असग़र गौंडवी का एक बड़ा मक़बूल शेर है –
‘सौ बार तिरा दामन, हाथों में मिरे आया,
जब आँख खुली, देखा, अपना ही गरेबां था.’
अब हमारी आँख कैसे खुली और कैसे हमारे सपने चूर-चूर हुए, इसकी दुखद कथा प्रस्तुत है -
दिसंबर, 1984 की बात है.
प्रधानमंत्री बनने के एक महीने बाद ही राजीव गांधी ने लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी थी.
उन दिनों हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग की शोभा बढ़ा रहे थे.
दिसंबर, 1984 से पहले हमारी लोकप्रियता का यह आलम था कि हमको दिन में औसतन 10-12 नमस्कार मिल जाते थे. लेकिन चुनाव की घोषणा होते ही अचानक हमारी लोकप्रियता आसमान छूने लगी थी.
जाने-पहचाने ही नहीं, बल्कि अनजाने लोग भी हमको नमस्कार करने लगे और हमारा हालचाल पूछने लगे. स्थानीय नेता तो अक्सर अपने हाथ जोड़ कर हमसे पूछते थे –
‘डॉक्टर साहब हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताएं.’
अब डॉक्टर साहब उन से यह तो नहीं कह सकते थे कि –
‘हमारा गैस सिलेंडर खाली हो गया है, उसे भरा कर ले आओ’
या फिर –
‘हमारी बिटिया गीतिका को गोदी में ले कर पाताल-लोक समान खत्यारी स्थित हमारे मकान तक पहुंचा दो.’
हम भी अपने कदरदानों के नमस्कार का प्यार से जवाब दे कर आगे बढ़ जाते थे.
रैमज़े इंटर कॉलेज में आयोजित एक कवि-सम्मलेन में हमारा काव्य-पाठ सुपर-हिट हुआ था,
कॉलेज में स्वतंत्रता दिवस पर और गांधी जयन्ती पर हमारे भाषणों का जलवा हुआ करता था लेकिन हमको यह नहीं पता था कि अपने भाषणों और अपनी कविताओं के ज़रिए हम अल्मोड़ावासियों के दिल में इस क़दर घर कर चुके थे.
अपनी बढ़ती हुई लोकप्रियता देख कर हम सोचने लगे थे कि क्यों न हम अगले चुनाव में खड़े हो जाएँ.
हम हिसाब लगा रहे थे –
‘जितने लोग आज हमको नमस्कार कर रहे हैं अगर उनके आधे भी हमको वोट दे देंगे तो हमारे सभी प्रतिद्वंदियों की तो ज़मानत भी ज़ब्त हो जाएगी.’
पूरे अल्मोड़ा में एक हमारी श्रीमतीजी ही थीं जो कि हमारी बढ़ती हुई लोकप्रियता से सर्वथा अप्रभावित थीं. उन्हें विश्वास था कि चुनाव में हमारे प्रतिद्वंदियों की ज़मानत ज़ब्त हो या न हो लेकिन हमारी ज़मानत का ज़ब्त होना निश्चित था.
खैर, अगला चुनाव तो अभी बहुत दूर था.
अभी तो हम नमस्कारों का और फ़र्शी सलामों का जवाब देने में ही व्यस्त थे, मस्त थे.
एक शाम हम लोग बाज़ार से लौट रहे थे. हमारे सामने से कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी श्री हरीश रावत का जुलूस आ रहा था.
श्री हरीश रावत ने हाथ जोड़ कर हम मियां-बीबी को नमस्कार किया फिर उन्होंने हमको संबोधित करते हुए कहा –
‘डॉक्टर जैसवाल साहब, हमको आपका आशीर्वाद, आपका सहयोग और आपका अमूल्य वोट चाहिए.’
हम तो अपने सरनेम से पहले ‘डॉक्टर’ और उसके बाद ‘साहब’ वाले इस संबोधन को सुन कर ही हवा में उड़ने लगे थे.
‘वाह ! अल्मोड़ा का सिटिंग एम० पी० हमारा नाम जानता है और हम से इतने प्यार से, इतने आदर से, हमारा वोट मांग रहा है.
हाय ! इतना आदर-सम्मान हम कहाँ समेट पाएंगे?
