बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

नए बजट का नए ढंग से स्वागत

बजट में धोखे नए हैं और चोटें भी नई,
कुछ हवाई हैं किले, कुछ लंतरानी हैं नई,
भूलें हम महंगाई को, क्यूं फ़िक्र बेकारी की हो,
क़र्ज़ लेने हैं नए, फिर ठोकरें खानी नई.

 

26 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. दिगंबर नासवा जी,
      हमको उन से दगा की है उम्मीद ----

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  2. नहीं नहीं फ़िर से पढ़िये एक बार और :) ;)

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    1. मित्र, इसे जो भी दुबारा-तिबारा पढ़ेगा फिर तो वह सिर्फ़ श्रद्धांजलि दिए जाने के क़ाबिल बचेगा.

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  3. मध्यम वर्ग लगता है उम्मीद हर सरकार से
    खत्म होती जाती है उम्मीद हर सरकार से ।
    मंहगाई की मार झेलता हुआ ये मध्यम वर्ग
    कुछ कह भी नहीं पाता वो हर सरकार से ।

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    1. संगीता स्वरुप (गीत) जी,
      बिना रीढ़ की हड्डी वाला यह मध्यम वर्ग सदैव त्रिशंकु की भाँति अधर में क्यों लटका रहता है?

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (03-02-2022 ) को 'मोहक रूप बसन्ती छाया, फिर से अपने खेत में' (चर्चा अंक 4330) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  5. 'मोहक रूप बसन्ती छाया फिर से अपने खेत में' (चर्चा अंक - 4330) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

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  6. ऐसा ही दर्द हर बार दे जाता है बजट ।
    कोई नई संजवनी नहीं लता है बजट ।
    करें तो क्या करें हम ही बड़े नकारा हैं
    हमारा नजरिया भी तो इन्हें सिखाता नही सबक ।।

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    1. जिज्ञासा, सत्ता के मद में जो अंधे हो गए हैं, उनको हमारा नज़रिया दिखाई ही कहाँ देता है?

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    2. जी आप बिल्कुल सही कह रहे हैं!
      दिखाई भी कैसे देगा सत्ता का नशा होता ही कुछ ऐसा ही कि कुछ दिखाई ही नहीं देता है!

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    3. मनीषा,
      कोऊ नृप होय हमें है हानी,
      बर्तन मांज, भरेंगे पानी.

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  7. मध्यवर्ग ने बड़ी आस लगाई
    कुछ के लबों पर मुस्कान आई
    तो कुछ ने गहरी चोट खाई
    पर वास्तव में हर बार
    बजट मतलब हवा हवाई!

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    1. मनीषा,
      'हवा-हवाई' तक तो बर्दाश्त कर लेते लेकिन जब - 'लुटा-लुटाई' शुरू हो जाए तो फिर एक ही गाना याद आता है -
      'जाएं तो जाएं कहाँ ---'

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  8. काश कोई मध्यम और निम्न वर्ग की भी सुनता ।

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  9. मीना जी,
    मध्यम वर्ग के रीढ़ की हड्डी नहीं है और गरीब के पास ढंग की चड्डी भी नहीं है.
    एक में शिक़ायत करने की या अपनी मांग रखने की हिम्मत ही नहीं है और दूसरे को दो जून की रोटी का जुगाड़ करते-करते कुछ और करने की फ़ुर्सत ही नहीं है.

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    1. मगर हमारे देश में अधिसंख्यक वर्ग तो यही हैं । और बजट में उत्थान और विकास की बातें भी इन्हीं के लिए है । अब यह मत कह दीजिएगा - बातें हैं बातों का क्या ?

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    2. आप यह बताइये कि वो 'बातें हैं, बातों का क्या' क्यों न कहें?

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  10. हर साल बजट चिराग से कोई दयालु जिन्न की उम्मीद में सुबह से बैठे चिराग रगड़ते रहता है बेचारा अलादीन पर नतीजा वही टांय-टांय फिस्स!बस बुझते चिराग का धुआं ही है हमारे हिस्से।
    बहुत तीक्ष्ण प्रहार पर चोट भी स्वयं को ही लगनी है वहां किसी के कानों जूं भी नही रेंगनी।
    श्र्लाघ्य पंक्तियां।
    सादर साधुवाद।

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    1. ऐसी प्रशंसा के लिए धन्यवाद बहुत छोटा शब्द है कुसुम जी.
      आप कद्रदानों ने मेरी कलम को चलते रहने की ऊर्जा दी है.

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    1. प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मनोज कायल जी.

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  12. बढ़िया है गोपेश जी। बजट पेश कर सरकार कोई नया अजूबा तो पेश नहीं करते। वही ढाक के तीन पात 🙏🌷🌷💐💐

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    1. रेणुबाला, बजट में 'ढाक के तीन पात' कहाँ होते हैं?
      वो बेचारे जनता को हर बजट में जनता को नए ख़याली पुलाव परोसते हैं, नए-नए धोखे देते हैं और तुम हो कि उन पर परम्परावादी होने का इलज़ाम लगा रही हो.

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