मध्यम वर्ग लगता है उम्मीद हर सरकार से खत्म होती जाती है उम्मीद हर सरकार से । मंहगाई की मार झेलता हुआ ये मध्यम वर्ग कुछ कह भी नहीं पाता वो हर सरकार से ।
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मीना जी, मध्यम वर्ग के रीढ़ की हड्डी नहीं है और गरीब के पास ढंग की चड्डी भी नहीं है. एक में शिक़ायत करने की या अपनी मांग रखने की हिम्मत ही नहीं है और दूसरे को दो जून की रोटी का जुगाड़ करते-करते कुछ और करने की फ़ुर्सत ही नहीं है.
मगर हमारे देश में अधिसंख्यक वर्ग तो यही हैं । और बजट में उत्थान और विकास की बातें भी इन्हीं के लिए है । अब यह मत कह दीजिएगा - बातें हैं बातों का क्या ?
हर साल बजट चिराग से कोई दयालु जिन्न की उम्मीद में सुबह से बैठे चिराग रगड़ते रहता है बेचारा अलादीन पर नतीजा वही टांय-टांय फिस्स!बस बुझते चिराग का धुआं ही है हमारे हिस्से। बहुत तीक्ष्ण प्रहार पर चोट भी स्वयं को ही लगनी है वहां किसी के कानों जूं भी नही रेंगनी। श्र्लाघ्य पंक्तियां। सादर साधुवाद।
रेणुबाला, बजट में 'ढाक के तीन पात' कहाँ होते हैं? वो बेचारे जनता को हर बजट में जनता को नए ख़याली पुलाव परोसते हैं, नए-नए धोखे देते हैं और तुम हो कि उन पर परम्परावादी होने का इलज़ाम लगा रही हो.
बजट की माया यही है ...
जवाब देंहटाएंदिगंबर नासवा जी,
हटाएंहमको उन से दगा की है उम्मीद ----
नहीं नहीं फ़िर से पढ़िये एक बार और :) ;)
जवाब देंहटाएंमित्र, इसे जो भी दुबारा-तिबारा पढ़ेगा फिर तो वह सिर्फ़ श्रद्धांजलि दिए जाने के क़ाबिल बचेगा.
हटाएंमध्यम वर्ग लगता है उम्मीद हर सरकार से
जवाब देंहटाएंखत्म होती जाती है उम्मीद हर सरकार से ।
मंहगाई की मार झेलता हुआ ये मध्यम वर्ग
कुछ कह भी नहीं पाता वो हर सरकार से ।
संगीता स्वरुप (गीत) जी,
हटाएंबिना रीढ़ की हड्डी वाला यह मध्यम वर्ग सदैव त्रिशंकु की भाँति अधर में क्यों लटका रहता है?
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (03-02-2022 ) को 'मोहक रूप बसन्ती छाया, फिर से अपने खेत में' (चर्चा अंक 4330) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
'मोहक रूप बसन्ती छाया फिर से अपने खेत में' (चर्चा अंक - 4330) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
जवाब देंहटाएंऐसा ही दर्द हर बार दे जाता है बजट ।
जवाब देंहटाएंकोई नई संजवनी नहीं लता है बजट ।
करें तो क्या करें हम ही बड़े नकारा हैं
हमारा नजरिया भी तो इन्हें सिखाता नही सबक ।।
जिज्ञासा, सत्ता के मद में जो अंधे हो गए हैं, उनको हमारा नज़रिया दिखाई ही कहाँ देता है?
हटाएंजी आप बिल्कुल सही कह रहे हैं!
हटाएंदिखाई भी कैसे देगा सत्ता का नशा होता ही कुछ ऐसा ही कि कुछ दिखाई ही नहीं देता है!
मनीषा,
हटाएंकोऊ नृप होय हमें है हानी,
बर्तन मांज, भरेंगे पानी.
मध्यवर्ग ने बड़ी आस लगाई
जवाब देंहटाएंकुछ के लबों पर मुस्कान आई
तो कुछ ने गहरी चोट खाई
पर वास्तव में हर बार
बजट मतलब हवा हवाई!
मनीषा,
हटाएं'हवा-हवाई' तक तो बर्दाश्त कर लेते लेकिन जब - 'लुटा-लुटाई' शुरू हो जाए तो फिर एक ही गाना याद आता है -
'जाएं तो जाएं कहाँ ---'
काश कोई मध्यम और निम्न वर्ग की भी सुनता ।
जवाब देंहटाएंमीना जी,
जवाब देंहटाएंमध्यम वर्ग के रीढ़ की हड्डी नहीं है और गरीब के पास ढंग की चड्डी भी नहीं है.
एक में शिक़ायत करने की या अपनी मांग रखने की हिम्मत ही नहीं है और दूसरे को दो जून की रोटी का जुगाड़ करते-करते कुछ और करने की फ़ुर्सत ही नहीं है.
मगर हमारे देश में अधिसंख्यक वर्ग तो यही हैं । और बजट में उत्थान और विकास की बातें भी इन्हीं के लिए है । अब यह मत कह दीजिएगा - बातें हैं बातों का क्या ?
हटाएंआप यह बताइये कि वो 'बातें हैं, बातों का क्या' क्यों न कहें?
हटाएंवाह!वाह!सर... सराहनीय।
जवाब देंहटाएंसादर
'वाह ! वाह !' के लिए धन्यवाद अनीता.
हटाएंहर साल बजट चिराग से कोई दयालु जिन्न की उम्मीद में सुबह से बैठे चिराग रगड़ते रहता है बेचारा अलादीन पर नतीजा वही टांय-टांय फिस्स!बस बुझते चिराग का धुआं ही है हमारे हिस्से।
जवाब देंहटाएंबहुत तीक्ष्ण प्रहार पर चोट भी स्वयं को ही लगनी है वहां किसी के कानों जूं भी नही रेंगनी।
श्र्लाघ्य पंक्तियां।
सादर साधुवाद।
ऐसी प्रशंसा के लिए धन्यवाद बहुत छोटा शब्द है कुसुम जी.
हटाएंआप कद्रदानों ने मेरी कलम को चलते रहने की ऊर्जा दी है.
लाजवाब
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद मनोज कायल जी.
हटाएंबढ़िया है गोपेश जी। बजट पेश कर सरकार कोई नया अजूबा तो पेश नहीं करते। वही ढाक के तीन पात 🙏🌷🌷💐💐
जवाब देंहटाएंरेणुबाला, बजट में 'ढाक के तीन पात' कहाँ होते हैं?
हटाएंवो बेचारे जनता को हर बजट में जनता को नए ख़याली पुलाव परोसते हैं, नए-नए धोखे देते हैं और तुम हो कि उन पर परम्परावादी होने का इलज़ाम लगा रही हो.