मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल की वाल से साभार –
निर्वाचनकालीन चिंता / Election-time worry
मर्कटस्य सुरापानं, मध्ये वृश्चिकदंशनम्।
तन्मध्ये भूतसंचारो, यद्वा तद्वा भविष्यति। (हितोपदेश)
स्वभाव से नटखट और चपल बंदर यदि मदिरापान करे; उसी बीच उसे बिच्छू डस ले, और ऊपर से उस पर भूत भी सवार हो जाए: तो फिर वह कैसे-कैसे उत्पात करेगा, इसकी कल्पना कीजिए !
(If a creature, capricious and hyperactive as a monkey, were to get drunk, then bitten by a scorpion and possessed by an evil spirit, who knows what mischief it will indulge in!)
मेरी अपनी व्याख्या :
मर्कट जैसा चपल, उत्पाती, उद्दंड, नेता चुनाव में खड़ा हो कर अगर जीत जाए और फिर उसे तुरंत मंत्री बना दिया जाए तो वह सत्ता के मद में चूर हो जाता है.
उसे - ‘मैं ही सब कुछ हूँ’ का अहंकार रूपी बिच्छू डस लेता है
और
साम-दाम-दंड-भेद का कैसे भी प्रयोग कर, कुर्सी पर आजीवन चुपके रहने का उस पर भूत सवार हो जाता है.
अब आप कल्पना कीजिए कि वह हम पर, हमारे लोकतंत्र पर और हमारे देश पर, कैसे-कैसे ज़ुल्मो-सितम ढा सकता है.
अब इलेक्शन भी हैं ... नेता भी हैं ... उस्तरा भी है ... जनता भी है ...
जवाब देंहटाएंजो न हो वो कम है बस ...
दिगंबर नासवा जी, राम-राज्य की आदर्श चुनाव-प्रक्रिया में देवता-स्वरुप नेतागण अपने पवित्र उस्तारों से हमारे संकट ही तो काटेंगे, और क्या करेंगे?
हटाएंकुर्सी है तो साम दाम दण्ड भेद तो होना निश्चित ही है...जहाँ कुर्सी वहाँ ये...कुर्सी के बिना इनकी क्या विसात और इनके बिना कुर्सी की कल्पना ही बेकार...।लोकतंत्र का क्या... यही तो किस्मत है लोकतंत्र की हमेशा हमेशा से।
जवाब देंहटाएंसुधा जी, अपने जोक-तंत्र (अरे माफ़ कीजिएगा, अपने लोकतंत्र) का उपहास उड़ाना अथवा उसकी पवित्रता पर संदेह करना अपराध ही नहीं, बल्कि पाप भी है.
हटाएंहर चुनाव के बाद यहीं तो होता आया है।
जवाब देंहटाएंज्योति, चुनाव से पहले जो तमाशा होता है वह तो चुनाव के बाद होने वाले तमाशे से भी ज़्यादा ख़तरनाक होता है.
जवाब देंहटाएंलगे रहें मुन्ने भाई सपने लेकर
जवाब देंहटाएंदोस्त, हम मुन्ना भाइयों के सपने तो रोज़ाना भुने हुए पापड़ की तरह टूटते रहते हैं.
जवाब देंहटाएंयही सत्य है
जवाब देंहटाएंमित्र, हमारा लोकतंत्र अब इन्हीं उन्मत्त-उद्दंड मर्कटों के हवाले है, यह भी सत्य है.
हटाएंचुनाव में हमारे देश में भांति भांति के अनुभव होते हैं। विचारणीय आलेख है आपका ।
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा मैंने तो अपने बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल द्वारा इशारों में कही गयी बात को सिर्फ़ विस्तार दे कर उसका खुलासा भर किया है.
हटाएंतुम्हारी तारीफ़ के पहले हक़दार तो कमल भाई साहब ही होने चाहिए.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 20 फ़रवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
'पांच लिंकों का आनंद'के 20 फ़रवरी, 2022 के अंक में हम भाइयों की रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
हटाएंहितोपदेश को संदर्भित करते हुए वर्तमान का उल्लेख लेखनी की जादूगरी
जवाब देंहटाएंवर्तमान पर्प्रेक्ष्य में हम भाइयों के द्वारा हितोपदेश की एक कथा की व्यंग्यात्मक व्याख्या की प्रशंसा के लिए धन्यवाद अरुण साथी.
हटाएंआदरणीय, आपने अपने वक्तव्य द्वारा लोकतंत्र की व्यवस्था की खामियों को चिन्हित किया है। अच्छा कटाक्ष!--ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के लिए शुक्रिया ब्रजेंद्रनाथ जी.
हटाएंशासन-व्यवस्था की खामियों को तो हितोपदेश के ज़माने से ही क्या, और पहले से उजागर किया जाता रहा है. पर ये खामियां हैं कि कभी दूर होने का नाम ही नहीं लेतीं.
एक समय के बाद मद्द में चूर व्यक्ति होश में आ ही जाता है परंतु सत्ता में आजीवन रहने की ललक का नशा कभी नहीं उतरता।
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिप्रेक्ष्य पर गहरा कटाक्ष।
अनीता, 'मेरे ज़िन्दा रहने तक कुर्सी मेरी और मेरे बाद मेरी औलादों की.'
हटाएंकोई धर्म के नाम पर, कोई मज़हब के नाम पर, कोई बाप के नाम पर, कोई जाति के नाम् पर, कुर्सी से चिपका रहना चाहता है.
देश रसातल में जाए तो जाए, उन्हें क्या?
सच भी,कटाक्ष भी
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
धन्यवाद ज्योति जी.
हटाएंखरी-खरी सुनाने के लिए तो घर फूँक तमाशा देखने वाले कबीर के जैसा कलेजा चाहिए इसलिए हम जैसे दुनियादारों को तो कटाक्ष का ही सहारा लेना पड़ता है.