस्ट्रेट के रूप में आज़मगढ़ में चार्ज लेना था.
एक तीसरी ख़बर
भी थी लेकिन वह अच्छी नहीं थी.
पिताजी के
मैनपुरी छोड़ने से दस दिन पहले ही नब्बन मियां रिटायर हो रहे थे.
नब्बन मियां
रिटायर होने से मायूस तो थे लेकिन उस से भी ज़्यादा ग़मगीन वो हमसे बिछड़ने से थे.
नब्बन मियां
की जिस दिन हमारे घर से विदाई हो रही थी उस दिन पिताजी ने उन्हें आख़िरी हुक्म देते
हुए कहा –
‘नब्बन मियां, ज़रा बर्तनों के बक्से से वो पानदान निकालो और उसे चमका कर हमारे पास लाओ.’
अगले दो घंटे
तक नब्बन मियां पानदान को चमकाते रहे और फिर आइने जैसा चमकता हुआ पानदान उन्होंने
पिताजी के सामने रख दिया.
पिताजी के बगल
में एक ख़ूबसूरत सा डिब्बा रखा हुआ था.
नब्बन मियां
से कहा गया कि वो पानदान उस डिब्बे में पैक करें.
नब्बन मियां
ने उस डिब्बे में पानदान को पैक भी कर दिया.
हमारे घर में
नब्बन मियां का यही आख़िरी काम था.
अब नब्बन
मियां को हमारे घर से विदा होना था.
विदा होते
वक़्त नब्बन मियां मुझ से तो बाक़ायदा गले लग कर रोए. नब्बन मिया ने अपनी आँखों के
आंसू पोंछते हुए अहमद फ़राज़ का एक शेर कहा –
‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे
हुए फूल किताबों में मिलें’
जाने से पहले
माँ-पिताजी को नब्बन मियां ने फ़र्शी सलाम किया.
पिताजी ने नब्बन
मियां के ही सौजन्य से ख़ूबसूरत पैकिंग में सजा पानदान उनको भेंट करते हुए कहा –
‘नब्बन मियां, हमारे ख़ानदानी पानदान की तुम से ज़्यादा क़द्र और कौन कर सकता है? आज से यह
पानदान तुम्हारा हुआ ! इस पानदान के बहाने हमको याद कर लिया करना.’
पता नहीं नब्बन मियां ने हम लोगों को याद किया कि नहीं, पता नहीं उन्हें गुज़रे हुए
अब कितना वक़्त बीत गया है पर वो आज भी मेरे ख़यालों में पिताजी की कार ड्राइव करते
हुए हमारे घर आते हैं और अपने मुंह में किवाम पड़े पान की खुशबू बिखेरते हुए मुझे
कोई न कोई ख़ूबसूरत शेर ज़रुर सुना जाते हैं.
वाह।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मित्र !
हटाएंकोई कोई व्यक्तित्व जहन और ख्यालों में बस जाते है।
जवाब देंहटाएंनब्बन मियां को जिस हिसाब से आपने बयां किया है उनकी एक तस्वीर बन जाती है पाठकों के मन में।
संजीदा।
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नब्बन मियां को पसंद करने लिए धन्यवाद रोहितास.
हटाएंरेणुबाला की कलम भी उन्हीं की तरह सरल, सहज और निश्च्छल है.
उनकी रचनाओं में बनावट का तो नामो-निशान भी नहीं होता और वो दिल को छू लेने की ताक़त रखती हैं.
साहित्यिक जगत में 'समय साक्षी रहना' की सफलता के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !
आदरणीय गोपेश जी, आपके शब्द पुनः भावुक कर गए 🙏🙏🌷🌷💐💐
हटाएंआदरणीय गोपेश जी, शब्द कौशल से सजा नब्बन मियां का ये खूबसूरत संस्मरण पढ़कर पहले खूब आनंद आया पर बाद में आँखें नम हो गईं। नबबन मियां जैसे लोग बतरस के हुनर के चलते किसी के भी जीवन में सहजता से जगह बना लेते हैं। पर यदि कोई उन्हें बेहतरीन कद्रदान मिल जाए तो सोने पे सुहागा हो जाता है। एक और उम्दा प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार और शुभकामनाएं 🙏🙏
जवाब देंहटाएंरेणुबाला तुम्हारी जैसी तारीफ़ तो कोई कवि-ह्रदय ही कर सकता है. मुझे ख़ुद किस्सागोई पसंद है और इस फ़न के उस्तादों की मैं क़द्र भी बहुत करता हूँ.
हटाएंउम्दा सृजन
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मनोज कायल जी.
हटाएंमन में आत्मीयता का रंग घोलता इतना सुंदर संस्मरण एक एक शब्द आनंद दे गया ।
जवाब देंहटाएंयही असली रिश्ते हैं । मेरे घर एक नाई बाराबंकी के एक गांव से 35 साल से आते हैं,शफीक मियां, मेरे बच्चे उन्हें नाना जैसी तरजीह देते हैं, और मेरे लिए तो वे पिता समान हैं । जब आते हैं तो हम उन्हें महीनों रोक लेते हैं, काफी बुजुर्ग हैं, उनकी मालिश का क्या कहूं ? कोई जवाब नहीं, इतने हुनरमंद । हर काम हां ।इस बार दिसंबर में आए थे, जानें कितनी गजलें,कितनी शायरी, कितने किस्से, कितनी कहानियाँ उनकी झोली में हैं,कह नहीं सकती । हर बार कुछ न कुछ उनसे सीखने को मिलता है ।
आपका ये संस्मरण उनकी याद दिला गया । ये बड़ी खुशकिस्मती की बात है, कि जीवन में ऐसे नायाब लोग मिलें ।... साझा करने के लिए आपका आभार 👏👏
प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा ! मुझे घर में लोगबाग चपरासी यूनियन का प्रेसिडेंट कह कर चिढ़ाते थे. मेरे कई संस्मरणों के मुख्य पात्र निम्न वर्ग से सम्बद्ध हैं. इस वर्ग से सम्बद्ध कई लोगों में मुझे ऐसे-ऐसे गुण दिखाई देते थे कि उनके सामने ख़ुद को अच्छी स्थिति में पा कर मुझे बहुत शर्म आती थी.
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