स्वयं तीनों लोकों के स्वामी भगवान श्री कृष्ण, अकिंचन सुदामा पांडे के सामने नतमस्तक हैं.’
उस दिन तो हमारी श्रीमती जी भी हमसे बेहद प्रभावित हुई थीं.
इस विषय में हमारी आपस में कोई बात नहीं हुई लेकिन रास्ते भर हमारी लोकप्रियता पर लगातार सवाल उठाने वाली की आँखें ज़मीन में गड़ी रहीं और हमारी नज़रें मारे घमंड के आसमान को इतना छूती रहीं कि घर पहुँचने तक हमने कई बार ठोकरें भी खाईं.
कई दिन तक घर में हमारी लोकप्रियता का दबदबा क़ायम रहा. फिर एक शाम हम दोनों का बाज़ार में हरीश रावत जी के दल से दुबारा आमना-सामना हो गया.
हम दोनों ने देखा और सुना कि हमारे परिचित अल्मोड़ा के एक स्थानीय कांग्रेसी नेता, हरीश रावत जी के कान में सामने आने वाले हर व्यक्ति का नाम फुसफुसा कर बता रहे हैं और उसके बाद ही श्री रावत उस व्यक्ति को उसके नाम से उसे संबोधित कर उस से वोट और सहयोग मांग रहे हैं.
इस बार भी हम मियां-बीबी के बीच श्री हरीश रावत की वोट मांगने की कला पर कोई बातचीत नहीं हुई लेकिन हमारी लोकप्रियता की तो इस एक ही धमाके में धज्जियाँ उड़ गयी थीं.
अब हमको पता चल चुका था कि हरीश रावत कैसे हमारा नाम जान गए थे.
आगे की कहानी ज़्यादातर दुखद है लेकिन थोड़ी सुखद भी है.
कहानी का दुखद हिस्सा कुछ यूँ है –
हम लोग घर लौट रहे थे. हमारी श्रीमती मुस्कुराते हुए मीरा के भजन की यह पंक्ति बार-बार गुनगुना रही थीं -
अब तो बात फैल गयी जानें सब कोई ----
अब तो बात फैल गयी जानें सब कोई ----’
हम चलते हुए और अपनी आँखें नीची किए हुए मीरा के भजन की इस पंक्ति को श्रीमती जी के श्री-मुख से सुने जा रहे थे, सुने जा रहे थे और मन ही मन कुढ़े जा रहे थे, कुढ़े जा रहे थे.
और किसी तक यह बात फैले या न फैले लेकिन हम तक यह बात फैल गयी थी कि लोकप्रियता के मामले में हम कितने पानी में थे.
इस कहानी का सुखद भाग बताना अभी शेष है –
हम बता ही चुके हैं कि श्री हरीश रावत को हमारा नाम पता होने का रहस्य उद्घाटित होते ही अपनी बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण उत्पन्न हमारा घमंड किस क़दर चकनाचूर हो चुका था.
अर्श से फ़र्श पर गिरने के बाद पिछले कई दिनों से आसमान में तकते हुए चलने वाले हम, अब रास्ते में अपनी नज़रें नीची कर के चल रहे थे.
सुखद बात यह थी कि नज़रें नीची कर के चलने के कारण रास्ते में, हमारे ठोकर खाने का अब कोई खतरा नहीं था.
😄😄😄😄संस्मरण भी समयानुकूल याद आते हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
संगीता जी, चुनावी माहौल में गीता के उपदेश पर चर्चा भला किसे अच्छी लगेगी?
हटाएंमोदी जी भी मिलते नाम लेकर आपका । आप अल्मोडा ही छोड गये कल ही आये थे पूछ रे थे सुना कान मे किसी से जायसवाल सहब ना दिख रे :)
जवाब देंहटाएंमोदी जी हमको कैसे भूल सकते हैं?
हटाएंउनकी कटिंग-कड़क चाय के हम ही तो सबसे बड़े ग्राहक थे.
हे भगवान !
हटाएंमीना जी, आपको भगवान जी क्या मेरे संस्मरण के समर्थन में याद आए या फिर उसके विरोध में?
