लाला मूलचंद कीरतपुर के बड़े रईस थे. उनकी तिजोरी सोने-चांदी और रुपयों से हमेशा भरी रहती थी.
और लाला की तिजोरी भरी क्यों नहीं रहती?
एक तरफ़ लाला का कोयले का थोड़ा सफ़ेद और ज़्यादातर काला धंधा ज़ोरों में चल रहा था तो दूसरी तरफ़ लाला की कंजूसी की कृपा से उनकी तिजोरी सिर्फ़ माल भरने के काम आती थी न कि माल निकालने के.
लाला की धर्मपत्नी श्रीमती भागवंती पर अपने पति की कृपणता का कोई असर नहीं पड़ा था. उनके पिता उनके लिए अच्छी-खासी संपत्ति छोड़ गए थे और उस से होने वाली आमदनी को वो अपनी मर्ज़ी से खर्च भी करती थीं.
लाला का इकलौता बेटा पूरन चंद उनकी – ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ वाली जीवन-शैली से इतना त्रस्त हुआ कि उसने घर जमाई बन कर बाजपुर स्थित अपने ससुर के धंधे में ही उनका हाथ बटाना शुरू कर दिया था.
लाला ने पूरन चंद को अपनी जायदाद से तो नहीं लेकिन अपने घर से बेदख़ल कर दिया था.
बेचारी भागवंती देवी तीरथ जाने के बहाने बाजपुर जा कर चोरी-छुपे अपनी आँखों के तारे पूरन से, अपनी बहू से और अपने पोते-पोतियों से मिलती रहती थीं.
लाला अपनी एकमात्र बेटी शोभा से भी नाराज़ ही रहते थे. उस पुराने ज़माने में उसने अपने पिता की मर्ज़ी के बगैर एक स्कूल मास्टर से प्रेम-विवाह किया था.
लाला मूलचंद यूँ तो बेटी के प्रेम-विवाह से अन्दर ही अन्दर ख़ुश थे क्योंकि उसकी शादी में उन्हें एक धेला भी खर्च नहीं करना पड़ा था लेकिन ज़ाहिरी तौर पर उन्हें अपना गुस्सा तो जताना ही था इसलिए उन्होंने अपने घर में अपने बेटे के परिवार की ही तरह अपनी बेटी के परिवार की एंट्री भी बैन कर रखी थी.
भागवंती देवी को जसवंतपुर में रह रही शोभा से और उसके परिवार से भी चोरी-छुपे ही मिलना पड़ता था और इसके लिए उन्हें गंगा-स्नान का बहाना करना पड़ता था.
शोभा की शादी के एक साल बाद ही उसके यहाँ चाँद सा एक बेटा हुआ था.
नाराज़ नाना न तो नाती को देखने गए और न ही उसके लिए उन्होंने कोई उपहार भेजा.
इस बार भी भागवंती देवी का गंगा-स्नान का बहाना ही नवजात शिशु को एक से एक कीमती उपहार दिलवा पाया था.
देखते-देखते शोभा का बेटा कुलदीप पांच साल का हो गया था पर उसने अब तक न तो अपनी ननिहाल देखी थी और न ही अपने नाना को देखा था. उसकी नानी उसके घर आती तो थीं लेकिन उन्हें हमेशा जल्दी से जल्दी वापस लौटने की पड़ी रहती थी.
कुलदीप के पांचवें जन्मदिन पर भागवंती देवी उसे आशीर्वाद देने के बाद जब जसवंतपुर से कीरतपुर लौटने लगीं तो वह उनका आंचल पकड़ कर कहने लगा –
‘नानी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा.’
फिर वो हुआ जो इस से पहले कभी नहीं हुआ था. भागवंती देवी ने दृढ़ता के साथ शोभा से कहा –
‘शोभा, मैं कुलदीप लल्ला को अपने साथ ले जा रही हूँ. अगर इसे तेरे बाबूजी ने अपना लिया तो तू भी आ जइयो नहीं तो मैं इसे फ़ौरन तेरे पास वापस ले आऊँगी.’
शोभा ने अपनी माँ के इस साहसिक अभियान का कोई विरोध नहीं किया और भागवंती देवी को कुलदीप सौंप दिया.
भागवंती देवी और उनकी उंगली थामे कुलदीप जब लाला मूलचंद के सामने हाज़िर हुए तो लाला पलक झपकते ही बिना बताए सारी कहानी समझ गए. उन्होंने ताना मारते हुए अपनी श्रीमती जी से पूछा –
‘क्यों भागवान, क्या गंगा-घाट पर नाती भी मिलते हैं?
सच बताना, ये छोरा शोभा का बेटा है न?
इसे यहाँ लाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’
भागवंती देवी ने लाला के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने कुलदीप को पुचकार कर कहा –
‘बेटा, नाना जी के पैर छुओ.’
आज्ञाकारी बेटा जी ने नानी के आदेश का पालन करते हुए नाना जी के पैर छू लिए.
फिर एक अजूबा हुआ.
लाला ने न सिर्फ़ कुलदीप को आशीर्वाद दिया बल्कि उसे प्यार से अपनी गोदी में उठा भी लिया. फिर उन्होंने भागवंती देवी को झूठ-मूठ में डांटते हुए कहा –
‘भागवान, तुमने लल्ला को इसकी माँ से चुराया है. इस से पहले कि वो थाने में इसके अगवा करने की रपट लिखाए तुम उसे भी यहाँ बुला लो.’
मारे ख़ुशी के भागवंती देवी की आँखों से आंसुओं की धार बह निकली. उन्होंने शोभा को बुलाने के लिए तुरंत तार भिजवा दिया.
और इस तरह कुलदीप लल्ला के कीरतपुर पधारने के बाद उनकी माताजी को उनकी बदौलत ही अपना मायका देखना और अपने बाबूजी से मिलना नसीब हुआ.
कुलदीप की और लाला की दोस्ती के चर्चे तो पूरे कीरतपुर में फैल गए.
सुबह-सुबह कुलदीप लाला जी के साथ कंपनी बाग़ घूमने जाता था. लाला जी देर तक उसे झूले पर झुलाते थे तो कभी उसके साथ फिसलने पर उसी की तरह शोर मचाते हुए फिसलते थे.
बग्घी और मोटर कार रखने की हैसियत रखने वाले लाला जी, कुलदीप को अपनी साइकिल पर बैठा कर पूरे कीरतपुर की सैर कराते थे.
लाला कुलदीप लल्ला पर अपनी जान छिड़कते थे और उनका लल्ला भी उन्हें अपना सबसे पक्का दोस्त समझता था.
अपनी दुकान पर बिताए गए आठ घंटों के अलावा लाला का सारा वक़्त अपने नाती के साथ ही बीता करता था.
लेकिन इस नए उपजे प्रेम ने लाला के – ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ वाले उसूलों पर कोई आंच नहीं आने दी थी. हाँ, उसमें आने-दो आने के हिसाब से रोज़ाना की खरोंच वह बाल-गोपाल ज़रुर लगा देता था.
कुलदीप के नाना जी उसको हर सोमवार को साइकिल पर बैठा कर पुत्तन हलवाई के यहाँ दो आने की जलेबी खिलवाते थे, इस ट्रीट का उस बाल-गोपाल को अगले छः दिन तक इंतज़ार रहता था.
शोभा के यह समझ में नहीं आता था कि कुलदीप को जलेबी खिलवाने के लिए उसके बाबूजी उसे घर से दो मील दूर पुत्तन हलवाई की दुकान पर क्यों ले जाते थे जब कि घर के आसपास हलवाइयों की कई अच्छी दुकानें थीं.