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (14-02-2022 ) को 'ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज' (चर्चा अंक 4341) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
'ओढ़ लबादा हंस का घूम रहे हैं बाज़' (चर्चा अंक - 4341) में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार सर।
जवाब देंहटाएं😁दाँत नहीं दिखाना चाहती थी परंतु रहा नहीं गया।
बहुत ही बढ़िया।
सादर
अनीता, अगर तुम्हारे बत्तीसों दांत सलामत हैं तो उन्हें ज़रुर दिखाओ.
हटाएंवैसे हमारी नज़रें नीची होने से तुम्हें अपने दांत दिखाने की क्या ज़रुरत पड़ गयी?
लगता है कि तुम हमारी विरोधी पार्टी, यानी कि हमारी श्रीमती जी की पार्टी में शामिल हो गयी हो.
हास्य से भरपूर बढ़िया समसामयिक संस्मरण सर !
जवाब देंहटाएंमेरी व्यथा-कथा पर हंसने के लिए धन्यवाद मीना जी !
हटाएंअगर हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन गए तो वो मेरी पिटाई करने ग्रेटर नॉएडा ज़रुर पहुंचेंगे.
रोचक , सरस , समसामयिक प्रस्तुति 👌
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति-कलश !
हटाएंहम सबकी बदकिस्मती है कि हमारे नेतागण आज भी जनता को ऐसे ही उल्लू बना रहे हैं और जनता आज भी वैसे ही उल्लू बन रही है.
सुंदर
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद अनिता_सुधीर !
हटाएंहा हा हा...
जवाब देंहटाएंसर,आपके रोचक संस्मरण हमेशा सारगर्भित संदेश दे जाते हैं। हरीश रावत साहब का पता नहीं पर आपकी किताब के माध्यम से आपकी लोकप्रियता हमारे घर तक तो अवश्य पहुँच चुकी है।
प्रणाम सर,
सादर।
संस्मरण की ऐसी तारीफ़ के लिए धन्यवाद श्वेता.
हटाएंअगर झारखंडवासिनी श्वेता के घर में मेरी लोकप्रियता बढ़ रही है तो फिर मुझे 2024 का लोकसभा चुनाव झारखण्ड से ही लड़ना चाहिए.
वाह!!!
जवाब देंहटाएंकमाल का संस्मरण... बहुत ही मजेदार😁😁😁
लाजवाब🙏🙏🙏🙏
तारीफ़ के लिए शुक्रिया सुधा जी.
हटाएंपेंशन-भोगी जैसवाल साहब को घर में खाली बैठे-बैठे या सुबह-शाम टहलते हुए नई-पुरानी खुराफ़ातें सूझती ही रहती हैं.
आपके संस्मरण इतने सारे और हर संस्मरण इतना लाजवाब ! आपके छात्र भी बड़े भाग्यशाली रहे होंगे, मजे मजे में बोरिंग इतिहास पढ़ा देते होंगे आप तो ! आपकी स्मृति भी बहुत अच्छी है और वर्णन शैली भी। ये संस्मरण आनेवाली पीढ़ी की अमूल्य धरोहर हैं।
जवाब देंहटाएंमेरे संस्मरण की तारीफ़ के लिए शुक्रिया मीना जी, !
हटाएंमेरी दोनों बेटियों - गीतिका, रागिनी को मेरी कहानियों-कविताओं की तुलना में मेरे संस्मरण ज़्यादा पसंद हैं. उनको ख़ुश रखने के चक्कर में अब मैं संस्मरण लिखने में ही अधिक कलम चलाता हूँ.
इतिहास पढ़ते-पढ़ाते घटनाओं का ताना-बाना बुनने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती और रही स्मृति की बात तो जहाँ मैं कुछ भूलता भी हूँ तो उसे अपनी कल्पना से ऐसा जोड़ता-तोड़ता हूँ कि पढने वाले को कथा का तारतम्य टूटा हुआ न लगे.
बाक़ी आप मित्रों का प्यार और प्रोत्साहन है जो मेरी कलम को चलते रहने की ऊर्जा देता है.
भूमिका से ही आनंद की अनुभूति देता ये सुंदर संस्मरण बरबस हंसा गया😃😃
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा, तुमको मेरी आपबीती पढ़ कर हंसी आई है लेकिन मुझे तो उसे याद कर के ही रोना आता है.
हटाएं