भागवंती देवी ने इस पहेली को सुलझाते हुए शोभा को बताया –
‘हमारे घर के आसपास के सभी हलवाई देसी घी में बनी जलेबी चार रूपये सेर बेचते हैं जब कि पुत्तन हलवाई घासलेट (वनस्पति घी) में बनी जलेबी दो रुपया सेर बेचता है. दो आने की छटांक भर जलेबी खा कर कुलदीप लल्ला ख़ुश और अपनी जेब से सिर्फ़ दुअन्नी निकलने से तेरे बाबूजी भी ख़ुश !’
कुलदीप को नाना जी के साथ हर मंगलवार की शाम को हनुमान जी के मन्दिर जाना भी बहुत अच्छा लगता था. मन्दिर में नाना जी तो कभी प्रसाद खरीद कर उसे नहीं खिलवाते थे लेकिन और बहुत से भक्त उसे प्रसाद में ख़ूब सारी बूंदी देते थे.
कुलदीप के अपने शहर जसवंतपुर में कोई सिनेमा हॉल ही नहीं था लेकिन कीरतपुर में तो दो-दो सिनेमा हॉल थे.
कुलदीप के बहुत जिद करने पर एक दिन नाना जी ने उसे सिनेमा हॉल ले जा कर एक फ़िल्म दिखा दी लेकिन चवन्नी क्लास में और वो भी उसे अपनी गोदी में बिठा कर.
कुलदीप की नानी को न तो उसकी मनपसंद जलेबी बनाना आता था और न ही वो कभी बाज़ार से उसके लिए जलेबी मंगवाती थीं. वो तो आए दिन उसके लिए कलाकंद या बादाम का हलुआ बनाती थीं जो कि उसे बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते थे.
नाना जी बाज़ार में कुलदीप को अक्सर उसके मन-पसंद गोलगप्पे खिलाया करते थे जब कि नानी घर के सामने आए गोलगप्पे वाले को भी यह कह कर भगा देती थीं कि गोलगप्पे खाने से हमारे लल्ला का गला खराब हो जाएगा.
नानी उसके लिए बहुत से कपड़े लाती थीं लेकिन माताजी तो बस, उन्हें अपने बक्से में रख लेती थीं.
नानी कुलदीप के लिए एक छोटी सी साइकिल ले कर भी आई थीं लेकिन उसको तो अभी साइकिल चलाना आता ही नहीं था.
हाँ, कुलदीप को पटरी पर से खरीदी नाना जी की दिलाई टोपी, पीपनी रबड़ की गेंद, और गुलेल बहुत पसंद थीं.
गर्मियां ख़त्म होने को थीं और अब तो जसवंतपुर के स्कूल में कुलदीप का नाम भी लिखाया जाना था.
कुलदीप तो नाना जी को छोड़ कर जसवंतपुर जाने को तैयार ही नहीं था और इधर नाना जी भी उस से बिछड़ने के ख़याल से ही रुआंसे हो रहे थे.
आख़िरकार शोभा और कुलदीप की विदाई की घड़ी आ ही गयी.
लाला मूलचंद तो शोभा के साथ रखे जाने के लिए पुत्तन हलवाई के यहाँ से दो सेर वनस्पति घी की बढ़िया मिठाई लाना चाहते थे लेकिन भागवंती देवी ने अपनी वीटो पॉवर का इस्तेमाल कर घर में ही हलवाई बुलवा कर देसी घी के तमाम पकवान बनवाए और उन सबको बिटिया के सामान के साथ बंधवा दिया.
बेटी के और नाती के विदा होते समय कलेजे पर पत्थर रख कर लाला मूलचंद ने शोभा को पांच रूपये भेंट किए.
और जब कुलदीप को भेंट देने की बारी आई तो लाला ने पहले कुलदीप के हाथों में पुत्तन हलवाई के यहाँ से लाया हुआ जलेबी का दौना रखा और फिर उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसे दो रूपये का एक चमकता हुआ नोट प्रदान किया.
भागवंती देवी ने ने भी शोभा के हाथ में सोने की एक गिन्नी रक्खी और कुलदीप की नेकर की जेब में चांदी के दो सिक्के रख दिए.
कुलदीप ने अपने नेकर की जेब में से नानी की भेंट निकाल कर देखी –
कालिख लगे दो सफ़ेद सिक्के उसका मुंह चिढ़ा रहे थे.
कुलदीप को इतनी गणित आती थी कि वह दो गंदे से सिक्कों की भेंट में और दो रूपये के चमचमाते नोट के साथ जलेबी के दौने की भेंट में यह जान सके कि कौन बड़ा है और कौन छोटा. उसने अपनी माँ से फुसफुसाते हुए पूछा –
‘माताजी, नानी ने तुमको क्या दिया?’
माताजी ने नानी से भेंट में मिली हुई सोने की गिन्नी कुलदीप को दिखा दी.
नानी से माताजी को मिली भेंट देख कर कुलदीप लल्ला नानी से शिकायती लहजे में बोले –
‘नानी, नानाजी बहुत अच्छे हैं. नानाजी ने मुझे इत्ती सारी जलेबी दी हैं और दो रुपये का अच्छा वाला नोट भी दिया है. उन्होंने माताजी को तो पांच रूपये दिए हैं.
तुमने मुझे दो गंदे सिक्के दिए हैं और माताजी को बस, एक पीला सिक्का !
तुम बड़ी कंजूस हो नानी !’
कुलदीप के यह समझ में नहीं आ रहा था कि वो नानी को कंजूस कह रहा है तो फिर नानी और माताजी इतना हंस क्यों रही हैं!
कितना भी कंजूस और सख्त इंसान हो अपनों के प्यार के आगे उसे झुकना ही पड़ता है। बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंकहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति !
हटाएंनाना जी का प्यार तो जागा लेकिन उनकी कंजूसी ज्यों की त्यों बरक़रार रही.
वाह, बहुत बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंकई पुराने नाना,बाबा ऐसे ही हुआ करते थे । आपके हर चरित्र बिलकुल सजीव कहीं आसपास दिखते दिखाई देते हैं।
रोचक संस्मरण ।बहुत आभार आपका 👌👏
प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा ! एटा में मेरे एक नाना (मेरे सगे नाना का तो मेरे जन्म से पहले ही स्वर्गवास हो गया था) ढपोल शंख टाइप हुआ करते थे. वो मुझ से मेरे मनपसंद व्यंजनों को मुझे खिलाने के बारे में अक्सर पूछते रहते थे लेकिन जब मैं बड़े तकल्लुफ के बाद उन्हें किसी व्यंजन का नाम बताता था तो वो फ़ौरन किसी नौकर को हलवाई की दुकान पर भेजने का नाटक करते थे जो कि हमेशा खाली हाथ ही लौटता था और उन्हें यह बताता था कि वह आइटम तो पूरे एटा में कहीं मिला ही नहीं.
हटाएंबहुत ही मजेदार प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं"वीटो पॉवर..." वाह क्या शानदार चयन है शब्दों का!
पढ़ कर आनन्द आ गया आदरणीय सर!
मनीषा, कहानी पढ़ कर अगर तुम्हें आनंद आया है तो समझो कि मेरी कलम की मेहनत सफल हुई.
हटाएंधन्यवाद के साथ तुम्हें आशीर्वाद !
रोचक कहानी
जवाब देंहटाएंकई रिश्तों की सुगंध आने लगी
बधाई
कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी.
हटाएंबच्चों का अच्छे-बुरे का अपना नज़रिया होता है.
सुन्दर लघु कथा
जवाब देंहटाएंकहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद मनोज कायल जी.
हटाएंरोचक ...
जवाब देंहटाएंकई पात्र जैसे अस पास बिखरे हुवे हों ...
कहानी की तारीफ़ के लिए धन्यवाद दिगंबर नासवा जी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंमेरी कहानी की प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अमृता तन्मय !
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